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________________ वर्ष १७ किरण, १ .........✦✦✦✦✦✦ प्रोम ग्रहम् वीर सेवा पुस्तकालय ********* า अनेकान्त परमागमस्य बोजं निषिद्धजात्यन्धसिन्धुरविधानम् । सकलनयविलसितानां विरोधमथनं नमाम्यनेकान्तम् ॥ वीर-सेवा-मन्दिर, २१, दरियागंज, देहली- ६. वीर निर्वारण सं० २४६०, वि० सं० २०२० 4251 नंत देती अप्रैल सन् १९६४ *******............... शान्तिनाथ स्तोत्रम् त्रैलोक्याधिपतित्वसूचन परं लोकेश्वरै रद्भुतं, यस्योपर्यु' परीन्दुमण्डलनिभं छत्रत्रयं राजते । अश्रान्तो द्गतकेवलोज्जवलरूचा निर्भत्सितार्क प्रभं, सोsस्मान् पातु निरञ्जनो जिनपतिः श्रीशान्तिनाथः सदा ॥१ देव: सर्वविदेष एष परमो नान्यस्त्रिलोकीपतिः, सन्त्यस्यैव समस्ततत्त्वविषया वाचः सतां संमताः । यस्य विबुधैस्ताडितो दुन्दुभिः, सोऽस्मान् पातु निरञ्जनो जिनपतिः श्रीशान्तिनाथः सदा ॥२ पद्मनंद्याचार्य अर्थ - जिस शान्तिनाथ भगवान के एक एक के ऊपर इन्द्रों के द्वारा धारण किए गए चन्द्रमण्डल के समान तीन छत्र तीनों लोकों की प्रभुता को सूचित करते हुए निरन्तर उदित रहने वाले केवलज्ञान रूप निर्मल ज्योति के द्वारा सूर्य की प्रभा को तिरस्कृत करके सुशोभित होते हैं वह पाप रूप कालिमा से रहित श्री शान्तिनाथ जिनेन्द्र हम लोगों की सदा रक्षा करें। जिसकी भेरी देवों द्वारावादित हो कर मानो यही घोषणा करती है कि तीनों लोकों का स्वामी और सर्वज्ञ यह शान्तिनाथ जिनेन्द्र ही उत्कृष्ट देव है और दूसरा नहीं है, तथा समस्त तत्वों के यथार्थ स्वरूप को प्रकट करने वाले इसी के वचन सज्जनों को अभीष्ट दूसरे किसी के भी बचन उन्हें अभीष्ट नहीं है, वह पापरूप कालिमा से रहित श्री शान्तिनाथ जिनेन्द्र हम लोगों की सदा रक्षा करें ॥ १, २ ॥
SR No.538017
Book TitleAnekant 1964 Book 17 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1964
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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