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________________ ६६ अनेकान्त फतेहसिंह के समय में टूट कर गिर पड़ा था। हमारा (झ) वर्षासावजी-जोगी गोत्र के बर्धासाव जी अनुमान है कि वह शिलालेख तभी वहाँ से उदयपुर लाया नागपुर निवासी थे। भोंसला राजा रघोजी (द्वितीय) के गया होगा। दरबार में इन्हें अच्छी मान्यता प्राप्त थी। इन्होंने सं० (घ) पूनासाह-दक्षिण में जाने वाले बघेरवाल १८४५ में नागपुर में एक मन्दिर बनवाया जो इस समय परिवारों के ये प्रमुख थे। कारंजा में भहारक सोमसेन के सेनगढ़ मन्दिर कहलाता है। इस मन्दिर के निर्माण के ये शिष्य हुए। अतः उनका समम बिक्रम की सोलहवीं समय रघु नामक कवि द्वारा लिखी गई विस्तृत मराठी सदी में निश्चित है। ये उपयुक्त जीजामाह के पुत्र थे। कविता हमने 'सन्मनि' में प्रकाशित की है। नागपुर से (अ) वीरसंघबी-जिन्तूर (जिला परभणी) के ३० मील दूर रामटेक अतिशयक्षेत्र है वहाँ भी वर्धासावजी समीप नेमगिरि पहाड़ी पर भौरों में तीन मन्दिर हैं जिन ने कुछ निर्माण कार्य कराया था। नागपुर में प्रतिवर्ष चैत्र में नेमिनाथ, पार्श्वनाथ तथा शान्तिनाथ की विशाल मूर्तियाँ ३.१ को पद्मावती का रथयात्रा उत्सव होता है उस का हैं । नेमिनाथ मूर्ति के पादपीठ पर इन मन्दिरों के संस्थापक प्रारम्भ वर्धासावजी ने किया था। पीर संघवी, उनके तीन पुत्र तथा इन चारों की पत्नियों (अ) लेकुरसंघवी-ये कारंजा के लताधीश सेठ की मूर्तियाँ भी अंकित हैं। ये मन्दिर कारंजा के भहारक थे। एक बार एक सौदागर साठ ऊँटों पर कस्तूरी लाद कुमुदचन्द्र के उपदेश से शक १५३४ = वि. म. १६७. कर बेचने जा रहा था। कारंजा में यह कम्तूरी कोई नहीं में निर्मित हुए थे। इस प्राशय का लेब भी वहाँ है। खरीद सकता ऐसा उसका वाक्य सुन कर लेंकुरसंघबी वीरसंघवी के कुल का इस समय कलमकर उपनाम है। क्रोधित हुए तथा वह सर कस्तूरी खरीद कर उन्होंने अपने (च) बापूसंघवी-काष्ठासंघ-नन्दीतटगच्छ के भहारक नए बन रहे घर की जुड़ाई के लिये तैयार किए गये चने श्रीभूषण के शिष्य ब्रह्मज्ञानसागर ने अपनी रचना अक्षर में मिला दी। उनके इस विशाल निवास स्थान के खंडहर बावनी में बघेरवाल संघपति बापू का उल्लेख किया है तथा अभी कारंजा में है तथा कस्तूरी की हवेली इस नाम से उन्हें लघुवय-बहुगुणधारी ऐसे विशेषण दिये हैं। इनका प्रसिद्ध है । लेगुरमेघवी का समय विक्रम की अठारहवीं समय विक्रम की सत्रहवीं सदी का मध्य है (भट्टारक सदी का अन्तिम भाग है। इन्होंने भी रामटेक क्षेत्र पर सम्प्रदाय पृ. २७६)। कुछ निर्माण कार्य कराया था। (छ) भोजसंघवी-ये बापूमंत्री के पुत्र थे। (ट) रतनसाह-कारंजा निवासी रतनसाह भट्टारक कारंजा में इनका बड़ा व्यापार चलता था। शीलविजय शांतिसेन के शिष्य थे। मं. १८२५ में रामटेक यात्रा के की तीर्थमाला में इनकी समृद्धि का विस्तृत वर्णन है। अवसर पर इन्होंने हिन्दी शान्तिनाथ विनती की रचना की इन्होंने गिरनार की यात्रा के लिये संघ निकाला था, तथा थी। सं० १८२६ में शान्तिसेन के पद पर सिद्धसेन का इस कार्य में एक लाख रुपये खर्च किए थे। इनके लिये पामो पट्टाभिषेक हुश्रा उनकी प्रारती भी रतनसाह ने लिखी कवि ने शक १६१४ वि० सं० १७५० में भरतभुजबलि- थी। 'अघहर श्री जिन बिंब मनोहर' इस पंक्रि से प्रारम्भ चरित्रमामक काव्य की रचना की थी। इनके द्वारा स्थापित होने वाली चौबीस तीर्थकरों की प्रारती विदर्भ में रत्नत्रय यन्त्र (म. १७४७) नागपुर के सेनगण मन्दिर मप्रचलित है (भट्टारक संम्प्रदाय पृ. २२-२३)। में है(भट्टारक सम्प्रदाय पृ. २८६)। उपसंहार(ज) पूजासंघवी-ये कारंजा के प्रतिष्ठित सज्जन उपयुक्त वर्णन मुख्यतः दक्षिण प्रदेश के प्रमुख वघेरथे। इनकी प्रेरणा ले काष्ठामंघ-नन्दीतटगच्छ के भट्टारक वालों के विषय में है। राजस्थान तथा मध्यप्रदेश के बघेरसुरेन्द्रकीर्ति के शिष्य धनसागर ने सं. १७५६ में 'पाव वालों के विषय में लेखक को उतनी जानकारी नहीं है। पुराण' की रचना की। यह काव्य हिन्दी छप्पयों में है इस प्रदेश के कोई विद्वान इस विषय पर प्रकाश डालें तो (म. सं. पू. २८८)। बहुत ही अच्छा होगा।
SR No.538017
Book TitleAnekant 1964 Book 17 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1964
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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