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________________ महावीर का गृह त्याग का मार्ग म्बोज कर दुखी एवं पीडित जन समूह तक उस पहुँ- नाय जिससे प्रजा भी अपने प्रिय राजकुमार का एक बार चाने का प्रयास करूंगा। मुझे रद विश्वास है कि बिना फिर से दर्शन कर सके। श्रमण-मार्ग अपनाये न नो श्रामिक सुख प्राप्त किया जा माता त्रिशला ने महाराज सिद्धार्य की बातें सुनी तो सकता है और न संपारी प्राणियों का अशान ही हटाया जा मूर्छित हो गई किन्तु महागज के निर्णय को न बदन सकता है। ऐसी स्थिति में विवाह करने एवं राज्य-भार सकी। सम्हालने का प्रश्न ही नहीं उठता है । साधु बनने का नाम सुनते ही माना त्रिशन्ना रोने लगी और पिता का दिल भा बैठ गया। प्रधान मंधी एवं जन चार बजे का समय । सभा-मण्डप खचा खच भरा प्रतिनिधि के मुंह पर भी उदापी हा गई। वे नहीं चाहते हुआ था । दृर तक दृष्टि डालने पर भी कहीं तिल धरने थे कि उनका सुकुमार जिसकी सेवा को मैकडों दासी दाम को जगह नहीं थी। म्त्री पुरुष रंग विरंगी पोषाकों में थे, माधु बन कर गांव २ में भ्रमण करता रहे। यटित थे । सभाम्थल की बायीं ओर संभ्रान्त कुल की मां की ममता उमड़ आई तथा गते हुए कहने लगी, जाना करने लगी. नारियां बैठी थीं तथा दाहिनी ओर मंभ्रान्त नागरिक । पुत्र, तुमने अभी केवल सुख ही सब दवा है । राज महलों मग्दार, उमराव, सामन्तगण, मंत्री परिषद के सदस्य में रहे हो । दुःख क्या चीज है इसका तुम्हें अनुभव नहीं अपनी २ पोशोकों में सजधज कर यथा योग्य स्थान पर है। गर्मी, सर्दी, एवं बरसात के कष्टों को कभी देखा सुशोभित थे। महाराज ने सभी संभ्रान्त नागरिकों को सभा नहीं। नग्न रहते हुए जंगलों में रहना नथा वहां प्राकृतिक भवन में उपस्थित होने के लिए आमंत्रित किया था। सबको प्रकागा एव मानवीय उपसर्गो को सहना अति दुष्कर है। प्राने की खुली छूट थी। नगर रक्षक भी काफी संख्या में मेरा तो हृदय इनका नाम सुनते हा थर २ कांपने लगता। थे। सभा-भवन में अपेक्षाकृत शान्ति थी। भवन तोरणद्वारों है। मैं म कठिन मार्ग पर अपने हृदय के टुकड़े को नहीं पताकाओं एवं बन्दनवारों से सजाया गया था। भवन के जाने दूगी। मध्य में एक बहुत बड़ा कांच का झाड था जिस पर मोममाता की करुण कथा को सुन कर महावीर माता से वनियां रखी हुई थी। सभा के बीचों बीच लाल पट्टी बिड़ी बड़े प्रेम एवं विनय से कहने लगे, मां तुम इसकी चिंता न हुई थी। मामने ही ऊंचा मंच था तथा उस पर तीन मखकरो । यद्यपि मैंने अभी कोई कष्ट नहीं देखा लेकिन में। मली मियां पड़ी हुई थी। सभी की आंखें प्रवेश द्वार पर इमम डरने वाला व्यक्ति नहीं हैं। जीवन में वही आगे बढ़ लगी थी। इतने में ही एक अंग रक्षक ने महाराज, महारानी सकता है जिस कष्टों एवं आपत्तियों की परवाह नहीं। एवं गजकुमार के आने की सूचना दी सब अपने २ प्रासन संसार में सभी प्राशी अभाव एवं अभियोगों से पीड़ित पर खडे हो गए तथा ज्योंहि उपस्थित जन समूह ने महाहै । तथा अधिकांश लोगों को सामान्य जीवन की सुविधाएं राज को करवन्द्व हो तीन बार नमस्कार किया त्योंहि महाराज सिद्धार्थ महागनी त्रिशला एवं राजकूमार महावीर की जयभी प्राप्त नहीं है। ऐसी स्थिति में मैं विवाह कर राज्य-सुग्य घोषणा से सारा प्राकाश गूंज उठा। भोगू यह कैसे संभव हो सकता है, महाराज श्रामन पर विराजमान हुए तथा महारानी एवं महाराज सिद्धार्थ ने कहा, राजकुमार यह में जानता हूँ राजकुमार भी अपने प्रामन पर बैठे। सिद्धार्थ अपने राजकि तुम्हारा जन्म जगत के दुखी प्राणियों के उद्धार के लिए काय वेष भूषा में थे तथा सदा की भांति आज भी उनके हमा है। लोक कल्याण ही तुम्हारे जीवन का ध्येय है। चेहरे पर उल्लास एवं प्रसन्नता थी। महारानी अवश्य हम लोग तुम्हें कितना ही प्रलोभन दें, समझायें एवं प्राग्रह उदास मालूम पड़ती थी। जब उन्होंने अपने चारों भोर को लेकिन तुम अपने विचारों में प्राडिग रहोगे । इसलिए अपनी प्रिय प्रजा को देखा तो महारानी की आंखों से प्रांस मैंने अब निश्चय किया है कि राज दरबार किया जाय तथा ढलक गये । महावीर अपेक्षा कृत गम्भीर थे यद्यपि उनका सभी प्रजाजनो के समक्ष तुम्हारे निश्चय को प्रगट किया मुख अपने निश्चय की सफलता के कारण प्रदीप्त था।
SR No.538017
Book TitleAnekant 1964 Book 17 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1964
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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