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THE FREE INDOLOGICAL
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-The TFIC Team.
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भारतीय ज्ञानपीठ के प्रकाशन
प्राकृत
१ महाबन्ध ( जैनसिद्धान्त ग्रन्थ ) १२ ) (प्रेस में)
२ करलक्खण (सामुद्रिक शास्त्र)
संस्कृत
१ न्यायविनिश्चय विवरण - २ भाग
२
मदनपराजय
३ कन्नड प्रान्तीय ताडपत्रीय ग्रन्थ-सूची
४ तत्त्वार्थं श्रुतसागरी
५ नाममाला सभाष्य
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ज्ञानपीठ मूर्तिदेवी जैन ग्रंथमाला – हिंदी ग्रन्थाङ्क — १
आधुनिक जैन कवि
श्रीमती रमा जन सम्पादिका
भारतीय ज्ञानपीठ, काशी
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ग्रंथमाला सम्पादक और नियामक श्री लक्ष्मीचन्द्र जैन, एम० ए०
प्रकाशक
श्री अयोध्याप्रसाद गोयलीय, मंत्री, भारतीय ज्ञानपीठ दुर्गाकुण्ड रोड, वनारस
द्वितीय संस्करण
एक हज़ार
ज्येष्ठ,
वीरनिर्वाण 'सम्वत् २४७३ मई १९४७
मूल्य तीन रुपये वारह आने
मुद्रक जे० के० शर्मा इलाहावाद लॉ जर्नल प्रेस
इलाहावाद
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कानपुर दि० जैन परिषद्-पंडालके काव्यमय वातावरणमें काव्यमय भावनाओं एवं असीम अनुरागसे ओतप्रोत 'इन्होंने अपने सुन्दर कवियोंकी कलित कल्पनाओंके संग्रह और सम्पादनके उत्तरदायित्वका भार मुझे ही सौंपा। फलतः अपने प्रयत्नोंकी पुस्तकपिटारीको 'इनकी' सेवामें प्रस्तुत करते हुए संकोचइसलिए नहीं है कि इसमें सब 'इनका' ही है-इनके ही हैं सुन्दर कवि, इनकी ही हैं प्रिय कविताएँ और है 'इनकी ही अपनी
-रमा
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प्रकाशकीय
1
स्वर्गीय आचार्य पं० महावीरप्रसादजी द्विवेदीने एक बार लिखा था - "जैन धर्मावलम्बियोंमें सैकड़ों सावृ-महात्मायों और हज़ारों विद्वानोंने ग्रंथ रचना की है । ये ग्रंथ केवल जैनवर्मसे ही सम्बन्ध नहीं रखते, इनमें तत्व- चिन्तन, काव्य, नाटक, छन्द, अलंकार, कथा-कहानी, इतिहास से सम्बन्ध रखनेवाले ग्रन्य हैं जिनके उद्धारसे जैनेतरजनोंकी भी ज्ञान-वृद्धि श्रीर ननोरंजन हो सकता है । भारतवर्ष में जैनवर्म ही एक ऐसा वर्म है, जिसके अनुयायी साधुनों और श्राचार्योंमेंसे अनेक जनोंने धर्म - उपदेशके साथ ही साथ अपना समन्त जीवन ग्रन्य-रचना और ग्रन्थसंग्रह में खर्च कर दिया है । इनमें कितने ही विद्वान वरसातके चार महीने बहुधा केवल ग्रन्थ लिखनेमें ही बिताते रहे है । यह उनकी इस प्रवृत्तिका ही फल है जो बीकानेर, जैसलमेर, नागोर, पाटन, दक्षिण आदि स्थानोंमें हस्तलिखित पुस्तकोंके गाड़ियों वस्ते ग्राज भी सुरक्षित पाये जाते हैं ।"
ऐसे ही अनुपलब्ध अप्रकाशित ग्रन्थोंके अनुसन्धान, सम्पादन और प्रकाशनके लिए सन् १६४४ में भारतीय ज्ञानपीटकी स्थापना की गई थी । जैनाचायों और जैनविद्वानों द्वारा प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश साहित्यका भंडार अनेक लोकोपयोगी रचनात्रोंसे श्रोतप्रोत हैं | हिन्दी - गुजराती, कन्नड़ श्रादिमें भी महत्त्वपूर्ण साहित्य निर्माण हुआ है । किन्तु जनसाधारणके श्रागे वह नही ग्रा सका है, यही कारण है कि अनेक ऐतिहासिक, साहित्यिक और श्रीलोचक साधनाभावके कारण जैनवर्मके सम्बन्धमें खते हुए 'उपेक्षा रखते हैं । और उल्लेख करते भी हैं, तो ऐसी मोटी और भद्दी भल करते हैं कि जनसाधारणमें बड़ी भ्रामक धारणाएँ फैलती रहती हैं ।
agand
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किसी भी देश और जातिकी वास्तविक स्थितिका दिग्दर्शन उसके साहित्यसे हो सकता है। जैनोंका प्राचीन साहित्य प्रकाशमें नहीं आया,
और नवीन समयोपयोगी निर्माण नही हो रहा है। जिस तीव्र गतिते वर्तमान भारतमें प्राचीन पोर अर्वाचीन-साहित्यका निर्माण हो रहा है, उसमें जैनोंका सहयोग बहुत कम है । जैन पूर्वजोंने अपनी अमूल्य रचनाओंसे भारतीय ज्ञानका भण्डार भरा है, उनके ऋणसे उऋण होनेका केवल एक ही उपाय है कि हम उनकी कृतियोंको प्रकाशमें लायें, और लोकोपयोगी नवीन साहित्यका निर्माण करें। ताकि साहित्यिक-संसारकी उन्नतिमें हम भरपूर हाय वटा सकें।
प्राचीन संस्कृत, प्राकृत, पाली जैन और बौद्धग्रंथ एक दर्जन की संख्यामें प्रेसमें है--जो शीघ्र ही प्रकाशित हो रहे हैं। और अन्य भारतीय उत्तमोत्तम-ग्रन्थोंका सम्पादन हो रहा है । प्रस्तुत पुस्तक ज्ञानपीठकी जैन-ग्रन्थ-मालाका प्रथम पुष्प है। और ज्ञानपीठको अध्यक्षा श्रीमती रमारानीजीने बड़े परिश्रमसे इसका सम्पादन किया है।
यद्यपि हिन्दी कविता आज जितनी विकसित और उन्नत है उसके आगे प्रस्तुत पुस्तककी कविताएँ कुछ विशेष महत्त्व नहीं पायेंगी, फिर भी यह एक प्रयत्न है। इससे जैनसमाजकी वर्तमान गति-विधिका परिचय मिलेगा, और भविष्यमें उत्तमोत्तम साहित्य-
निर्माण करनेका लेखकों और प्रकाशकोंको उत्साह भी। प्रस्तुत पुस्तकके कवियोंमें पुरातत्त्वविचक्षण पं० जुगलकिशोरजी मुख्तार, पं० नाथूरामजी प्रेमी और सत्यभक्त पं० दरवारीलालजी आदि कुछ ऐसे गौरव योग्य कवि हैं, जो कभीके इस क्षेत्रसे हटकर पुरातन इतिहासकी शोध-खोजमें लगे हुए हैं; अथवा लोकोपयोगी साहित्य-निर्माण कर रहे हैं। काश वे इस क्षेत्रमें ही सीमित रहे होते तो आज अवश्य जैनों द्वारा प्रस्तुत किया हुआ कविता-साहित्य भी गौरवशाली होता। मुख्तार साहवकी लिखी 'मेरी भावना' ही एक ऐसी अमर रचना है, जिसे आज लाखों नर-नारी पढ़कर आत्म-सन्तोष
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करते हैं। नवीन कवियोंमें 'श्री हुकमचन्दजी वुखारिया' ऐसे उदीयमान कवि हैं, जिनसे हिन्दी साहित्यको एक न एक रोज़ क़ीमती रचनाएँ प्राप्त होंगी। ___ ज्ञानपीठकी स्थापनाके ३-४ महीने बाद ही लखनऊमें जैनपरिषद्का अधिवेशन था, उसके सभापति श्रीमान् साहू शान्तिप्रसादजीकी अभिलाषा थी कि 'आधुनिक जैन कवि' उस समय तक अवश्य प्रकाशित कर दिया जाय । इस अल्प समयमें प्रस्तुत पुस्तकका सम्पादन और प्रकाशन हुआ, और पहिला संस्करण एक सप्ताहमें समाप्त हो गया, मांग बढ़ती रही, उलाहने पाते रहे, और सब कुछ साधन होते हुए भी दूसरा संस्करण शीघ्र प्रकाशित नहीं हो सका । संगोषित प्रेस कापी तैयार पड़ी रही। परन्तु प्रयत्न करनेपर भी इससे पहले प्रकाशित नहीं हो सकी ! कहीं-कहीं कवि-परिचय भी भूल से छूट गया है जिस का हमें खेद है।
सम्पादिका श्रीमती रमारानीजीका यह पहला प्रयास है, यदि वे इस ओर अग्रसर रहीं, तो उनसे हमको भविष्यमें काफी आशाएँ हैं।
डालमियानगर ) १८ अक्तूबर १९४६)
अयोध्याप्रसाद गोयलीय
-मंत्री
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प्रवेश
कवियोंका साम्प्रदायिक आधारपर वर्गीकरण करना गायद जातिविशेपके लिए गौरवकी बात हो, कविके लिए नहीं। जो कवि है, चाहे जहांका भी हो, उसकी तो जाति और समाज एक ही है 'मानव-समाज'। कविकी मुस्कानमें मानवताका वसन्त खिलता है और उसके आँसुओंमें विश्वका पतझड़ झरझराता है । यह सारा मानव-समाज हृदयके नाते एक ही है । अपनी माताके लिए जो श्रद्धा, पुत्रके लिए जो ममता, विछुट्टी हुई प्रेयसीके लिए जो विकलता और अपमानके लिए जो क्षोभ एक भारतीय किसानके हृदयमे उमड़ता है, वही लन्दनके सम्राट्के हृदयमें और वही उत्तरी ध्रुवके अन्तिम छोरपर बसनेवाले 'एस्कीमो के हृदयमें भी ! इस श्रद्धा, ममता, विकलता और क्षोभ आदिकी अनुभूतियोंको कवि शब्दोंस, चित्रकार तूलिकासे, गायक स्वरोंसे, मिल्पी छैनीसे और कलावित् अपने अङ्ग-प्रत्यङ्गकी क्रिया-प्रक्रिया द्वारा साकार रूप देता है।
इस प्रकार साहित्य, सङ्गीत और कलाके उद्गम तथा उद्देश्यकी एकताके वीचमें मैं जो कवियोंको आधुनिकताकी सीमामें घेरकर 'जैनत्व'के वर्गमें विभक्त कर रही हूँ उसका उद्देश्य क्या है ? केवल यही कि इस पुस्तकको लिखते समय सारे साहित्यकी जिम्मेदारी अपने सिरपर लादनेसे वच जाऊँ और अपने परिश्रमका क्षेत्र छोटा कर लूं। दूसरे, जव कवि मानव-समाजका प्रतिनिधि है, तो उसे ढूंढकर मानव-समाजके सामने लानेका काम भी तो किसीको करना ही चाहिए। मैं अपनी जाति और समाजके सम्पर्कके द्वारा जिन कवियोंको जान सकी हूँ और जिन तक पहुंचना दुर्लभ है, मानवताके उन प्रतिनिधियोंको विशाल साहित्य-संसारके सामने ला रही हूँ। वे अपनी वात अव स्वयं ही आपसे कह देंगे।
