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________________ १३८ इसके पश्चात् परगनों के अधिकारियों की परिभाषाएं हैं जिनमें अमीन, करोटी, कोलकरोडी पोरांनी कार्य निगार या निवास, सहवलदार, कोटवाल फोजदार आदि का वर्णन है। 'पोनेदार' का वर्णन करते हुए लिखा है"राजद्रव्यं प्रजादन माददीत परीव्य यः । धनिको निक्षियेत पश्चात कथितः प्राप्तधारकः ॥ अन्त में उपसंहाररूप में लिखा है श्रनेकान्त " इत्यादयोऽधिकाराः स्युः प्रायशश्चकवर्तिनान् । सम्पत्तेरनुसारेण खन्येषां विद्धि भूभुजाम् ॥ १०२ ॥ एपा पद्धति राख्याना राजरीति वुभुत्सया । गर्भाजसेवा पाका मिश्च ॥ १०६ ॥ इति यवन पाठ्यनुकृत्या राजरीति निरूपणं नाम शतकं विरचितं दलपतिरायेण ॥ समाप्त शुभव पांचवे अध्याय में जिन धर्म अधर्म और श्राकाश द्रव्यों को एक-एक कहा है उन्हीं की और भी विशेषता प्रकट करने क लिये सूत्रकार कहते है : निष्क्रियाणि च ||७|| पद छेद : धर्मादीनि द्रव्याणि निष्क्रियाणि भवन्ति । धर्म, आदि द्वय धर्म, अधर्म, आकाश द्रव्य --क्रिया रहित हैं-- देशान्तर प्राप्ति रूप क्रिया से रहित हैं-हलन चलन क्रिया रहित है इस कथन से जीव पुदगल स्वतः क्रियावान भी सिद्ध हो जाते है । इस सूत्र का रहस्य समझने के लिये हमें पहले जैनधर्म के उत्पादव्यय का सिद्धान्त समझना आवश्यक है । द्रव्यों में निम्न प्रकार से उत्पाद व्यय होते हैं। । (१) पहली क्रियागुण द्वारा स्थान पतित दानि वृद्धि रूप उत्पाद व्यय है । यह परिणमन प्रत्येक aor at farकारण स्वतः सिद्ध स्वभाव है । द्रव्य एक स्थान पर अवस्थित रहे या दूसरे स्थान पर जाने के लिये गमन करे उस से इस परिणमन का कोई सम्बन्ध नहीं है । यह परिणमन तो छहों द्रव्यों में प्रत्येक समय स्वभाव या विभाव हर अवस्था में होता ही रहता है । यह ग्रन्थ के प्रारम्भ करते समय लेखक ने स्पष्ट रूप में बतलाया है कि इस ग्रन्थ का निर्माण बंद, कोश, स्वानुभव आदि के आधार पर किया गया है। वह एक प्रकार से यवन कालीन प्रमुख पारिभाषिक शब्दों का संस्कृतमेश है इसके द्वारा हम तकालीन शब्दों एवं श्रावश्यक व्यवहारों का ज्ञानकर सकते है । यह एक महत्वपूर्ण कृति है तथा प्रकाशन योग्य है । मोचशास्त्र के पांच अध्याय के सूत्र ७ पर विचार ( प० सरनाराम जैन, बड़ौत 'मेरट' ) मोरया तत्यात्र के परिणमन द्रव्य से तादात्म्य अनादि अनन्त है । केवलझान गम्य वचन गोचर है । 'पर्याय' रूप है । इस की अपेक्षा सब द्रव्य क्रियावान है पर यह क्रिया यहां इष्ट नहीं है। (२) डुमरी क्रियाभाव की हीनाधिकता रूप होती है बच्चे का ज्ञान अभी हीन है। फिर स्प जवान होता जाता है वह बढ़ता जाता है । बुढापे में घटने लगता है । यह जो ज्ञान की हीनाधिकता या मनिज्ञान से श्रुत. अवधि, मन पर्यय और केवल रूप परिणमन करना या दर्शन का अनु अधि केवल रूप परियमन करना । इसी प्रकार पुदगल में स्पर्श, रस, गंध, वर्ण का परिणमन जैसे पीलेपने का तरतमरूप परिणमन या पीले से हरे रूप परिणमप धर्मद्रश्य का गतिहेतुत्य परिमन धर्म हस्य का स्थिति हेतु परिमन, आकाश का अवा परिणमन तथा काल का वर्तनाहेतुत्व परिणमन यह संयोग जनित परिणमन है; क्योंकि संयोग का सद्भाव या अभाव सापेज़ होता है । इस को 'स्वभाव गुरण व्यंजन पर्याय' कहते हैं । इस परिणमन मे भी उपरोक्त सूत्र का सम्बन्ध नहीं है क्योकि जब द्रव्य एक क्षेत्र में स्थित रहे तब भी यह क्रिया होती है और दूसरे क्षेत्र में जाय तब भी होती है।
SR No.538017
Book TitleAnekant 1964 Book 17 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1964
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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