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________________ अनेकान्त एवं उद्भट विद्वान गत १०.७.. वर्षों में नहीं हुआ। उनकी लिखी हई स्वोपश टीकायें भी है। नलकरछपर वे अपनी धुन के पक्के थे, एक बार जिस कार्य को अपने उनकी साहित्यिक रचनात्रों का केन्द्र था। यहीं से ये सारे हाथ में ले लिया उसे पूरा करके ही छोडने थे। प्रागम जगत को अपना साहित्यिक सन्देश सुनाते थे। वे प्रतिभा. साहित्य के अधिकारी विद्वान् होने के साथ ये सुधार वादी शाली विद्वान थे उनके सान्निध्य में बड़े २ विद्वान एवं निष्पक्ष विचारक थे पंथ व्यामोह उन्हें छु तक नहीं गया था। साधु भी अध्ययन कर अपने को गौरवान्वित समझते थे । मुनिनाम धारी लोगों में उन्हें कोई श्रद्धान नहीं था बल्कि व जहाँ कहीं भी जाते अपनी रचनाओं का प्रचार किया शिथिलाचार देखकर उन्हें दुःख होता था। तथा वे उन्हें करते थे और इसी का फल है कि प्रायः सभी ज्ञान भंडारों जिन शासन को मलिन करने वाले कहते थे । में उनकी रचनाएँ उपलब्ध हैं। ___ 'अष्टांगहृदय' जैसे महत्वपूर्ण' ग्रंथ की टीका लिख प्राशाधर के अनेक मित्र एवं प्रशंसक थे। उनकी कर उन्होंने अपने प्रायुर्वेद-ज्ञान की दुदुभी चारों ओर प्रेरणा से वे ग्रंथ रचना किया करते थे। पंडित 'जजाक' ने बजा दी एवं 'काव्यालंकार' तथा 'अमरकोष' जैसे ग्रंथों की उन्हें 'त्रिषष्ठिम्मृति' शास्य रचने को प्रेरित किया तथा टीका लिखकर तत्कालीन भारतीय विद्वानों में अपना महीचन्द पाहु ने उनसे 'सागर धमम्मृत की टीका' लिखने सर्वोच्च स्थान बनाया। वे दार्शनिक थे और अपने दार्शनिक का अनुरोध किया। अनगार धर्मामृत की टीका हरदेव शान को प्रकाशित करने के लिये 'प्रमेय रत्नाकर' नामक शास्त्री की कृपा से हो सकी थी। पंडित जी लोक प्रिय ग्रंथ की रचना की। उनका 'भरतेश्वराभ्युदय' एवं 'राजी- विद्वान थे । वे अनेक उपाधियों से विमूषत थे। उनकी मती विप्रलंभ' काव्य शास्त्र की श्रेष्ठ रचनाएं हैं। रचनायें उस समय इतनी अधिक लोकप्रिय बन गई थी पाशाधर पागम साहित्य की तरह विधि विधान के भी कि जनता उन्हें 'प्राचार्य कल्प' कहने लगी थी। उनकी पूरे जानकार थे। 'जिनयज्ञकल्प' अपर नामा 'प्रतिष्ठा- काम्य शास्त्र की विद्वत्ता से मुग्ध होकर उन्हें 'कलिसारोद्धार' उनकी प्रतिष्ठा संबन्धी उस्कृष्ट रचना है। इस कालिदास' के नाम से पुकारने लगे थे। दर्शनशास्त्र के प्रकार यह कहना चाहिये कि प्राशाधर ने ऐसा कोई विषय पूर्ण अधिकारी होने से उन्हें 'नय विश्वचक्षु' की उपाधि नहीं छोड़ा जिस पर उनकी लेखनी न चली हो। बे से सम्मानित किया गया था। वे अथाह ज्ञान के धारक थे। सिद्धहस्त विद्वान थे। और इसीलिये वे तत्कालीन युग में ज्ञान की कोई सीमा उनके पास नहीं थी अपरमित ज्ञान पंडित से बढ़ कर महा पंडित कहलाए। प्राशाधर द्वारा के भण्डार थे और इसी लिये उन्हें प्रज्ञा-पुज भी कहा रचित ग्रंथों की संख्या २० होगी लेकिन दुःख है कि उन जाता था। उनकी विद्वत्ता का लोहा जैनेतर विद्वानों ने भी में से कुछ प्रमुख ग्रंथ अप्राप्य है। माना है । मालवाधिराज अर्जुन वर्मा के गुरु बालसरस्वती माशाधर श्रद्धालु भक्त थे। भूपाल चतुर्विशांति पर महाकवि मदन उनके निकट अध्ययन करते एवं विध्यवर्मा उन्होंने संस्कृत में टीका लिखी है । उसमें विद्वत्ता के साथ २ के मंत्री कवीश विल्हण सदा उनकी प्रशंसा किया करते थे। उनका भकि भाव से सराबोर हृदय प्रदर्शित होता है। उन इस प्रकार हम देखते हैं कि महा पं० प्राशाधर अपने का जिनसहस्त्रनाम एक दृष्टि से और भी उल्लेखनीय समय के ही नहीं किंतु आज भी साहित्य क्षितिज के जगग्रंथ है जिसमें श्रीवीतराग प्रभु का एक हजार नामों से मगाते नक्षत्र हैं और प्राशा है आगे भी सैकड़ों वर्षों तक स्तवन किया गया है । इस पर तथा अन्य ग्रंथों पर स्वयं इनका नाम गौरव के साथ लिया जायगा । "अपने मानव जीवन का मुख्य प्रांकना प्रत्येक नर- भोगों में गमा देना बुद्धिमत्ता नहीं है । किन्तु प्रारम-साधना के मारी का कर्तव्य है। जीवन के प्रमूख्य क्षणों को सांसारिक साथ देश धर्म और जाति के हित में लगादेना कहीं अच्छा है"
SR No.538017
Book TitleAnekant 1964 Book 17 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1964
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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