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________________ २८२ अनेकान्त संस्कृतियाँ भी लेतीं । यदि ऐसा होता तो जैनियों का प्रने- मध्यभारत में बनाने की भी क्रिश्चियन सोसायटी की कान्त या स्यादवाद् जीवन्त है, ऐसा गिना जाता, किन्तु योजना है, जो बहुत जल्द शुरू होने वाली है। संसार में नहीं, विश्व के समग्र दर्शन तथा विचारधाराभों का समन्वय बर्तमान समय में 80 करोड़ ईसाई है। " करने वाला जैनियों का अनेकान्तवाद केवल पुस्तकों या ग्रंथों की ही शोभा बढ़ाने वाला है। जीवन मे उस महान् ईसा का मुख्य शिष्य सन्त पेत्रुस के दो सौ चौसठवे उत्तराधिकारी वर्तमान पोप अर्थात् सत पिता ज्होन छट्ठा अनेकान्तवाद का कोई विशेष उपयोग नही है और ऐसा पोलुस की उम्र ६७ वर्ष की है। उन्हीं को सेवकों के होने से ही जैनियों के छोटे-मोटे पेटा-उपपेटा सम्प्रदाय भी सेवक भी कहे जाते है। जो पोप का ही शब्दार्थ है। वे आपस में नहीं मिल सकते । मिलने की बात तो दूर रही, इटली में रोम के पास में बेटिकन में रहते हैं। उनका वर्तमान परिस्थिति को देखते हुए भले प्रगट न सही, किन्तु विश्व भर में सबसे छोटा सार्वभौम स्वतन्त्र साम्राज्य है, गुप्त रूप से भीतरी कैपभाव भी उनमें विद्यमान हैं। जिसका क्षेत्रफल ६१६ माईल का है। उनका स्वतन्त्र जिसकी समय-समय पर जन-साधारण को भी प्रतीति सिक्का, पोलिस, पोस्ट विभाग, रेडियो स्टेशन आदि है। होती रहती है । जहाँ परिस्थिति यह हो, वहाँ प्रास्तिक १३हवी शताब्दी तक सारे युरोप पर पोप का प्राधिपत्य नास्तिक, ईश्वरवादी-अनीश्वरवादी प्रादि प्राचीन दृष्टि अर्थात् शासन था। रोमन कैथोलिक जनता पोप को भेदो का, तथा वर्तमान के साम्यवाद, समाजवाद, पूजी साक्षात् प्रतिनिधि मानती है। उनके पास में अपार धन वाद, सर्वोदयवाद प्रादि मानव जीवन की वर्तमान अनेक था, और वर्तमान में भी है । पोप की परम्परा ने धन का विध समस्याओं का समाधान करने वाली बातों का जीवन्त उपयोग जनता के ज्ञान, कला आदि के विकास के लिए समन्वय तो सम्भव ही कहाँ से हो? किन्तु अत्यन्त नम्रता भी किया है। भारत मे नालन्दा, तक्षशिला आदि प्राचीन से श्री संघ के सामने मैं इतना निवेदन अवश्य करूंगा कि विश्वविद्यालयों की तरह आक्सफोर्ड विश्वविद्यय, पेरिस वैसे जीवन्त अनेकान्त के बिना श्री जैन संघ की "सवी का विश्वविद्यालय आदि अनेकों विश्वविद्यालयों की पोप जीव करूँ शासन रसी" भावना केवल मनोराज्य की ही परम्परा ने स्थापना तथा वृद्धि की है। सन् १८७१ से भावना होगी। वर्तमान विश्व में वैसी काल्पनिक भाव प्रतिवर्ष १६ लाख रुपया मिलता है, किन्तु पोप के न लेने नामों का विशेष कोई मूल्य नहीं है। के कारण इटली के राज-भडार में जमा होता जाता है। श्री जैन संघ उपरोक्त दोनों सम्मेलनों में से क्या- दम इस प्रकार अब तक करोड़ों रुपया जमा हुआ है । २००० क्या प्रेरणा ले सकता है? उसका विचार तथा निर्णय वर्षों के इतिहास में पोप अर्थात सन्त पिता यूरोप में भी करने के पूर्व उन दोनों विश्व सम्मेलनों की कार्यवाही पर कदाचित ही बाहर गये हों। एशिया में तो सर्वप्रथम एक सरसरी निगाह डालें। यूरेरिस्टिक काग्रेस अर्थात् परमप्रसाद महासभा के ३८वें ३८वां विश्व ईसाई सम्मेलन, बम्बई अधिवेशन के लिए ही पाए थे, वह भी बम्बई के बड़े पादरी तथा कांग्रेस अध्यक्ष के अत्यन्त प्राग्रह के कारण भारत में सर्वप्रथम ईसाई प्रचार ६००ई० वर्ष पूर्व सेन्ट ही। वे केवल ३ दिन के लिए ही विशेष हवाई जहाज से थोमस द्वारा शुरु हुमा था। वर्तमान में १,२०,००,००० निजी राष्ट्र बेटीकन राज्य से भारत पाये थे। हवाई एक करोड़ बीस लाख करीब भारत में ईसाई है। वे जहाज को भीतर-बाहर से खूब सजाया गया था। पोप अधिकतर हिन्दू से ही ईसाई बने हैं। केरल प्रान्त प्राधा के दल में ७० सदस्य थे । पोप के केवल ३ दिन के बम्बई क्रिश्चियन है, नागालण्ड की चार लाख की आबादी में से के प्रोग्राम के लिए खास सफेद रंग की कार भी अमेरिका साठ प्रतिशत ईसाई हो गये हैं। मध्यभारत में जसपुर से फोर्ड कं० ने जहाज द्वारा भिजवाई थी, जो अमेरिका स्टेट के पास-पास में भी क्रिश्चियनों का बड़ा भारी प्रचार की ही किसी यूनिवर्सिटी ने पोप के लिए भेट की थी। चल रहा है। सम्पूर्ण एशिया में सर्वोत्तम विशाल चर्च पोप ने भी उसका केवल ३ दिन उपयोग करके भारत के
SR No.538017
Book TitleAnekant 1964 Book 17 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1964
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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