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इस पुस्तकके लिए सामग्री एकत्रित करनेमें यद्यपि कई महीने लग गये, फिर भी अनेक ऐसे कवि रह गये हैं जिनके साथ पत्र द्वारा सुम्पर्क स्थापित नहीं हो सका ग्रथवा उचित सामग्री प्राप्त नहीं हुई । सङ्कलनका काम अपनी 'रुचि' के ग्रावारपर किया गया है, इसलिए उससे सवकिसीको सन्तोप होगा ऐसी कल्पना करनेके लिए कोई गुंजाइश नहीं है | हिन्दीके श्रावुनिक जैन कवियोंकी कविताओंका एक भी ऐसा संग्रह और सङ्कलन मुझे नहीं प्राप्त हो सका जिससे वर्गीकरणके लिए कुछ दिशा-निर्देश मिलता । शायद, ऐसी पुस्तक कोई प्रकाशित ही नहीं हुई । मैंने इस पुस्तकको मुख्यतः निम्न शीर्षकों में विभक्त किया है
१. युग प्रवर्तक
२. युगानुगामी
३. प्रगति - प्रेरक
४. प्रगति - प्रवाह ५. ऊर्मियाँ
६. गीति - हिलोर और
७. सीकर ।
पहले तीन शीर्षक कविप्रवान हैं, और शेष चारमें काव्य-धारा प्रवान है । फिर भी, कवियोंकी प्रधानता, विपयोंका सङ्कलन, सामग्रीकी उपलव्धिअनुपलब्धि और वर्तमान परिस्थितिमें पुस्तकके कलेवरको कम करनेकी आवश्यकता इत्यादि सव वातोंका खयाल रखनेके कारण वीच - वीचमें पुस्तककी योजना में छोटे-मोटे परिवर्तन करने पड़े हैं ।
'युग प्रवर्तक' कवियोंके सम्वन्धमें इतना ही कहना है कि नये जागरण और सुधारके युगमें जिस विचार स्रोतको इन महान् आत्मानोंने समाजकी मरुभूमिकी ोर उन्मुख किया, उसने समाज - मनको नया जीवन और उसके साहित्यको नया स्वर दिया । वे वर्तमान युगके महारथी हैं, और
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मुझे कहनेकी छूट दी जाय तो मैं तो इन्हें 'प्रकाश स्तम्भ' कहने में भी न सकुचाऊँगी ।
'युगानुगामी' कवियों में हमारी समाजके अनेक मान्य विद्वान्, सम्पादक और विचारक है, जो हमारी प्राचीन संस्कृतिके संरक्षणमें लगे हुए हैं; और वे निस्सन्देह युगारम्भकी नई प्रेरणाको साहित्य और समाज-सुधारके क्षेत्र परीक्षणके द्वारा श्रागे ले जानेवाले हैं। इस समुदायके कवियोंकी कविताओं में यह वैशिष्ट्य है कि वे प्रधानतः धर्ममूलक, दार्शनिक या सुधारवादी हैं ।
कविताकी दृष्टिसे तीसरा परिच्छेद, 'प्रगति प्रवर्तक', विशेष महत्त्वका है | इसमें समाजके वह चुने हुए नवयुवक कवि हैं जो 'युग प्रवर्तक' से आगे बढ़ गये हैं और जिन्होंने हिन्दी कविताकी प्रचलित शैलियोंको अपनाकर कविताको भाव, भाषां और विपयकी दृष्टिसे प्रगतिकी श्रेणीमें ला दिया है । इनमेंसे अनेक कवियोंको हमारे साहित्यमें प्रगतिके महारथियोंके रूपमें स्मरण किया जायेगा, ऐसा मेरा विश्वास है ।
अव जो प्रगतिकी वारा वह रही है, उस प्रवाह में नये-नये कवि अपनी-अपनी प्रतिभा, रुचि और क्षमताके अनुसार अवगाहन कर रहे हैं । इस 'प्रगति - प्रवाह' में हमारे समाजकी सुकुमारमना कवियित्रियोंकी सरस भाव- ऊर्मियाँ तरंगित हो रही हैं; तरुण कवियोंकी 'गीति - हिलोर' नृत्य कर रही है; और अनेक छोटे-बड़े कवियोंके प्रयत्न-सीकर उल्लास से उछल रहे हैं ।
हमारे इन कवि कवियित्रियोंका श्राजके प्रगतिशील हिन्दी साहित्यमें - क्या स्थान है; यह प्रश्न करने और उसका उत्तर खोजनेका समय भी नहीं आया । यदि यह पुस्तक हमारे साहित्यिकोंकी विचारधाराको इस प्रश्नकी ओर उन्मुख कर सकी, और यदि हमारे कवियोंमें इस प्रश्नके समाधान करनेकी इच्छा जाग्रत हो सकी, तो में अपने इस प्रयत्नकी सफलतापर उचित गर्व अनुभव करूँगी ।
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मैं चाहती थी, इस पुस्तकको अपने कवि-कलाकारोंके चित्रोंसे सजाती । और हर प्रकारसे इसे सुन्दरतम बनाती; पर मुझे बहुतसे कवियोंके चित्र प्राप्त न हो सके और जिनके चित्र आये भी उनमेसे अधिकांश ऐसे थे जिनके सुन्दरतर ब्लॉक नहीं बन सकते थे। भविष्यमें सम्भव हुआ तो इन कमियोंको दूर करनेका अवश्य प्रयत्न करूंगी। __ मुझे खेद है कि मैं अनेक कृपालु कवि-कवियित्रियोंकी रचनाएँ जो इस संग्रहके लिए प्राप्त हुई थीं, सम्मिलित नहीं कर पाई। मै उनसे क्षमाप्रार्थी हूँ। मेरा विश्वास है कि अगले संस्करण तक उनकी नई रचनाएँ और भी अधिक सुन्दर होंगी और तव तक मुझमें भी सम्पादनकी क्षमता बढ़ सकेगी। ___ इस पुस्तकमें जिन साहित्यिकोंकी रचनाएँ जा रही हैं, उनकी कृपा और सहयोगके लिए मैं हृदयसे आभारी हूँ। भाई कल्याणकुमार 'शशि'ने कई कवियोंके पास स्वयं पत्र लिखकर उनसे कविताएँ भिजवाई, इसके लिए मैं आभारी हूँ। पंडित अयोध्याप्रसादजी गोयलीयने उचित सुझाव दिये हैं और 'इलाहावाद लॉ जर्नल प्रेस'के सुयोग्य व्यवस्थापक श्री कृष्णप्रसाद दरने इसके मुद्रणमें हर तरहसे सहयोग दिया है। अतः वे दोनों धन्यवादके पात्र हैं। ___ अव, रह गये श्री लक्ष्मीचन्द्र जैन ! उनके विपयमें जो कहना चाहती हूँ, उसके उपयुक्त शब्द नहीं सूझ रहे हैं। वह साहित्यिक और कवि है; अपनी भावुक कल्पना से समझ लेंगे कि मैने क्या कहा और क्या नहीं कहा । वस।
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डालमिया नगर } जून १९४४ ।
रमा जैन
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निर्देश
युग-प्रवर्तक
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१ पंडित जुगलकिशोर मुख्तार 'युगवीर
मेरी भावना ..
अज सम्बोधन .. २ पंडित नाथूराम 'प्रेमों ..
सद्धर्म-सन्देश
पिताकी परलोक यात्रापर ३ श्री भगवन्त गणपति गोयलीय
सिद्धवर कूट
नीच और अमृत .. ४ पंडित मूलचन्द्र 'वत्सल
अमरत्व .. मेरा संसार ..
प्यार .. ५ श्री गुणभद्र, अगास
सीताकी अग्निपरीक्षा .. भिखारीका स्वप्न
युगानुगामी ६ पंडित चैनसुखदास 'न्यायतीर्य', कविरत्न
सत्ताका अहंकार .. .. जीवन-पट .. .. ..
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अन्तिम वर .. ७ पंडित दरवारीलाल 'सत्यभवत'
उलहना .. .. क़त्रके फूल .., ..
झरना .. ८ पंडित नाथूराम डोंगरीय
मानव-मन .. .. ६ श्री सूर्यभानु डाँगी 'भास्कर
विनय ..
संसार .. १० श्री ददुलाल
मनकी बातें
पथिक ११ पंडित शोभाचन्द भारिल्ल 'न्यायतीर्थ'
अन्यत्व .. .. आज और कल ..
अभिलापा .. .. १२ श्री रामस्वरूप 'भारतीय'
समाधान ..
धर्म-तत्त्व .. .. १३ श्री अयोध्याप्रसाद गोयलीय
जवानोंका जोश १४ पंडित अजितप्रसाद एम० ए०, एल-एल बी० ..
धर्मका मर्म यह वहार
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१५ श्री कामताप्रसाद जैन .
वीर प्रोत्साहन
जीवनकी झांकी .. १६ पंडित परमेष्ठीदास 'न्यायतीर्थ'
महावीर-सन्देश
प्रगति-प्रेरक
१७ श्री कल्याणकुमार 'शशि'
रण-चण्डी .. .. विश्रुत-जीवन ..
गीत .. १८ श्री भगवत्स्वरूप 'भगवत्' ।
आत्म-प्रश्न .. .. मुख शान्ति चाहता है मानव मुझे न कविता लिखना आता
एक प्रश्न .. .. .. १६ श्री लक्ष्मीचन्द्र जैन, एम० ए० ..
कोई क्या जाने कोई क्या समझे ? ' 'कुहू कुहू' फिर कोयल वोली ! .. मैं पतझरकी सूखी डाली ..
सजनि, आँसू लोगी या हास? .. २० श्री शान्तिस्वरूप 'कुसुम'
कलिकाके प्रति कुछ भी न समझ पाता हूँ मैं, जगकी या मेरी ग़लती है !
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२१ श्री हुकुमचन्द बुखारिया 'तन्मय' ..
अाग लिखना जानता हूँ
मै एकाकी पथभ्रष्ट हुना २२ श्री कपूरचन्द 'इन्दु' ..
कवि-विमर्श .. .. २३ श्री ईश्वरचन्द्र बी० ए०, एल-एल०
अञ्जलि .. .. २४ श्री लक्ष्मणप्रसाद 'प्रशान्त'
फूल .. .. .. कविसे ... ..
अब कैसे निज गीत सुनाऊँ २५ श्री राजेन्द्रकुमार 'कुमरेश'
जाग्रति-गीत परिवर्तनका दास वहिनसे ..
पन्थी .. २६ श्री अमृतलाल 'चंचल'
अमर पिपासा २७ श्री खूवचन्द्र 'पुष्कल' ..
भग्न-मन्दिर कवि कैसे कविता करते हैं ?
जीवन दीपक २८ श्री पन्नालाल 'वसन्त' ..
जागो, जागो हे युगप्रधान !
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.. १११ ।
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त्रिपुरीकी झाँकी
२६ श्री वीरेन्द्रकुमार, एम० ए० वीर-वन्दना
३० श्री रविचन्द्र 'शशि'
भारत माँसे
३१ श्री 'रत्नेन्दु', फरिहा
प्रकृति गीत
मनन
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३२ श्री अक्षयकुमार गंगवाल
रे मन !
उatar
...
हलचल
३३ श्री चम्पालाल सिंघई 'पुरंदर'
दीप - निर्वाण .
चंदेरी
२
३४ श्री मुनि श्रमृतचन्द्र 'सुधा'
अन्तर
प्रगति-प्रवाह
बढ़े जा
जीवन
३५ श्री घासीराम 'चन्द्र'
फूलसे
३६ पंडित राजकुमार, 'साहित्याचार्य'
श्राह्वान
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.. १३८ .. १६ .. १४०
.. १४१
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रट
- ३७ श्री ताराचन्द 'मकरन्द ..
जीवन-पड़ियां योर ..
