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________________ आकस्मिक वियोग बाबु जयभगवान जी एडवोकेट पानीपत, एक उच्चकोटि उनका अभिनन्दन भी किया था। उनके तुलनात्मक निष्कर्ष के तुलनात्मक अध्येता थे. सरल स्वभावी मिष्टभाषी और बहे महत्व के होते थे। वे अत्यन्त उदार और भावुक हृदय उदार विद्वान् थे। उनका क्षेत्र सार्वजनिक था, वे इतिहास थे । और दूसरे की करुण कहानी सुनकर द्रवित हो जाते और साहित्य के मर्मज्ञ थे । यद्यपि वकालत का कार्य करते थे। और उसकी यथाशक्ति सहायता भी करने थे। वे सभी हुए उन्हें शोध-खोज के कार्यों के लिये बहुत कम अवकाश का हित चाहते थे और सभी से मिलते जुलते रहते थे। मिलपाता था, परन्तु साहित्य के प्रति उनकी प्रबल अन्तर्भावना प्राज वे संसार में नहीं है। उनका भौतिक शरीर पंच उन्हें बगबर प्रेरित करती रहती थी। प्रतएव समय निकाल भूतों में मिल गया है। परन्तु उनका यशः काय सदा विद्यमान कर वे अध्ययन तथा मनन करते हुए अनेक तथ्यों का उद- रहेगा। वीरसेवामंदिर और दूसरी संस्थाएं जो उनकी भावन करसक थे। उनकी शोध-खोज और तुलनात्मक सेवा का क्षेत्र बनी हुई थी वे उनकी स्मृति की रेखाएं बनाये साहित्यक अध्ययन की विशा भगवान महावीर से पूर्ववर्ती रखगी, उनके विचार सुधारचादी और दथे पर अपने थी, उनके अनेक महत्वपूर्ण लेख अनेकान्त में हिन्दी में विचारों से समाज में कभी कोई मंघर्ष पैदा करना नहीं प्रकाशित हुए हैं। और 'वाइम आफ अहिंसा' में अंग्रेजी में चाहते थे। वे जो कृष भी कहते थे उसके पुष्ट पोषक व कला और पुरातत्व का अन्वेषण तथा अध्ययन करते प्रमाणों का संकलन और युक्रिवल रखते थे। उनके बहुत रहने थे। और जब उन्हें किसी वस्तु का कुछ संकेत मिलता से नोटम पड़े हुए हैं। और कई अधूरे लेख भी। उनका था तो वे अन्य लेखकों की बातों को जानने के लिए प्रमाण झुकाव दिन पर दिन अध्यात्म की भोर हो रहा था। वे इंदते थे और उस पर अपने अनुभव के साथ निर्णय कर मृत्यु से पहले जब दिल्ली प्राये थे तब वे कहते थे कि स्वीकृत करते थे । वे किसी की कही हुई किसी वस्तु पर से ऋषभदेव की संस्कृति प्रध्याम से श्रोत-प्रोत थी। भारतीय अपना अभिमत नहीं बदलते थे किन्तु उसका यथार्थ ग्रन्थों में उनकी संस्कृति के जो बीम पाये जाते हैं। उनका विश्लेषण करते हुए तथा उस पर विशेष प्रकाश डाल कर सम्बन्ध प्रादि ब्रह्माप्रादिनाथ से था। क्योंकि वह संसार मागम, युक्रि और अनुभव के आधार पर मान्य करते थे। में सबसे पहले योगी थे। वेद और उपनिषदादि ग्रन्थों पर से उन्होंने भगवान ऋषभ बाबू जी के जीवन की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि देव की संस्कृति का अच्छा अध्ययन किया था। वे रोंमें हुए ब्यक्रि को भी हमा देने थे । उमकी भद्रता विनयवीर-सेवा-मन्दिर और परिषद् के काया सता अनुराग शीलता को देखकर आश्चर्य होता है। रखते ही थे किन्तु अनेक सामाजिक कार्यों में भी अपनी खेद है कि बाबू जयभगवान जी शाम हमारे मध्य नहीं शनि लगाते थे । वीर-सेवा-मन्दिर के वे प्रारम्भ से ही भ से ही रहे। परन्तु उनके गुणों की स्मृति उनकी वार बार बाद का प्रधानमंत्री रहे हैं। दिलाती है। हमारी हार्दिक भावना है कि बाबू जी परलोक देहली के नये मंदिर जी में भी आपने दशलक्षणपर्व में सुख-शान्ति का अनुभव करें । और कुटुम्बी जनों को में तत्वार्यत्र पर सच्चा प्रवचन किया था और समाज ने धैर्यावलम्बन की क्षमता मिले। -अनेकान्त परिवार
SR No.538017
Book TitleAnekant 1964 Book 17 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1964
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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