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________________ अजीमगंज भंडार का रजताक्षरी कल्पसूत्र भंवरलाल नाहटा हवेताम्बर जैन समाज में कल्पसूत्र का महत्व प्रत्य- एकाध चित्र को हर व्यक्ति फेम में जड़वा कर अपने कक्ष विक है। पयूषण के पाठ दिनो में इस शास्त्र को हाथी की शोभा वृद्धि कर सकता है। इस दुरभिसंधि से ग्रन्थोके प्र.द पर भारुढ करके गाजे बाजे के साथ लाकर गुरु चित्रों को निर्दयता पूर्वक कतर कर फम मे मढवा दिये महारान के पास बहुमान के साथ श्रवण करने की प्राचीन गए । क्या साघु और क्या श्रावक और क्या दलाल व प्रथा है। ऐसे शास्त्रों के लिखवाने मे जैन समाज ने प्रचुर व यूरियो के व्यापारी इस पाप कार्य से बच न सके । द्रव्य राशि व्यय की पौर स्वाक्षरी, रजताक्षरी गगा उनके हृदय में जिनाज्ञा व भव-भ्रमण का भय न रहा जमनी, स्वर्ण व विविध रंग व हांसिये के चित्रों वाले पौर अपनी इस दुष्प्रवृत्ति में भी शुभ कार्य कर रहे है, कल्पसूत्र व कालिकाचार्य कथा की प्रतियां लिखवाते रहे। मनधिकारी-प्रज्ञानियों के हाथ में न रह कर हम मर्मन काली स्याही से लिखी सचित्र प्रतिया तो सैकड़ों की संख्या मौर अधिकारियो के हाथ मे जाने से वस्तु का महत्व मे उपलब्ध हैं पर स्वर्णाक्षरी, रौप्याक्षरी की प्रतियां तो बढेगा और उत्कर्ष ही होगा। इस स्वकल्पित मान्यता प्रायः प्रच्छे अच्छे शान भडारो में मिल जाती है। भारतीय प्राचीन कला की मोर पाकर्षण बहाने से पूर्व ही । ने बहुत बहा मन कर डाला। प्रसंगवश एतदिषयक विचारों को प्रगट कर माशा की जाती है कि समाज विदेशी लोग बहुत सी कला सामग्री कौड़ी के मोल मे। खरीद कर ले गये और इनके दलालों ने छोटे छोटे गांवों तक अपना पुरातत्व सपत्ति की रक्षा के लिए विशेष उपाय मे पहुंच कर जिस किसी प्रकार से तिकड़म बाजी द्वारा o सोच कर प्रबन्ध करेगा। सा ही भण्डार के भण्डार खाली कर दिये । प्रज्ञानियो के भधि कल्पसूत्रादि शास्त्रों की विशिष्ट प्रतियों को प्राचीन काष्ठ से ही जान भंडार के संरक्षकों ने उन्हें सुरक्षित कार में रही वस्तु तभी सुरक्षित रह सकती है जबकि उनके । हृदय में उसके प्रति बहुमान गौरव एवं ज्ञान की प्रासा रखने का प्रयत्न किया था उनमें सांपकी काचली, म गरेता तना का भय हो । अन्यथा कई जगह ऐसा देखा गया है जड़ी बूटी प्रादि रख कर जीवजन्तुषों से सुरक्षित किया कि खुले पत्रों को पूर्ण समझ कर गत या मकान की गया। कई प्रतियों के नष्ट पत्रों को दक्ष नीव में दे दिये गये। कई अन्य राशि व खण्डित जिन व्यक्तियों के पास उसी रंग व कागजादि पर लिखवा कर प्रतिमानों को नदी सरोवरादि में प्रवाहित कर दिया चिपका कर जीर्णोद्धार कराया गया और जो ग्रन्थ विवेकी गया। कुछ लोगों ने स्वर्णाक्षरी शास्त्रों को सोना निकालने व्यक्तियों की नजर में न माये नष्ट भी हो गए। पाज के के लिये जला तक डाले, यहां तक सुना गया है। प्राचीन वैज्ञानिक युग मे शास्त्रों को जीर्णोद्धारित कर उन्हें चिरशास्त्रोंको यह दशा देखसुनकर हृदय कांप उठता है । मज्ञानी स्थायी किया जा सकता है। और दिल्ली के पुरातत्व द्वारा शास्त्रों की अवहेलना हुई यह तो हुई पर उसके ममंश विभागादि द्वारा मागम प्रभाकर पुण्यमूर्ति मुनिराज श्री पौर शानी कहे जाने वाले व्यक्तियों ने भी शास्त्र भण्डारों पुष्प विजय जी महाराज ने शास्त्रोद्वार का बड़ा भारी से ग्रन्थों को उड़ाने में कसर नहीं रखी । यदि कोई शास्त्र मादर्श उपस्थित किया है। इसी प्रकार प्रावश्यकता है न उड़ा सका तो उसके कुछ पत्रों को हो चुरा कर ऊचे कि जिनके पास भी जीर्ण दशा में शास्त्र हों उन्हें जीणोंदामो में कलाप्रेमी व्यक्तियों को बेच हाले । क्योंकि पूरे दारित करवा के चिरस्थायी कर देना चाहिए। शास्त्र के उतने दाम नहीं उठते जितने एकाध पत्र के। अभी मजीमगज के भण्डार की एक स्वाक्षरी और सैकड़ों पत्रों के लिए बड़ी भारी धनराशि चाहिए। एक रौप्याक्षरी प्रति कल्पसूत्र को अवलोकन में पाई।
SR No.538017
Book TitleAnekant 1964 Book 17 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1964
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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