पुनिलन .. ३८ श्री सुनेरचन्द्र कौशल
जीवन पहली
मात्न बेदन .. ३६ श्री बालचन्द्र, 'विशारद
चित्रकार (अगस्त .. गांव
आजूने ४० श्री हरीन्द्रभूरण
वदंत ४१ श्री सुमेरचन्द्र नास्त्री 'मर
भारता-स्तुति सुवर्ष उजालन्न नहाकवि तुलसी परिचय ..
कम्भिावॉक्ति ४२ श्री अनृतलाल फगोन्द्र
कान्त्रि का निक
पना .. .. ४३ श्री गुलाबचन्न, वाना ..
चन्द्र के प्रति ..
.. १४% .. १४८
.. १५४
.. १५५
.. १५६ .. १५... १५६ .. १५
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सफल जीवन
४४ डॉ० शंकरलाल, इन्दोर
आजादी
मानवके प्रति
४५ वा० श्रीचन्द, एम० ए०
गीत
ग्रात्म वेदना
दोहावली
४६ श्री सुरेन्द्रसागर जैन, साहित्यभूषण
परिवर्तन
..
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..
४८ श्री मगनलाल 'कमल'
जोहरकी राख
४७ श्री ज्ञानचन्द्र जैन 'श्रालोक'
किसान
४६ श्री लज्जावती, विशारद
ग्राकुल अन्तर
सम्वोवन !
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ऊर्मियाँ
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५० श्री कमलादेवी जैन, 'राष्ट्रभाषा कोविद'
हम हैं हरी भरी फुलवारी
महक उठा फूलोंसे उपवन
विरहिणी
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५१ श्री प्रेमलता कमी
गीत
मूक याचना ५२ श्री कमलादेवी जैन
रोटी
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निरागाके स्वरने ५३ श्री सुन्दरदेवी, कटनी __यह दुखी संसार
जीवनका ज्वार ५४ श्री मणिप्रभा देवी, ..
सोनेका संसार .. ५५ श्री कुन्यकुमारी, वी० ए० (ऑनर्स), वी० टी०
नानसमें कौन छिपा जाता
भ्रमरले .. .. .. ५६ श्री रूपवती देवी 'किरण'
यह संसार वदल जावेगा
उस पार .. .. ५७ श्री चन्द्रप्रभा देवी, इन्दौर
रण मेरी! .. . ५८ श्री छनोदेवी, लहरपुर .
जागरण .. ५६ श्री कुसुमकुमारी, सरसावा
नाविको .. ६० श्री मैनावती जैन .. चरणोंमें! .. .
..
५९
"
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.. १६६ .. १६९
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६१ श्री सरोजिनी देवी जैन ..
गीत .. .. ६२ श्री पुष्पलता देवी कौशल
भारत नारी
..
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गीति-हिलोर
६३ श्री गेंदालाल सिंघई 'पुष्प', 'साहित्यभूपर्ण'
कभी कनी में गा लेता हूँ वलिदान- .. .. ..
जीवन संगीत ६४ श्री फूलचन्द्र 'मधुर', सागर ..
टूटे हुए तारेकी कहानी-तारेकी जुवानी गीत .. .. .. मने वैभव त्याग दिया .. ..
आज विवश है मेरा मन भी ६५ श्री रतन जैन .. ..
मुझने कहती मेरी छाया मेरे अन्तर तमके पटपर पूछ रहे क्या मेरा परिचय
वतलायो तो हम भी जानें ६६ श्री फूलचन्द्र 'पुष्पेन्दु ..
स्मृति-अश्रु .. .. अभिलापा .. .. ..
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देव-द्वारपर ..
व्यथा .. .. .. ६७ श्री गुलजारीलाल 'कपिल'
विश्वका अवसाद हूँ मैं
रुदन या गान .. ६८ श्री हीरालाल जैन 'हीरक'
प्राण ! क्यों नियमाण ऐसे ! देखा है ..
सीकर अर्चना .. .. .. ६६ श्री अनूपचन्द, जयपुर .. ..
मेरा उर आलोकित कर दो .. ७० श्री साहित्यरत्न पं० चांदमल 'शशि', जयपुर
प्रण, दे प्राण निभायेंगे ७१ श्री लक्ष्मीचन्द्र जैन 'सरोज'
निशा भर दीपक जिये जा ७२ श्री सागरमल 'भोला'
ज़ग-दर्शन ७३ श्री बाबूलाल, सागर
पथिकके प्रति ७४ श्री कपूरचन्द नरपत्येला 'कंज'
मेरी बान .. .. ..
. .. ..
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.. २३२
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७५ श्री केशरीमल आचार्य, लश्कर
तेजो निवान गांवी महान् ! ७६ श्री कौशलाधीश जैन 'कौशलेश'
भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ..
ऋतुराज .. .. ७७ श्री मुनि विद्याविजय ..
दीप-माला .. .. ७८ पंडित चन्द्रशेखर शास्त्री .. • भक्ति भावना ७६ श्री सूरजभानु 'प्रेम
किनारा हो गया
विचार लो? ८० श्री बाबूलाल जैन 'अनुज'
वेदना .. .. .. ८१ श्री साहित्यरत्न पं० हीरालाल 'कौशल'
कैसे दीपावली मनाऊँ .. .. ८२ श्री सिंघई मोहनचन्द जैन 'कमोरी ..
परोपदेश कुशल .. ८३ श्री दुलीचन्द, मुंगावली ...
पैसा ! पैसा !! .. २४ श्री नरेन्द्रकुमार जैन 'नरेन्द्र'
आया द्वार तुम्हारे भगवन्, आया द्वार तुम्हारे ८५ श्री देशदीपक जैन 'दीपक'..
झनकार .. .. .. ..
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... २४४
.. २४५
२४५
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४७
.. २४७
.. २४८
.. २४८
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८६ श्री रवीन्द्रकुमार जैन
मजदूर
८७ पंडित दयाचन्द्र जैन शास्त्री
कहाँ है वह वसन्त का साज ?
८८ पंडित कमलकुमार जैन शास्त्री 'कुमुद', खुरई
साम्राज्यवाद
८ श्री गोविन्ददास, काठिया
वसन्त ग्रागनन
६० श्री युगलकिशोर 'युगल'
मानव
९१ श्री अभयकुमार 'कुमार' जागृति - गीत
..
१२ श्री निहालचन्द्र 'अभय'
श्री गानेवाले गाये जा
..
पृष्ठ
૨૪૨
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युग-प्रवर्तक
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पंडित जुगलकिशोर मुख्तार, 'युगवीर'
श्री पंडित जुगलकिशोरजी मुख्तारने गत वर्ष जब अपने महान् आदर्शमूलक जीवनके छयासठवें हेमन्तमें प्रवेश किया तो सम्पूर्ण जैन समाज और साहित्यिक जगत्ने एक सम्मान समारोहका आयोजन करके उनकी सेवाओंके आगे हार्दिक श्रद्धाञ्जलि अर्पण की। इस साहित्य-तपस्वीके ६६ वर्षकी जीवन-साधनाने समाजकी वर्तमान पीढ़ी और भारतवर्षकी आगे आनेवाली सन्ततियोंके पथ-प्रदर्शनके लिए ऐसे प्रकाश-स्तम्भका प्रतिष्ठापन कर दिया है जो अक्षय और अटल होकर रहेगा या रहना चाहिए।
आपकी साहित्यिक सेवाओं, शोध और खोजको अनवरत कार्य-धाराओं तथा पुरातत्त्व और इतिहासके विशाल ज्ञानको देश-विदेशके विद्वानोंने प्रामाणिकताको फसोटीपर कसकर उसे खरा सोना बताया है। किन्तु ये विद्वानों और मनीषियोंकी दुनियाँको वाते हैं। समाज या जन-समूहके जीवनसे उनका क्या संबंध है, यह समझनेके लिए जनताको अपने ज्ञानका घरातल ऊंचा उठाना होगा। सौभाग्यसे पंडित जुगलकिशोरजीके जीवन-कार्यको यह केवल एक दिशा है । ___समाजके सार्वजनिक जीवनकी दृष्टिसे जिस बातका सबसे अधिक महत्त्व है वह तो यही है कि पंडित जुगलकिशोरजी एक प्रमुख युग-प्रवर्तक हैं-धार्मिक क्षेत्रमें, सामाजिक क्षेत्रमें और साहित्यिक क्षेत्रमें। उन्होंने धार्मिक श्रद्धाको पाखंड-पिशाचके पंजेसे छुड़ाया है, समाजके सर्वाङ्गमें फैले हुए और प्राणों तक परिव्याप्त रूढ़ि-विषको निर्भीक पालोचनाके नश्तरसे निष्क्रिय कर देनेकी सफल चेष्टा की है, और साहित्य-फुलवाड़ीमेंजिसकी कि जमीन तक फटने लगी थी और जहाँके लोग सुगन्ध-दुर्गन्धकी पहचान ही भूले जा रहे थे-भावोंके सुरभित सुमन खिलाये हैं।
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आपके कवि-जीवनको एक झांकी सम्मान-समिति द्वारा प्रकाशित पत्रिकाने इस प्रकार कराई है:
