SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 241
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २२४ अनेकान्त प्रादि के धूम-नेत्र रखने लगे। इससे पता लगता है कि 'हड' वनस्पति 'हढ' नाम से भी जानी जाती थी। भिक्षयों और सन्यासियो में धूम पान के लिए धूम-नेत्र हरिभद्र सूरि ने इसका अर्थ एक प्रकार की प्रबद्धमूल रखने की प्रथा दी, किन्तु भगवान महावीर ने अपने वनस्पति किया है७ । जिनदास महत्तर ने इसका अर्थ द्रह, निर्ग्रन्थों में इसे रखने की अनुमति नहीं दी२। तालाब आदि मे होने वाली एक प्रकार की छिन्नमूल २ हट (हडो) वनस्पति किया है । इसमे पता चलता है कि 'हड' बिना सूत्रकृताङ्ग में 'हड' को 'उदक-संभव' वनस्पति कहा मूल की जलीय वनस्पति है। गया है। वहाँ उसका उल्लेख उदक, अवग, पणग, सेवाल, सुश्रुत में मेवाल के माथ 'हट' तण पद्मपत्र प्रादि कलम्बुग के माथ किया गया है३ । 'प्रज्ञापना' सूत्र में का उल्लेख है । इसमे पता चलता है कि सस्कृत मे 'हड' जलरुह वनस्पति के भेदों को बताते हुए उदक आदि के का नाम 'हट' प्रचलित रहा । यही हट से पाच्छादित जल माथ 'हढ' का उल्लेख मिलता है४। इसी सूत्र में साधारण को दूषित माना है । इससे यह निष्कर्ष महज ही निकशरीरी बादर-वनस्पतिकाय के प्रकारो को बताते हए 'हढ' लता है कि 'हड' वनस्पति जल को आच्छादित कर रहती वनस्पति का नाम पाया है। प्राचाराङ्ग निर्यक्ति मे है । 'हढ' को मस्कृत मे 'हट' भी कहा गया है१०॥ अनन्त-जीव वनस्पति के उदाहरण देते हुए सेवाल, कत्थ, हड' वनस्पति का अर्थ कई अनुवादो में घास ११ अथवा भाणिका, अवक, पणक, किण्णव आदि के साथ 'हढ' का वृक्ष १२ किया गया है । पर उपर्युक्त वर्णन से यह स्पष्ट है कि नामोल्लेख है ६ । इन समान लेखो से मालम होता है कि १. देग्यो पृष्ठ ६३, पाद-टिप्पण नं०८ अबद्धमूलो वनस्पति विशेष । २. विनयपिटक. महावग्ग ८।२।७ : जिनदास चणि, पृष्ठ ८६ भिक्ख उच्चावचानि धूमनेतानि-सोवण्णमय हढो णाम वणस्सइविसेमो, मो दहतलागादिष छिण्णरूपिमय । मूलो भवति । ३. सूत्र वृताङ्ग २१३१५४, पत्र ३४६ ६. सुश्रुत (मूत्रस्थान) ४५७ प्रहावर पुरक्खायं इहेगतिया सत्ता उदगजोणिया तत्र यत् पकवालहटतृणपद्मपत्रप्रभृतिभिरवच्छन्न उदगसंभवा जाव कम्मनियाणेण तत्थबुक्कमा णाणा शशिसूर्यकिरणानिल भिजुष्ट गन्धवर्णा मोपमष्टच विहजोणिएसु उदएस उदगत्ताए अवगत्ताए पणगत्ताए ताव्यापन्नमिति विद्यात् । सेवालत्ताए कलबुगत्ताए हडताए कसे रुगताए-- १०. प्राचागग नियुक्ति, गाथा १४१, पत्र ५४ विउट्टन्ति सेवालकत्थभाणिका वकपनककिण्वहठादयो नन्तजीवा ४. प्रज्ञापना ११४५, पृष्ठ १०५ गदिता। ११. (क) Das. (का० वा० अभ्यङ्कर) नोट्स, पृ० १३ से कि तं जलरुहा ?, जलम्हा प्रणेग विहा पन्नत्ता । The writer of the Vritti explains it as a तजहा-उदए, अवए, पणए, सेवाले, कलबुया, हढेय । kind of grass which leans before every breeze that comes from any direction. ५. वही, ११४५, पृष्ठ १०८, १०६ (ख) समीसाजनो उपदेश (गो०जी० पटेल) पृ० १६ से कि तं साहारणसरीरबादरवणस्स इकाइया ? । ऊंडां मूल न होवाने कारणे वायुथी पाम तेम फेकाता साहारणसरीरबादरवणस्म इकाइया अणोगविहा 'हड' नामना घासपन्नत्ता। तजहा-किमिरासि भद्दमुत्था णागलई पेलुगा १२. दशवकालिक (जी० घेलाभाई), पत्र ६ इय । किण्हे पउले य ह हरतणुया चेव लोयाणी । हड नामा वृक्ष समुद्रने कीनारे होय छे । तेनु मूल प्राचारोग नियुक्ति, गाथा १४१, पृष्ठ ५४ बराबर होतू नथी, अने माथे भार घणो होय छे अने सेवालकत्थभाणियप्रवए पणए य किनए य ह । ममुद्रने कीनारे पवननु जोर धणु होवाथी ते वृक्ष एए अणन्तजीवा भणिया मण्णे लोयाणी ॥ उखडीने समुद्रमा पडे अने त्या हेराफेरा कर्या करे ।
SR No.538017
Book TitleAnekant 1964 Book 17 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1964
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy