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________________ शब्द-साम्य और उक्ति-साम्य (अण्वत परामर्शक मुनि श्री नागराज जी ) भगवान श्री महावीर की वाणी का और उनके जीवन के अतिरिक अन्यत्र कहीं नहीं देखा जाता है। जैन परम्परा वृत्तों का गाम्न रूप संकलन द्वादशांगी या गणिपिटक कहा में इसका मुख्य अर्थ “रूपी जड़ पदार्थ" है। बौद्ध परम्परा जाता है और भगवान बुद्ध से सम्बन्धित गाग्रीय मंकलन में पुदगल शब्द का अर्थ है-प्रात्मा, जीव । जैनागमों का त्रिपिटक कहा जाता है। दोनों का अध्ययन करने में भी जीव तत्व के अर्थ में पुदगल शब्द प्राया है। समय ऐसा अनुभव होने लगता है कि हम कमी एक ही गौतम स्वामी के एक प्रश्न पर भगवान् श्री महावीरने भी संत्र काल और मम्कृति में बिहार कर रहे हैं। एतद्- जीव को पोग्गल कहा है। विषयक ममता यही में प्रारम्भ हो जाती है कि शास्त्र क ग्रहंत और चन्द्र-वर्तमान में महत् शब्द जैन परम्परा मर्थ में पिटक शब्द दोनों ही परम्परामों ने अपनाया है। में और बुद्ध शब्द बौद्ध परम्परा में रूद-जमा बन गया है। वह ज्ञान मंजपा गणा तथा प्राचार्य के लिए है, द्वम वान स्थिति यह है कि जनागमों में महतू और बुन्द्र अपने लिए उसे गणिपिटक कहा गया है । गणी शब्द का प्रयोग प्राराध्य पुरुषों के लिए अपनाये गये है और बौद्ध धागमों महावीर, बुन्छ प्रादि तात्कालिक धर्म-प्रबको के अर्थ मे में भी अपने श्लाध्यपुरुषों के लिए । जनागमों की प्रसिद्ध भी बौद्ध परम्परा में मिलता है। हो सकता है, संघ गाथानायक भगवान महावीर से उदभूत वाण। के अर्थ में ही जेय बुद्धा प्रतिक्कन्ता, जेय वुद्धा प्रणागया । जैन परम्परा ने गणिपिटक शमन को अपनाया हो। दोनों बौद्ध परम्परा का मुविदित गाथा है : प्रकार के पिटकों में अनेकानेक शब्दों का प्रयोग समान ये बुद्धा प्रतीता च ये च बुद्धा अनायता । रूप से मिलता है। यह शब्द-ममता इस बात को परभुप्पचा च ये बुद्धा पई बंदामि ते सदा ।। पसाध रण रूप से पुष्ट कर देती है कि दोनो परम्पराओं जैनागमों में और भा अनेक स्थानों पर बुद्ध, मंबुद्ध, का ज्ञान-प्रवाह कभी-न-कभी एक है। नोन में अवश्य पयधुन्द प्रादि शब्दों का प्रयोग मिलता है। सम्बन्धित रहा है। उदाहरण मात्र के लिए इस प्रकार का नित्धगगणं मयंमंबुद्धाणं ।६ कुछ शब्द-साम्य प्रस्तुत किया जाता है - तिविहा बुद्धा-णाण बुद्धा, दंगणवुद्धा, चरिस वुद्धा । निग्गंठ-इस शब्द का अर्थ है-निनन्य तात्पर्य है ममणेणं । भगवया महावीरेर्ण पाहगरेण अन्तरंग और बहिरंग परिग्रह से रहित । त्रिपिटकों में जैन तिथयरेणं मयं मंबुद्धाणं । बुद्ध हिं एवं पवैदितं ।। सम्प्रदाय को "निर्ग्रन्थ सम्प्रदाय", भगवान श्री महारीर को संखाई धम्मं य वियागरंति युद्धाहते अंतकरा भवन्ति । "निन्ध ज्ञातपुत्र' स्थान-स्थान पर कहा गया है। जैन २-मझिम निकाय-११४ भ्रमणों को भी निर्गन्ध कहा गया है। उक्त अर्थो में ३-भगवती सूत्र शतक-२०-१-२ निग्रन्थ शब्द का प्रयोग गणिपिटके में भी ज्यों-का-न्यो दम्वा जाता है। भगवान श्री महावीर क प्रवचन को भी निर्ग्रन्थ ४-भगवती सूत्र शतक-E-३-१० ५-सूत्र कृतांग सूत्र 1-1-३६ । प्रवचन कहा गया। ६-राय पसेणयं । पुग्गल-पुदगल शब्द का प्रयोग जैन और बौद्ध परम्परा ७ स्थानांग सूत्र ठा. ३ ५-संयुक निकाय, दहर सुत्त ३.1.1 पृष्ट ६८ दीघनिकाय, ८-समवायांग सूत्र २१२ सामन्जफल सुस, १.२. सुतमिपात, मभिय मुत्त, पृष्ट -प्राचारोग सूत्र ४१३४० १०० से ११.धादि। १०-सूत्रकृतांग सूत्र १-90.15
SR No.538017
Book TitleAnekant 1964 Book 17 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1964
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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