"अपने यौवनके प्रारंभमें उन्होंने कदिके रूपमें अपने साहित्यिक कार्यका प्रारंभ किया था और मेरी भावना' नामक एक छोटी-सी पुस्तिका लिखी थी। योरोपको राजनैतिक पार्टियोंके चुनाव मैनिफेस्टों ( manifesto ) की तरह यह उनको जीवन-साधनाका 'मैनिफेस्टों (घोषणापत्र) था। इसकी लाखों प्रतियाँ अभी तक छप चुकी हैं। भारतवर्षको अंग्रेजी, संस्कृत, उर्दू, गुजराती, मराठी, कनडी श्रादि अनेक भाषाओं में इसका अनुवाद हो चुका है। अनेक प्रान्तीय म्युनिसिपल और डिस्ट्रिक्ट बोर्डको संस्थानोंने इसे राष्ट्रीय गानादिके रूपमें स्वीकार किया है और वहाँ नित्य प्रति इसकी प्रार्थना होती है। हिन्दीमें इस पुस्तकका प्रकाशन वितरण और विक्रीका शायद अपना ही रिकार्ड है। ___अनेक संस्थाओंके सार्वजनिक उत्सवोंका प्रारंभ इसी प्रार्थनासे होता है। न जाने कितने अशान्त हृदयोंको इतने शान्ति प्रदान की है और कितनोंको सन्मार्गपर लगाया है। उनकी कुछ कविताएँ 'वीर-पुष्पाञ्जलि के नामसे २३ वर्ष पहले प्रकाशित हुई थी। उसके बाद भी 'महावीर-सन्देश' जैसी कितनी ही सुन्दर भावपूर्ण कविताएँ लिखी तथा प्रकट की गई हैं।"
संसारके साहित्यके लिए और मानव-जगत्के लिए 'मेरी भावना एक जैन-कविकी इस युगकी बहुत बड़ी देन है। और 'आधुनिक जैन-कविका प्रारम्भ इसी कविता-इसी राष्ट्रीय प्रार्थना-से हो रहा है ।
काव्य-जगत् और कार्य-जगत् दोनोंमें पं० जुगलकिशोरजी मुख्तार सच्चे 'युगवीर सिद्ध हुए हैं।
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सेरी
जिसने राग-द्वेप-कामादिक जीते, सब जग जानीलि सव जीवोंको मोक्षमार्गका
वुद्ध, वीर, जिन, हरि, हर, या उसको स्वाधीन भक्ति भावसे प्रेरित हो चित्त उसीमें लीन
उपदेश दिया IFT
कहो
यह
रहो | १|
"
विषयोंकी श्राशा नहि जिनके, साम्य-भाव-धन रखते है, निज-परके हित-साधनमें जो निश-दिन तत्पर रहते हैं ;
स्वार्थ - त्यागकी कठिन तपस्या विना खेद जो करते हैं, ऐसे ज्ञानी साधु जगतके दुख- समूहको हरते हैं |२|
1
रहे सदा सत्संग उन्हींका, ध्यान उन्हींका नित्य रहे, उन ही जैसी चर्यामें यह चित्त सदा अनुरक्त रहे ;
नहीं सताऊँ किसी जीवको
झूठ कभी नहिं कहा करूँ, परधन - वनितापर न लुभाऊँ सन्तोपामृत पिया
करूँ |३|
अहंकारका भाव न रक्खूँ, नहीं किसीपर क्रोध करूँ, देख दूसरोंकी बढ़तीको कभी न ईर्षा भाव धरूँ ;
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रहे भावना ऐसी. मेरी सरल सत्य व्यवहार करूँ, बने जहाँ तक इस जीवनमें
औरोंका उपकार करूं 1४1 मैत्री-भाव जगतमें मेरा सब जीवोंसे नित्य रहे , दीन-दुखी जीवोंपर मेरे उरसे करुणा - स्रोत वहे ;
दुर्जन क्रूर कुमार्गरतोंपर क्षोभ नहीं मुझको आवे , साम्यभाव रक्तूं मैं उनपर
ऐसी परिणति हो जावे ।। गुणी जनोंको देख हृदयमें मेरे प्रेम उमड़ आवे , वने जहाँ तक उनकी सेवा करके यह मन सुख पावे ;
होऊँ नहीं कृतघ्न कभी मैं , , द्रोह न मेरे उर आवे , गुण - ग्रहणका भाव रहे नित दृष्टि न दोषोंपर जावे ।।
कोई बुरा कहे या अच्छा, लक्ष्मी प्राके या जावे , लाखों वर्षों तक जीऊँ या मृत्यु आज ही आ जावे।
अथवा कोई कैसा ही भय या लालच देने आवे , तो भी न्याय-मार्गसे मेरा कभी न पद डिगने पावे ७१
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होकर सुखमें मग्न न फूलें, दुखमें कभी न घत्ररावें, पर्वत नदी श्मशान भयानक अटवीसे नहि भय खावें ;
रहे डोल अकम्प निरन्तर यह मन दृढ़तर वन जावे, इप्ट - वियोग अनिष्ट - योगमें सहनशीलता दिखलावे ||
सुखी रहें सव जीव जगत्के, कोई कभी न घवरावे, वैर भाव अभिमान छोड़, जग नित्य नये मंगल गावे ;
घर-घर चर्चा रहे धर्मकी दुष्कृत दुष्कर हो जावे, ज्ञान - चरित उन्नत कर अपना मनुज - जन्मफल सव पावें ||
इति-भीति व्यापे नहिं जगमें वृष्टि समयपर हुआ करे, धर्मनिष्ठ होकर राजा भी न्याय प्रजाका किया करे ;
रोग मरी दुर्भिक्ष न फैले प्रजा शान्तिसे जिया करे, परम अहिंसा - धर्म जगतमें फैल सर्व हित किया करे |१०|
फैले प्रेम परस्पर जगमें, मोह दूरपर रहा करे, अप्रिय कटुक-कठोर शब्द नहिं कोई मुखसे कहा करे
3
वनकर सव 'युग-वीर' हृदयसे
देशोन्नतिर रहा वस्तु-स्वरूप विचार खुशीसे सव दुख-संकट सहा करें | ११ |
करें,
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अज सम्बोधन
(वध्यभूमिकी ओर ले जायजानेवाले बकरेसे)
हे अज, क्यों विषण्ण-मुख हो तुम, किस चिन्ताने घेरा है ? पैर न उठता देख तुम्हारा, खिन्न चित्त यह मेरा है;
देखो, पिछली टाँग पकड़कर तुमको वधिक उठाता है; और ज़ोरसे चलनेको फिर धक्का देता जाता है ।।
कर देता है उलटा तुमको, दो पैरोंसे खड़ा कभी , दांत पीसकर ऐंठ रहा है, कान तुम्हारे कभी-कभी ;
कभी तुम्हारे क्षीण-कुक्षिमें मुक्के खूब जमाता है, अण्ड' कोषको खींच नीच यह फिर-फिर तुम्हें चलाता है ।२।
सहकर भी यह घोर यातना तुम नहिं कदम बढ़ाते हो, कभी दुवकते, पीछे हटते, और ठहरते जाते हो;
मानो सम्मुख खड़ा हुआ है सिंह तुम्हारे बलधारी ,
आर्तनादसे पूर्ण तुम्हारी 'मैं...मैं..' है इस दम सारी ।।
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,"
शायद तुमने समझ लिया है, अव हम मारे जायेंगे इस दुर्बल श्री दीन दशामें भी नहि रहने पायेंगे :
छाया जिससे शोक हृदयमे इस जगसे उठ जानेका, इसीलिए है यत्न तुम्हारा यह सव प्राण बचानेका |४|
पर ऐसे क्या बच सकते हो, सोचो तो, है ध्यान कहाँ ? तुम हो निवल, मवल यह घातक, निष्ठुर, करुणा-हीन महा :
स्वार्थ साधुता फैल रही है न्याय तुम्हारे लिए नही, रक्षक भक्षक हुए, कहो फिर कौन सुने फ़रियाद कहीं |५|
'
इससे बेहतर खुशी-खुशी तुम बध्य-भूमिको जा करके वधिक दुरीके नीचे रख दो निज सिर स्वयं झुका करके ;
ग्राह भरो उस दम यह कहकर " हो कोई अवतार नया, महावीर के सदृश जगतमें फैलावे
सर्वत्र
दया ! " | ६|
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पंडित नाथूराम, 'प्रेमी'
सम्भव है कुछ लोग पं० नाथूरामजीको न जानते हों, पर प्रेमीजीको सारा हिन्दी-संसार जानता है । 'प्रेमी' उपनाम इस बातका द्योतक है कि प्रारम्भमें आप कविके रूपमें ही साहित्यकी रंगभूमिमें उतरे थे। आज कवि 'प्रेमी के जीवन-दीपकी स्निग्ध आभाको उन पंडित नाथूरामजीकी प्रखर प्रतिभाके सूर्यने मन्द कर दिया है जो देशके प्रसिद्ध लेखक हैं, सम्पादक हैं, इतिहासज्ञ हैं, समालोचक हैं, विचारक हैं, और हैं हिन्दीको सबसे सुष्ठु प्रकाशन-संस्था 'हिन्दी-ग्रन्थ-रत्नाकर कार्यालय' के सम्पन्न संचालक तथा जैन-साहित्यको प्रमुख प्रकाशन संस्था 'जैन-ग्रन्थ-रत्नाकर कार्यालय के संस्थापक । स्वयं 'प्रेमी' जी ही उस कविको 'अतीतका गीत' मानने लगे हैं। वह अपने एक पत्रमें लिखते हैं :___"मैं कवि तो नहीं हूँ। लगभग ४०-४२ वर्ष पहले कवि बननेकी चेष्टा की थी, और तब बहुत वर्षों तक कवि कहलाया भी, परन्तु कवि बनते नहीं हैं, वे स्वाभाविक होते हैं। प्रयत्न करके कवि नहीं बना जाता, पद्य लेखक वना जाता है । सो मैं पद्य-निर्माता बनकर ही रह गया और पीछे धीरे धीरे पद्य लिखना भी छोड़ बैठा।
"अपनी रचनाओंको मैंने संग्रह करके नहीं रखा । संग्रह-योग्य वे थीं भी नहीं। ८-१० वर्ष पहले सुहृद्वर पं० जुगलकिशोरजी मुख्तारने 'मेरी भावना' साइजमें 'स्तुति-प्रार्थना' नामकी पुस्तिका छपाई थी। उसमें मेरी ४-६ रचनाएं हैं। पर मेरे पास उसकी भी कोई कापी नहीं है।" ___ 'प्रेमीजीकी महत्ताने उन्हें नम्र बनाया है। वह अपनी कविताके विषयमें कुछ भी कहें, इसमें सन्देह नहीं कि ४० वर्ष पूर्व उनकी कविताओंने समाजमें नये युगका आह्वान किया, कवियोंको नई दिशा दिखाई, कविताको
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नई शैली दी और कल्पनाको नये पंख प्रदान किये । उन्होंने साहित्यका भी निर्माण किया है और साहित्यिकोंका भी !
उनकी दो-एक कविताएँ -- एक 'सद्धर्म-सन्देश' और दूसरी 'मेरे पिताकी परलोक-यात्रापर' का अंश यहाँ दी जाती हैं । अन्तकी रचनाके विषयमें 'प्रेमी' जीने लिखा है :--
...
"यह मैंने सन् १६०६ में अपने पिताको मृत्युके समय लिखी थी । उतनी अच्छी तो नहीं है, परन्तु मैंने रोते-रोते लिखी थी, इसलिए उसमें मेरी अन्तर्वेदना बहुत-कुछ व्यक्त हुई है ।"
X
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जो भावुक कवि हृदय अपने पिताको मृत्युपर श्रप्रतिहत वेगसे फूट पड़ा था और जिसके सुस्रोंके निर्भरमें कविता प्रवाहित हुई थी वह श्राज जीवनकी संध्या में अपने जवान एकलौते बेटेको खोकर क्या अनुभव कर रहा है --- इसको सोचते ही कल्पना काँप उठती है, बुद्धि कुंठित हो जाती है ।
साहित्य - जगत् की समवेदनाके धांसू, 'प्रेमी' जीके दुखको कुछ अंशोंमें बँटा सकें - यही कामना है ।
११
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सद्धर्म-सन्देश
मन्दाकिनी व्याकी जिसने यहां बहाई ,
हिंसा, कोरताकी कीचड़ भी वो बढ़ाई , समता-मुनित्रताका ऐसा अमृत पिलाया ,
पादि रोग भागे, मदका पता न पाया ।।
पादि राग
उस ही महान् प्रभुके तुम हो सभी उपासक ,
उन वीर वीर-जिनके सद्धर्मके मुवारक , अतएव तुम भी वैसे बननेका ध्यान रक्सो,
आदर्श भी उमीदा, आन्टॉक आगे रक्सो ।२
संकीर्णता हटायो, मनको बड़ा बनायो,
निज कार्यक्षेत्रकी अब नीमाको कुछ बड़ानो , सब हीको अपना समझो, नको सुन्नी बना दो,
औरोंक हेतु अपने प्रिय प्राण भी लगा दो।३
ऊँचा, ज्वार, पावन, सुन्न-गान्तिपूर्ण, प्यारा
यह वर्म-वृन सबका, निजका नहीं तुम्हारा ; रोको न तुम किसीको, छायामें बैठने दो,
कुल-जाति कोई भी हो, सन्ताप मेटने दो ।४
जो बाहते हो अपना कल्याण, मित्र करना ,
जगदेक-वन्य जिनका पूजन पवित्र करना; दिल बोल करके करने दो चाहे कोई भी हो,
फलते हैं भाव सबके, कुल-जाति कोई नी हो ।५
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सन्तुष्टि शान्ति सच्ची होती है ऐसी जिससे
ऐहिक दुवा पिपासा रहती है फिर न जिसमे , वह है प्रसाद प्रभुका, पुस्तक स्वरूप, उसको
सुख चाहते सभी हैं, चखने दो चाहे जिसको ।६ यूरुप अमेरिकादिक सारे ही देशवाल
अधिकारि इसके सव हैं, मानव सफ़ेद-काले; अतएव कर सकें वे उपभोग जिस तरहसे ,
यह वाँट दीजिये उन सब हीको इस तरहसे ।७
यह धर्मरत्न, धनिको ! भगवानकी अमानत ,
हो सावधान सुन लो, करना नहीं खयानत ; दे दो प्रसन्न मनसे यह वक्त आ गया है,
इस ओर सव जगत्का अब ध्यान लग रहा है ।
कर्तव्यका समय है, निश्चिन्त हो न बैठो,
थोड़ी वड़ाइयोंमें मदमत्त हो न ऐंठो ; 'सद्धर्मका संदेशा प्रत्येक नारी 'नरमें
सर्वस्व भी लगा कर फैला दो विश्व-भरमें ।
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पिताको परलोकयात्रापर
X
X
X
7
इस प्रकार जब तक में रोया तब तक मिल करके सव लोग अथ सजाकर चले सुविधिवत्, देना पड़ा मुझे भी योग ; पहुँचे वहाँ जहां अगणित जन जले खाकमें सोते हैं, पुद्गल - पिण्डोके रूपान्तर जहाँ निरन्तर होते हैं । १
"
चिता वना उस प्रेत-भूमिमें 'प्रेत' पिताका पवराया किया चरम संस्कार पलकमें प्रजलित हुई अनल माया ; घाँय धायकर जीभ काढ़ तव धूम-ध्वजने धधक धधक, मिला दिया फिर जड़में जड़को कर अंगोंको पृथक्-पृथक् ॥२
दी प्रदक्षिणा मैंने तव उस जलती हुई चिताको घेर, हृदय थाम, कर अश्रु संवरण, किया निवेदन प्रभुसे, टेर ; "शान्ति- प्रदायक, शान्तिनाथ जिन, शोक शान्त सवका करके, जनक-जीवको शान्त रूप निज देना गरण कृपा करके" |३
इस चरित्रको देख, चित्त सबके ही हुए विरक्त विशेष, सदय हुए पाषाण हृदय भी, दुष्कर्मसि डरे शेष ; रहें निरन्तर यदि ग्रन्तरमें ऐसे ही परिणाम कहीं, तो समझो संसार पार होनेमें कुछ भी वार नहीं ॥४
1
जीवन - लीलाकी समाप्ति यह पढ़के पाठक समझेंगे जल बुद्बुद सम जीवन जगमें इसके लिए न उलझेंगे ; स्व-स्वरूपका सदा चिन्तवन करके परको परके पोषक मोहक निजके भोगोंसे मुंह
१४
छोड़ेंगे, मोड़ेंगे 1५
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श्री भगवन्त गणपति गोयलीय
आपका वास्तविक नाम श्री भगवानदास है, आपके पिताका नाम श्री गणपतिलाल था। कविताका कल्पवृक्ष आपके कुटुम्दमें सदा ही फूला फला है। आपके पितामह श्री भूरेलालजी मोदी आशुकवि थे।
भगवन्तजी बहुपाठी, विचारशील और प्रतिभावान व्यक्ति हैं। हिन्दी-हिन्दुस्तानीके अतिरिक्त प्रापको बंगला, गुजराती और मराठीके साहित्यका भी अच्छा ज्ञान है। • आपकी गद्य-पद्यमय प्राथमिक रचनाएं प्रायः २५-३० वर्ष पहले 'विद्यार्थी' और 'भारतजीवन' नामक पत्रोंमें प्रकाशित हुई थीं। आपकी कविताओंको उस समय भी बड़ी रुचिसे पढ़ा जाता था। अनेक कवियोंको
आपकी रचनामोंतेस्फूति मिली और पापके विचारोंसे समाजमें जाग्रति हुई। __ पाप 'जातिप्रबोधक', 'धर्म-दिवाकर' और 'महाकोशल-कांग्रेस-बुलैटिन' के वर्षों तक सम्पादक रहे हैं। आपके लेख, कविताएँ और कहानियाँ भारतके प्रसिद्ध-प्रसिद्ध पत्रोंमें छपती रही हैं। 'जाति-प्रबोधक में लिखी हुई श्रापकी कहानियोंको हिन्दुस्तान-भरमें देशी पत्रोंने उद्धृत किया और सुधारक-संस्थाओंने अनुवादित कर लाखोंको संख्यामें बँटवाया। आपकी कहानियोंका संग्रह हिन्दीमें भी छपा था।
भगवन्तजी कर्मठ देश-सेवक है। आप रायपुर सेन्ट्रल-जेलकी काली कोठरियोंमें महीनों रहे और वहाँके "उच्च पदाधिकारियोंके प्रादेशपर आपको भयंकर मार मारी गई जिसकी आवाज नागपुर कौन्सिलसे टकराई।" ___ आपकी कवितानोंमें सुकुमार भावना और कोमल अनुभूतिके दर्शन होते हैं। हृदयात भावको आप चुने हुए सरस शब्दोंमें व्यक्त करके पाठकको हृत्तन्त्रीको झनझना देते हैं।
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सिद्धवरकूट सिद्धवरकी ही असोन पुनीनता
पातकीको खींच ले आई इधर; ने नहीं आया, न मेरा दोष है,
हे अचल, हे गैल, हे सारङ्गबर ! फिर भलाक्यों मौन है वारण किया ,
जानते हो क्या कि हूँ मैं पातकी; हाय, तुम ही सोचनं जब यों लगे .
नो कमी कनिमें रही किस बातकी ? नानका कुछ दूसरा ही हेतु है .
गिरि, न तुम यो सोचने होगे, अरे ; याद तो क्या पूर्व दिन है आ रहे,
गर्व-मिश्रित, नोख्य यो पागा भरेजव कि मुनिगण ठौर और विराजके
या खड़े हो, योग थे करते रहे; और फिर उपदेश दे चिर मुख-भरे,
विश्वके विकराल दुख हरते रहे। तो उन्हीके विरहमें या ध्यानमें
इस तरह एकान्तमें एकात्र हो ; ध्यान क्या तुम कर रहे भानन्दसे?
वन्य गिरिवर, सिद्धवर, तुम धन्य हो ! या कि उनकी स्वार्थपरतापर तुम्हें ,
हे निराश्रित-त्यक्त गिरि,कुछ खेदहं ? • तो विचारो, नित्य होता वृनका
विहग-दलसे उपामें विच्छेद है।
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१६
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पर विटप तो नित्य हँसता खेलता
और 'हर-हर' गीत गाता सर्वदा ; चन्द्रिकाके साथ करता मोद है,
श्री' न होता मग्न दुखमें एकदा । और तो फिर सोचते हो क्या भला ,
पूर्व वैभव ? आज भी वह कम नहीं। इस तुम्हारी धूलिका कण एक ही
विश्वकी सम्पत्तिसे मौलिक कही। सत्य है वह पुण्यकाल न अव रहा ,
वृक्ष भी तुमपर न उतने हैं भले , और फिर वे फल फलाते है नही ,
अऋतुमें क्यों फूलने फलने चले ? वात ऋपियोंकी किनारे ही रही,
आज उतने विहग क्या वसते यहाँ ? इन्द्रका पाना तुम्हें अव स्वप्न है,
पतित पापी भी अरे आते कहाँ ! रो दिया खगकी चहकके व्याजसे
शान्त हो हे सिद्धवर, ढाढ़स धरो; नर्मदा भी है तुम्हारे दुःखसे
दुःखिनी, कुछ ध्यान उसका भी करो; नर्मदा तो आज भी रोती हुई
सिद्धवरके पूर्व वैभवकी कथा ; कह रही है, वह रही वन मन्थरा,
सान्त्वना देती हुई–'यह दुख वृथा!'।
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''
!
नर्मदे, तू कौन है, कह तो तनिक,
काम तेरे हैं अलोकिकता भरे ; परिक्रमा देती उवर 'ऊँकार' की,
इबर इनके चरणमें मस्तक घरे । क्या यही दृष्टान्त है दिखला रही
एक-सी हो उभय धारा तू यहां ; जैन, वैष्णव आदि सव ही एक हैं,
एक उद्गम, एक मुख सवका वहाँ । सिद्धवर, भाओ यही व भावना,
वीर प्रभु-सा शीघ्र ही अवतार हो ; दानवः दुर्भाव मारे नष्ट हों,
1
मुक्त हों हम, देशका उद्धार हो ।
नीच और अछूत
नालीके मैले पानीसे में बोला हहराय,
"होले वह रे नीच, कहीं तू मुझपर उचट न जाय" । "भला महाशय" कह पानीने भरी एक मुस्कान,
वहता चला गया गाता-सा एक मनोहर गान । एक दिवस मैं गया नहाने किसी नदी तीर,
ज्यों ही जल प्रज्जलिमें लेकर मलने लगा शरीर । त्यों ही जल बोला, "मैं ही हूँ उस नालीका नीर",
लज्जित हुआ, काठ मारा-सा मेरा सकल शरीर । तुन तोड़ी 'मुँह में डाली' वह वोली मुसुकाय"ओह महाशय, बड़ी हुई में नालीका जल पाय ।
१८
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फिर क्यों मुझ अछूत को मुंह में देते हो महराज",
सुनकर उसके वोल हुई हा, मुझको भारी लाज ।, खानेको वैठा, भोजनमें ज्यों ही डाला हाथ,
त्योंही भोजन बोल उठा चट विकट हँसीके साथ"नालीका जल हम सवने था किया एक दिन पान,
___अतःनीच हम सभी हुए फिर क्यों खाते श्रीमान् ?" एक दिवस नभमें अधोंकी देखी खूब जमात,
जिससे फड़क उठा हर्षित हो मेरा सारा गात । में यों गाने लगा कि "प्रायो, अहो, सुहृद धनवृन्द,
वरसो, शस्य वढायो, जिससे हो हमको श्रानन्द ।" वे बोले, "हे वन्यु, सभी हम है अछूत श्री नीच, .
क्योंकि पनालीके जलकण भी हैं हम सबके बीच । कही अछूतोंमें ही जाकर बरसेंगे जी खोल ।
उनके शस्य बढ़ेंगे, होगा उनको हर्प अतोल ।" में वोला, "मैं भूला था, तव नहीं मुझे था ज्ञान,
नीच ऊँच भाई-भाई हैं भारतकी सन्तान । होगा दोनों विना न दोनोंका कुछ भी निस्तार,
___ अव न करूंगा उनसे कोई कभी बुरा व्यवहार ।" वे बोले, "यह सुमति प्रापकी करे हिन्दका त्राण,
उनके हिन्दू रहनेमें है भारतका कल्याण । उनका अव न निरादर करना, बनना भ्रात उदार,
भेद भाव मत रखना उनसे, करना मनसे प्यार ।"
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पंडित मूलचन्द्र 'वत्सल
विद्यारत्न पं० मूलचन्द्रजी 'वत्सल', साहित्यशास्त्री, समाजके पुराने सरस कवि हैं। पच्चीस वर्ष पूर्व प्राप कविताके क्षेत्रमें प्रविष्ट हुए थे। उस समय खड़ी बोलीकी कविताओंका जैन कविता-क्षेत्रमें अभाव-सा था। आपके द्वारा प्रवाहित काव्यधाराने एक नवीन दिशाका प्रदर्शन किया। जाति-सुधार और सामाजिक क्रान्तिके लिए आपकी कविताएँ वरदान सिद्ध हुई। काव्य-क्षेत्रमें आपने जिस निर्भीकताका परिचय दिया वह स्तुत्य है। आप जैन पौराणिक कहानियों और नई शैलीके गद्य लेखोंके प्रमुख प्रचारकों और मार्ग-दर्शकोंमेंसे हैं।
आपकी प्रतिभा बहुमुखी होनेके अतिरिक्त सदा-जाग्रत है। हिन्दीकी काव्य-धारा परिस्थितियों और प्रभावोंके आधीन जो दिशा पकड़ती गई, श्राप सावधानीसे स्वयं उसका अनुगमन ही नहीं करते गये किन्तु समाजके कवियोंका नेतृत्व भी करते रहे हैं।
अमरत्व
मैं अग्निकणोंसे खेलूंगा। वह लाँघ-लांघ पर्वतमाला, रे, बढ़ी आ रही है ज्वाला , मैं उसको पीछे ठेलूंगा, मैं अग्नि कणोंसे खेलूंगा। '
मैं तो लहरोंसे खेलूंगा। रे वह प्रमत्त सागर कैसा, लहराता प्रलयंकर जैसा, मैं उसे करोंपर ले लूंगा, मैं तो लहरोंसे खेलूंगा।
मैं मृत्यु-किरणसे खेलूंगा। ' मैं अमर, अरे, कव मरता हूँ, अमरत्व लिये ही फिरता हूँ, मैं यम-दण्डोंको झेलूंगा, मैं मृत्यु-किरणसे खेलूंगा।
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२०
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मेरा संसार
दुख भरा संसार मेरा । कर रहा है वेदनाके
साथ आहोंपर बसेरा। छिप रहा कुचले हृदयका, करुण क्रन्दन-नाद इसमें , मूक-प्राणोंका महा सन्ताप है आबाद इसमें ,
अश्रु-पूरित लोचनोंमें है समाया प्यार मेरा।
दुख भरा संसार मेरा। करुण-क्रन्दन सुन बधिर-सा हो गया है यह गगन तल , आज, धुंधले बन गये हैं, आह, मेरे चित्र उज्ज्वल ,
कौन हलका कर सकेगा ? वेदनाका भार मेरा।
दुख भरा संसार मेरा। समझता संसार मेरे करुण रोदनको बहाना , उमड़ता उन्माद मेरा, आह, किसने आज जाना ,
कौन सुनता है, अरे, यह .मौन हाहाकार मेरा।
दुख भरा संसार मेरा।
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२१ - .
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प्यार!
सजनि है, कसा जगका प्यार? स्वणिन रदिम-रागिने जगमग, तरल हास्यसे विकसित करजग, निर्मम रवि है सजनि,
. पाका करता है संहार। निधिका अंचल वीर फाड़कर, उज्ज्वल निज आमा प्रसारकर, तनका कर हार पूर्णिना
सजती निज शृंगार। कलिकाओंका हृन्य विवाकर, अपने तनका साज सजाकर, उनकी पीड़ा भूल अरे
वह बन जाता है हार। उनि है कैसा जग-व्यवहार !
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२२
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श्री गुणभद्र, अगास
पं० गुणभद्रजीको समाजमें कविके रूपमें आदर मिला है और इस आदरको उन्होंने परिश्रम और साधनाके द्वारा प्राप्त किया है। कविताके 'अनेक रूप हैं, अनेक शैलियाँ हैं। कवि जव साहित्यके किसी विशेष अंगको । अपना कार्य-क्षेत्र बना लेता है तो उसकी शैली उसी दिशामें स्थिर-सी होती चली जाती है। श्री गुणभद्रजीने परम्परागत कया-कहानियोंको पद्य-बद्ध करनेका जो कार्य प्रारम्भमें हाथमें लिया था, उसे वह सफलतासे सम्पन्न करते चले जा रहे हैं। निःसन्देह उनकी शैली मुख्यतः वर्णनात्मक है, भावात्मक नहीं। किन्तु लम्बी कथाओंको भादात्मक शैलीमें रचनेके लिए कविको बहुत समय चाहिए, सुरुचिपूर्ण क्षेत्र चाहिए और निरापद साधन चाहिए । दूसरे, प्रत्येक कवि 'साकेत' नहीं लिख सकता, शायद 'जयद्रय-व' लिख सकता है। फिर भी, प्राज जो 'जयद्रथ-वर्ष लिख रहा है उससे फल हम 'साकेत' की प्राशा कर ही सकते हैं। कविको साधनकी भी आवश्यकता होती है और साधनाकी भी। __गुणभद्रजीने साहित्यके एक उपेक्षित अंगको लिया है और उसे वे अपनी रचनासे प्रकानमें ला रहे हैं। इस दिशामें उनका प्रयास अपने ढंगका अनूठा है। कितने ही उठते हुए कवियोंको उनसे स्फूति और प्रेरणा मिली है । साहित्यको बहुमुखी आवश्यकतानोके आधारपर गुणभद्रजीको युग-प्रवर्तकोंमें स्थान मिलना ही चाहिए।
आपने अब तक निम्नलिखित छ ग्रन्थोंकी रचना की है-'जन-भारती', 'रामवनवास', 'प्रद्युम्नचरित', 'साध्वी', 'कुमारी अनन्तमती और 'जिन-चतुर्विशति-स्तुति'।
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सीताकी अग्नि-परीक्षा
"हे नाथ, दो आदेश, कर विषपान दिखलाऊँ यहाँ , अथवा भयंकर सर्पको करसे पकड़ लाऊँ यहाँ । पड़ अग्निमें जगको दिखा दूं गील कहते हैं किसे , वह कृत्य कर सकती, कभी मानवन कर सकता जिसे।" श्री राम वोले "जानता मै शील तव निर्दोप है, तो भी कुटिल यह जग तुझे देता निरन्तर दोप है । घुस अग्निके ही कुण्डमें अपनी परीक्षा दो हमें , जिससे तुम्हारे शीलका, 'सन्देह' जगतीमें शमे ।"
x अपनी परीक्षाके समय जनकात्मजा वोली यही , "मनसे वचनसे कायसे परको कभी चाहा नहीं। यदि, हे अनल, मिथ्यावचन हो भस्म कर देना मुझे, कैसी सदा में विश्वमें हूँ, यह बताना है मुझे।" शुभ जाप जपती मन्त्रका उस कुण्डमें कुदी तभी , तत्काल निर्मल नीरसे, वह भर गई वापी तभी। कुछ काल पहले,हा, महा विकराल ज्वालाथी जहाँ , अधुना सरोवर पद्मिनीमय शोभता सुन्दर वहाँ । सुन्दर सरोवर मध्य देवी-सी दिखाती जानकी , शुभ सत्यके रक्षार्थ यों परवा न की निज प्राणकी ।
(एक अंश)
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भिखारीका स्वप्न
एक था भिक्षुक जगतका भार था , मांगके खाना सदा व्यापार था , वांधके रहता नगर-तट झोंपड़ी , हा, विताता कष्टसे अपनी घड़ी ।१
थी न उसको विश्वकी चिन्ता बड़ी, था सहा करता सभी वाघा कड़ी, द्रव्यवानों-सा न उसका ठाठ था ,
खाटपर कर्कश पुराना टाट था ।२' पासमें था एक पानीका घड़ा ,
ओढ़नेको था फटा कम्बल कड़ा , मक्षिकाएँ भिनभिनाती थीं वहाँ , मच्छरोंकी भी कमी उसमें कहाँ ।३
मांग लाता रोटियां जो ग्रामसे , वैठके खाता बड़े आरामसे , भोज्य जो खाते हुए वचता कहीं ,
टांग देता एक कोनेमें वहीं।४ , और सो जाता निकटके तरु तले , नींदमें जाने पहर उसके चले , एक दिन मिष्टान्न भिक्षामें मिला , प्राप्त कर उसका हृदय पंकज खिला।५
• -
२५
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मग्न था वह हर्ष पारावारमें, इन्द्रपद पाया मनो आहार में, खा उसे कुछ स्वच्छ शीतल जल पिया, हो गया था तृप्त-सा उसका हिया । ६
फिर विछाकर खाट टूटी, प्रेमसे, सो गया भिक्षुक बड़े ही क्षेमसे, शीघ्र श्राया स्वप्न तव उसको नया
,
विश्वका अधिराज में हूँ हो गया ||७||
झोंपड़ी मिटकर हुई प्रासाद है, ग्रव उसीपर पंछियोंका नाद है, भीतरी सब भाग हीरोंसे जड़े, दास जोड़े हाथ द्वारोंपर खड़े |८
वाहनोंकी भी रही है त्रुटि नही, हो गई सम्पूर्ण यह मेरी मही, दिव्य था ग्राभूषणोंसे गात्र भी, था वना लावण्यका शुभ पात्र ही 18
1
दिव्य देवी मंचपर वह शोभता नारियोंके मुग्ध मनको मोहता दासियाँ पंखा दुलाती थीं खड़ी सौख्यकी देखी न थी ऐसी घड़ी |१०
1
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'
,
"
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स्वप्नमें साम्राज्य उसने पा लिया , मानवश भी दण्ड कितनोंको दिया , शत्रु चढ़ पाया तभी उस राज्यपर , सामने लड़ने चला वह शीघ्रतर ।११
देखके हथियार सव उसके नये , रंकके दृग शीघ्र भयसे खुल गये , रह गया चित्राम-सा दृगको मले , सोचता क्या भोग मुझको थे मिले ।१२
ले गया है कौन अव उनको छुड़ा , हो रहा मुझको यहाँ विस्मय बड़ा , सौम्य-सी इक सृष्टि जो देखी नई , वह अचानक लुप्त क्योंकर हो गई।१३
स्वप्नसे ही लोकके ये भोग हैं , खेद ! उसमें मर्त्य देते योग हैं ! सोचिये तो स्वप्न-सा संसार है , धर्म इसमें सार सौ सी वार है ।१४
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युगानुगामी
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पंडित चैनसुखदास, न्यायतीर्थ, कविरत्न
एक साहित्यिकके नाते, पं० चैनसुखदासजीका स्थान जैनसमाजके विद्वानोंमें बहुत ऊँचा है । आप प्रतिभा सम्पन्न सफल कवि तो हैं ही; साहित्यके अन्य क्षेत्रोंपर भी श्रापका अधिकार है । गद्य-लेखक, गल्प-कार, सम्पादक और ओजस्वी वक्ताके रूपमें आपने साहित्य और समाजकी सेवा की है। इसके अतिरिक्त, आप स्वतन्त्र-विचारक और समाज-सुधार सम्वन्धी आन्दोलनोंमें प्रमुख भाग लेनेवाले कर्तव्य-निष्ठ नेता भी हैं। ·
पं० चैनसुखदासजी लगभग २५-३० वर्षसे साहित्यिक क्षेत्रमें आये हुए हैं । आप जब १५ वर्षके थे तभी उस समयको प्रमुख संस्कृत पत्रिका 'शारदा' में साहित्यिक लेख और सरस कविताएँ लिखा करते थे । संस्कृतकी पद्यरचना श्राप श्राशु कवि हैं। आपमें धाराप्रवाह रूपसे संस्कृत गद्य लिखने और वोलनेको क्षमता है ।
श्रापकी कविताओं में रस भी है और श्रोज भी । यह दार्शनिक तत्त्वको सुन्दर पदावलि द्वारा श्राकर्षक ढंगसे कहते हैं । तत्त्वकी गहनताको भाषाकी सरसता द्वारा सजाकर श्राप अपनी कवितामें रहस्यवादकी झलक ले नाते हैं, इससे कवितामें विशेष चमत्कार उत्पन्न हो जाता है ।
श्रापके संस्कृत ग्रन्थ 'भावनाविवेक' और 'पावन प्रवाह' प्रकाशित हो चुके हैं । श्राप भादवा ( भैंसलाना) के रहनेवाले हैं और श्राजकल जयपुरमें 'दिगम्बर जैन महा पाठशाला' के प्रधानाध्यापक हैं ।
३१
Gy
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सत्ताका अहंकार तेरा आकार वना कैसे, सागर, वतला इतना विशाल ?
है विन्दु-विन्दुमें अन्तहित तेरा गाम्भीर्य अपार अतल , इनकी समष्टि यदि विखरेतो
दीखे न कहीं वसुवामें जल। तेरा स्वरूप तब हो विलुप्त जो आज बना इतना कराल ।
तेरी सत्ताका क्या स्वल्प इस 'विन्दु-विन्दुसे है विभिन्न ? तू है अज्ञात अपरिचित-सा ,
इस दिव्य तथ्यने अहंमन्य । है श्रेय वता किनको उनका जो कुछ भी है तेरे कमाल ?
एकक विन्दुने आ-आकर तेरा आकार बनाया है, अपने तनको तुझको देकर ।
तेरा गाम्भीर्य बढ़ाया है। त्यों जीवनतत्त्व वने तेरे ज्यों जीवन-पट है तन्तुजाल ।
जिनसे इतना वैभव पाया उनको मत फेंक, अरे, प्रमत्त , तू इनसे बना, न ये तुझसे
इनको क्या हैं तेरा प्रदत्त । -सव हँसते हैं ये देख-देख, उपहास जनक तेरी उछाल !
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इनके विनाश नाश, और इनके संरक्षणमें रक्षा, तेरी है, सागर, निरावाव
यह जीवन-रक्षणकी शिक्षा । तू मान, निरापद है यह पथ, होगा इससे तू ही निहाल ।
जीवन-पट
जीवन-पट यह विखर रहा है तन्तु जाल सव क्षीण हो गया सारा स्तम्भक तत्त्व खो गया , पलभर भी अब रहना इसमें भगवन्, मुझको अखर रहा है।
सम्मोहनकी मधुमय हाला पी-पीकर मैं था मतवाला , नशा आज उतरा है अव तो जीवन मेरा निखर रहा है।
मृत्यु-लहरपर खेल रहा मैं सव-विपदाएं झेल रहा मैं, अन्तर्द्वन्द्व मचा प्राणोंमें यह समीर मन मथित रहा है।
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अन्तिम वर
बहुतान्बह्या ग्रव आया हूँ,
भगवत्
श्री धननेको
लाया
अहंकारके ग्रहनें
शुटका
पता न पाया तेरे तडका
भूला या इस दिव्य तव्यको— ÷ तेरी छाया है !
कभी न जाना क्या अपना है, क्या जीवन सचमुच सपना है,
क्या यह ही कहना, जगना है,
ग्रानतत्व काया है !
नू है मेरा श्रीं' में तेरी
केवल अब यह वर पाना है, इसीलिए नेरा आना है,
फिर न कहूँ तेरे समझनें
तरी
माया हूँ !
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पंडित दरवारीलाल 'सत्यभक्त'
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'सत्य-धर्म के संस्थापक, पंडित दरवारीलालजीने, व्यक्ति और कवि दोनों रूपमें समाज और साहित्यमें अपना विशेष स्थान बनाया है। वह उच्च कोटिके लेखक हैं, विद्वान् हैं, विचारक हैं और कवि हैं । जीवनमें जिस साधनाका मार्ग उन्होंने अपनाया है और जिस मानसिक उथल-पुथलके द्वारा वह उस मार्ग तक पहुंचे हैं, उसमें उनका दार्शनिक मन और भावुक हृदय दोनों समान रूपसे सहायक हुए हैं कुछ पालोचक हैं जो कहेंगे, 'सहायक' नहीं, 'वाधक' हुए हैं। ___ जो भी हो, इसमें सन्देह नहीं कि 'सत्यभक्त' जो बहुत ही संवेदनाशील कवि हैं। उनकी कविता जव हृदयके भावों और मानसिक द्वंदोंके स्रोतसे प्रवाहित होती है, तो उसमें एक सहज प्रवाह और सौन्दर्य होता है। जिस प्रकार वह विचारोंको सुलझाकर मनमें विठाते हैं और दूसरों तक पहुंचाते है, उसी प्रकार उनके भाव भी कविताका रूप लेनेसे पहले स्वयं सुलझ लेते हैं। उनकी समवेदनाएँ पाठकोंके हृदयको छूकर ही रहती हैं। यह उनकी रचनाको बहुत बड़ी सफलता है । जो कविताएं प्रचारात्मक हैं या किसी अावश्यकताको पूरा करने के लिए लिखी गई हैं, वे इस श्रेणीमें नहीं पाती। ___ 'सत्यभक्त'नीने 'सत्यसन्देश' और 'संगम' नामक पत्रिकाओं द्वारा हिन्दी संसारको ही नहीं, मानव-संसारकी सेवा की है, और कर रहे हैं। उनके लेख मननीय और संग्रहणीय होते हैं । विश्वके अनेक धर्मोका मनन, सन्तुलन और समन्वय फरके 'सत्यधर्म की प्रतिष्ठापना करना-आपने जीवनका लक्ष्य बनाया है। वर्षामें 'सत्याश्रम'की स्थापना करके अव आप वहीं रहते हैं।
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उलहना
कोमल मन देना ही था तो,
क्यों इतना चैतन्य दिया ? शिशुपर भूपण-भार लादकर,
क्यों यह निर्दय प्यार किया ? यदि देते जड़ता, जगके दुख
नप्ट नहीं कुछ कर पाते , त्रिविध-तापसे पीड़ित करके,
मेरी शान्ति न हर पाते। जड़तामें क्या शान्ति न होती ? |
अच्छा है, जड़ता पाता , किसका लेना, किसका देना,
वीतराग-सा बन जाता। अपयशका भय, कर्तव्योंकी
रहती फिर कुछ चाह नहीं, तुम सुख देते या दुख देते,
होती कुछ परवाह नहीं। लड़ते लोग धर्मके मदसे,
मेरा क्या प्राता जाता? दुखियोंकी आहोंसे भी यह,
हृदय नहीं जलने पाता।
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विधवाओंके अश्रु न मेरी
नजरोंमें पाने पाते , नहीं आँसुओंकी धारासे
ये कपोल धोये जाते। 'हाय, हाय' चिल्लाता जग, पर
होते कान न भारी ये, नहीं मुखाती, नहीं जलाती,
चिन्ताकी चिनगारी ये।
जट होकर जड़के पूजनमें
__ 'निज' 'पर' सब भूला रहता , दुनियाके दुवकी चिन्ताका
बोझ हृदयपर क्यों महता ? पर, जो हृया, हो गया, अब क्या,
अब नो इनना ही कर दो, मनको बज्र बना दी, उममें
माहम और धैर्य भर दो।
'रोना' तो मैं सीन चुका है,
अब कुछ करना' बतला दी, उन कतंत्र्य-यनमें बढ़कर . . हैम-हम मन्ना मिचला दी।
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कवके फूल
क़ब्रपर नाज चढ़ाये फूल !
जव तक जीवन था तव तक क्षणभर न रहे अनुकूल । कण-कणको तरसाया क्षण-क्षण, मिलान अणु-भर प्यार, अव आँखोंसे वरसाते हो मुक्ताग्रोंकी धार । देह जव आज वनी है घूल ; क़नपर आज चढ़ाये फूल !
आज धूल भी जन-सी है नयनोंका शृंगार, काला ही काला दिखता था तब हीरेका हार |
कल्पतरु था तव पेड़ वबूल ; क़द्रपर आज चढ़ाये फूल !
विस्मृतिके सागरमें मेरी डुवा रहे थे याद, नाम न लेते थे, कहते थे, हो न समय बर्बाद |
मगर अव गये भूलना भूल ; क़द्रपर नाज चढ़ाये फूल !
सदा तुम्हारे लिए किया था धन - जीवनका त्याग, सींच-सींच करके सूत्रोंसे हरा किया था वाग़ ।
मगर तव हुए फूल भी शूल ; क़द्रपर आज चढ़ाये फूल !
"
अव न क़नमें आ सकती है इन फूलोंकी वास मुझे शान्ति देती है केवल, यही क़ब्रकी घास ।
शान्त रहने दो, जानो भूल, क़नपर प्राज चढ़ाये फूल !
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झरना
(१) वहा दे छोटा-सा झरना। 'प्यासा होकर सोच रहा हूँ कैसे क्या करना ?
बहा दे छोटा-सा झरना ।
( २ ) 'मरु-थल चारों ओर पड़ा है,
वालुका संसार खड़ा है, बूंद-बूंदकी दुर्लभतामें कैसे रस भरना ?
वहा दे छोटा-सा झरना।
( ३ ) नयन-नीर वरसाना होगा,
मानसको भर जाना होगा, शीतल मन्द सुगन्ध पवनसे जगत्ताप हरना।
वहा दे छोटा-सा झरना।
मेरी थोड़ी प्यास बुझा दे,
थोड़ा-सा ही झरना ला दे, चमन बना दूंगा इस मरुको, भले पड़े मरना।
वहा दे छोटा-सा झरना।
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पंडित नाथूराम डोंगरीय
पंडित नाथूरामजी डोंगरीय समाजके सुपरिचित लेखकों और कवियोंमें अपना विशेष स्थान रखते हैं। आपके लेख अनेक जैन और जनेतर पत्रोंमें छपते रहते हैं जो विषय, भाषा और भावकी दृष्टिसे पठनीय होते हैं। ___इन्होंने हाल हीमें एक पुस्तक लिखी है "जनवर्म", जिसमें जैनधर्मके मुख्य मुख्य सिद्धान्तोंका सरल और प्रभावपूर्ण भाषामें प्रतिपादन किया है। आपने 'भक्तामर स्तोत्र'का पद्यानुवाद रुवाइयोंकी छन्द-शैलीमें किया है, जो प्रकाशित हो चुका है।
श्रापकी कविताएँ विचार और भावकी दृष्टिसे अच्छी होती हैं।
मानव मन
विश्व - रंगभूमें अदृश्य रह
वनकर योगिराज-सा मीन , मानव-जीवनके अभिनयका
संचालन करता है कौन ? किसके इंगितपर संसृतिमें
ये जन मारे फिरते हैं, मृग-तृष्णामें शान्ति-सुधाकी
भ्रान्त कल्पना करते हैं। आशा और निराशाओंकी वारा कहाँ वहा करती; अभिलाषाएँ कहाँ निरन्तर नवक्रीड़ा करती रहती ?
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क्षण भंगुर यौवन-श्रीपर यह
इतराता है इतना कौन , रुप-रागिपर मोहित होकर
शिशु-सम मचला करता कौन?
बिन पर विश्व विपिनमें करता
अरे कौन स्वच्छन्द विहार; वन सम्राट्, राज्य विन किसने
कर रक्खा सवपर अधिकार ?
रोकर कभी विहँसता है तो फिर चिन्तित हो जाता है; भाव-भङ्गिके नित गिरगिट-सम नाना रंग बदलता है ।' चित्र विचित्र बनाया करता
विन रँग ही रह अन्तर्धान , किसने चित्र कलाका ऐसा
पाया है अनुपम वरदान ? प्रिय मन, तेरी ही रहस्यमय
यह सव अजव कहानी है , कर सकता जगतीपर केवल,
मन, तू ही मनमानी है ! किन्तु वासनारत रहता ज्यो, त्यो यदि प्रभु चरणों में प्यार, करता, तो अब तक हो जाता भव-सागरसे वेड़ा पार ।
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श्री सूर्यभानु डाँगी, 'भास्कर'
डाँगी सूर्यभानुनी, बड़ी सादड़ी (मेवाड़) के रहनेवाले हैं। लगभग १०-१२ वर्ष कविताएँ लिख रहे हैं जो प्रायः पत्रोंमें प्रकाशित हुई हैं । आप पं० दरवारीलालनी 'सत्यभक्त' के सहयोगी हैं, और अपनी रचनात्रोंमें सत्यधर्मके सिद्धान्तोंका प्ररूपण करते हैं-जो धार्मिक कविताके लिए तदासे ही उपयुक्त विषय रहे हैं । आपकी कविताएँ बहुत सरस, भावपूर्ण और सङ्गीतमय होती हैं ।
विनय
मम हृदय-कमल विकसित कर रे, यह विनय विमल उरमें घर रे !
दिनकर वनकर सघन गगनपर, रुचिकर मनहर अरुण वरण भर अन्तरम छिपकर अन्तरतर चमक चंचल चिरस्थिर रे |
मम हृदय-कमल विकसित कर रे ।
स्नेह-मुवाका स्रोत वहा दे, शिव-सुखमय सुपमा सरता दे, लोल ललित लहरी लहरा दे, विप्लवमय जीवन नर् रे ।
एक भावना,
मम हृदय-कमल विकसित कर रे । शत्रु - मित्रपर त्रिभुवनकी कल्याण कामना, 'सूर्यभानु' को यही प्रार्थना, वितरित करना घर-घर रे ।
मम हृदय-कमल विकसित कर रे ।
४२ ト
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संसार
अपनी सुख-दुखकी लीलासे बना हुआ सारा संसार ।
अणु-अणु परिवर्तित है प्रति पल
इसीलिए कहलाता चंचल सत्त्व रूपसे अचल, विमल है नित्यानित्य विचार; अपनी सुख-दुखकी लीलासे बना हुना सारा संसार ।
अभी जन्म है, अभी मरण है
अभी त्रास है, अभी शरण है ! धूप-छाँह सम, हास-अश्रुमय जीवनका संचार ; अपनी सुख-दुखकी लीलासे वना हुआ सारा संसार ।
अभी बाल है, अभी युवा है
अभी वृद्ध है, अभी मुवा है। कसा रे परिवर्तनमय है यह निष्ठुर व्यापार ; अपनी सुख-दुखकी लीलासे बना हुआ सारा संसार ।
यहाँ कहाँ रे शान्ति चिरन्तन
कर्म-दलोंका निविड़ निवन्धन । 'सूर्यभानु' है संग निरन्तर सृजन और संहार ; अपनी सुख-दुखकी लीलासे बना हुआ सारा संसार ।
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श्री दलाल
आप अमरावतीके निवासी हैं। वयोवृद्ध हैं। अमरावती (वरार), जहाँको खास भाषा मरहठी है और जहाँपर एक भी हिन्दी स्कूल नहीं था, वहाँ आपने प्रयत्न करके अनेक हिन्दी-स्कूल खुलवाये हैं । श्राप हेड-मास्टर थे और अव अवकाश ले लिया है।
आपकी कविताएँ जैन-पत्रों में प्रकाशित होती रहती हैं। आप अपनी रचनाओंमें पारमार्थिक भावोंका बड़ी सुन्दरतासे आधुनिक शैलीमें दिग्दर्शन कराते हैं।
मनकी बातें
चिर दहता है चिन्तानलमें,
दुख-सागरमें गोते खाता; इसकी साध न पूरी होती,
रह-रहकर फिर-फिर अकुलाता ।१
व्यथित हृदयकी मर्म-वेदना
सन्तापोंकी ज्वाल जलाती; खींच - खींचकर स्वरलहरीको
उर - तन्त्रीके तार वजाती ।२
समझ-समझ पीडाको क्रीड़ा
हो उन्मत्त उसे अपनाया ; कंटक-पथपर चलकर, रे मन,
खोया बहुत न कुछ भी पाया ।३
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पागल परिचयसे वञ्चित हो,
तड़प-तड़पकर सही व्यथाएँ ; जगदङ्गनमें गूंज रही क्यों
चिर विषादकी करुण कथाएँ ? ४
अन्तस्तलमे अस्थिरता भर कैसा मोहक जाल प्राणी,
फँसते
विछाता ;
भव - वन्धन में
!
ज्ञानी खगपति भी चकराता १५
रञ्चमात्रको,
तीन लोककी माया पाई ;
तृप्त न होता
•
व्याकुल चिन्तित होता मानव,
जिसने अपनी चिता सजाई |६
हो मदान्व तृष्णामें वर्वर मानवता में श्राग विपम वृत्तियाँ मनकी सारी उथल-पुथलकर धूम
चंचल है तन, चंचल जीवन,
चंचलता तज, वन वैरागी,
चंचल इन्द्रिय-सुखकी घातें ;
४५
लगाती ;
मचातीं ॥७
हैं विचित्र सब मनकी बातें |
want
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पथिक
भूले पथिक, कहाँ फिरते हो? थिर हो वैठ, हृदयमें सोचो, अमित कालसे क्या करते हो ?
मार्ग विपर्यय है यह तेरा, अनय असुरने किया अँधेरा , विषय-व्यालने तुझको घेरा ,
ज्ञान-प्रकाश जगा जीवनमें , जनम-मरण दुख क्यों भरते हो?
करण-कंटकाकीर्ण विजनमें, मनोवृत्तियोंके भव - वनमें , राग - द्वेषके शल्य - सदनमें ,
मायाके फर्फन्द जालमें जान-बूझ क्यों पग धरते हो?
तेरा है जगसे क्या नाता , सोच, अरे, क्यों भूला जाता, • काम-क्रोध-मद क्यों अपनाता ?
कुटिल कालके चंगुलमें फंस , अन्ध-कूपमें क्यों गिरते हो? भूले पथिक, कहाँ फिरते हो ?
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पंडित शोभाचन्द भारिल्ल, न्यायतीर्थ
श्री शोभाचन्द भारिल्ल, न्यायतीर्य, संस्कृत-हिन्दीके विद्वान् हैं। आप जैन-गुरुकुल व्यावरमें अध्यापक हैं। बहुत अरसेसे लेख और कविताएँ लिख रहे हैं जिनका धार्मिक जगत में पर्याप्त श्रादर है।
आपने अपने बड़े भाई श्री रामरतन नायकके 'असामयिक वियोगके तीव्रतर सन्तापको उपशान्तिके लिए-भावना' नामक कविता लिखी है, जो प्रकाशित है। संस्कृत 'रत्नाकरपच्चीसी'का हिन्दी पद्यानुवाद भी व्यावरसे प्रकाशित हुआ है। आपकी कविताएं आध्यात्मिक और तत्त्वदृष्टिसे हृदयग्राही होती हैं।
अन्यत्व
(१) पहले था मैं कौन, कहाँसे आज यहाँ आया हूँ; किस-किसका संबंव अनोखा तजकर क्या लाया हूँ ? जननी-जनक अन्य है पाये इस जीवनको वेला ; पुत्र अन्य हैं, पौत्र अन्य हैं, अन्य गुरू है चेला ।
(२) , पूर्व भवोंमें जिस कायाको बड़े यत्नसे पाला ; जिसकी शोभा बढ़ा रही थी माणिक-मुक्ता-माला । वह कण-कण वन भूमंडलमें कहीं समाई भाई ; इसी तरह मिटनेवाली यह नूतन काया पाई।
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-शैशव अन्य, अन्य यौवन है, है वृद्धत्व निराला; सारा ही संसार सिनेमाकेसे दृश्योंवाला। इन भंगुर भावोंसे न्यारा ज्योति-पुंज चैतन है ; मूर्ति-रहित चैतन्य-ज्ञानमय, निश्चेतन यह तन है ।
(४) मैं हूँ सबसे भिन्न, अन्य अस्पृष्ट निराला ; आतमीय-सुग्व-सागरमें नित रमनेवाला । सव संयोगज भाव दे रहे मुझको धोखा; हाय, न जाना मैंने अपना रूप अनोखा ।
आज और कल - जो है आज जरा-सा छोटा , चंचल उद्धत और छिछोरा, कल वह होगा वृद्ध सयाना , -बूढोंका भी बूढ़ा नाना ।१
छोटी-सी अवखिली कली है , दिखनेमे अत्यन्त भली है , कल वह सुन्दर सुमन वनेगी , शाखासे गिर, धूल सनेगी ।२
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अभी लोक ग्रालोक भरा है,
दिखती रससे भरी
धरा है,
होगा,
चोगा | ३
हा, फिर घोर अँधेरा
पहनेगा जग काला
जो हैं श्राज
डग-भर दूर न
चलकर जाते
कल वे भीख माँगने श्राते, तो भी उदर न हैं भर पाते |४
श्राज वसन्त यहाँ है छाया, विखरी है निसर्गकी माया, कल, हा, ग्रीष्म-ताप श्रायेगा, सव सौन्दर्य विला जायेगा |५
द्रव्य - मदमाते,
फँसा,
हाय, काल-नर्तन है, जगका कैसा परिवर्तन है,
हम भी कभी शून्य
यह अस्तित्व सभी
ऊँचे चढ़े ग्रथः
पैदा हुए,
माथा मारा, समझ न पाया, चिन्तामें निशि - दिवस विताया |६
-
होयेंगे,
खोयेंगे,
गिरनेको,
हाय, मरनेको ! ७
1
४९
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अभिलाषा
विपदाओंके गिरि गिर सिरपर
टूट पड़ें, पड़ जावें ;
मेरे नियत मार्गमें शतशः
विघ्न अड़ें, अड़ जावें ।
एक ओर संसार दूसरी ओर अकेला पर निराश साहस- विहीन हो कोने बैठ न
हो दरिद्रता, पर न दीनता
पास फटकने पावे;
हो कुवेर चेरा पर, मेरा,
मनमें गर्व न आवे ।
रहूँ निरक्षर किन्तु निरन्तर,
सुरगुरु और शारदा जैसा शिष्य-वृन्द हो मेरा ; तो विरक्त हो समझू दुनिया चिड़िया रैन बसेरा ।
शील सखा हो मेरा ;
होऊँ ;
रोऊँ ।
समता अगाध वारिधिमें
डूवे 'तेरा' - 'मेरा' ।
0
५०
राग-रंगसे हृत्-पट मेरा रंजित भले बना हो ; पर, सवपर हो राग एक-सा, थोड़ा श्री' न घना हो ।
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श्री रामस्वरूप 'भारतीय'
'भारतीय' जी समाजके पुराने लेखकोंमेंसे हैं। प्रायः १० वर्ष पूर्व इनकी रचनाएँ 'देवेन्द्र' में तथा अन्य जैन और जैनंतर पत्र-पत्रिकाओं में निकला करती थीं । ये कर्मशील व्यक्ति हैं । इनमें समाज सेवा और देश- सेवाकी लगन है; विचार भी मंजे हुए और उदार हैं ।
श्रापकी कविताएँ भोजपूर्ण और शिक्षाप्रद होती हैं। भाषामें प्रवाह है, और भावोंमें स्पष्टता । श्रापकी एक कविता- पुस्तक 'वीर पताका' बहुत पहले श्री ' महेन्द्र'जीने प्रकाशित कराई थी । प्राप उर्दूके भी अच्छे लेखक हैं | उर्दूकी पुस्तक 'पंग्रामे हमदर्दी' श्राप होने लिखी है ।'
अगस्त श्रांदोलन में भारत-रक्षा-क़ानूनके श्राधीन जेल-यात्रा कर आये । जेलमें इन्होंने अनेक कविताएँ और संस्मरण लिखे हैं ।
समाधान
भिन्न-भिन्न सुमनोंमें समान गन्ध न होगी, भिन्न-भिन्न हृदयों में एक उमंग न होगी ; कोटि यत्न हों मत - विभिन्नता वन्द न होगी, शान्ति न होगी हीन वुद्धि यदि मन्द न होगी । सबके मनमें शक्ति है तर्क स्वतन्त्र विचारकी ; सबको चिन्ता है लगी अपने शुभ उद्धारकी ।
कुछ ऐसे हैं जिन्हें जगतसे परम प्यार है, प्राच्य कीर्ति है इष्ट, पुण्य श्रद्धा अपार है ; कुछ ऐसे हैं जिनपर युगका रंग सवार है, मनमें साहस है, उमंग है, जाति प्यार है ।,
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प्रथम जातिमें ही करें निज ग्राचार - प्रचारको ; द्वितीय, जातिमें दें गुंजा वीणाकी भंकारको । लाख बुरे हैं, पर अच्छे हैं अपने ही हैं, इन भावोंके विना सफलता सपने ही है। सवके प्रकटित भाव आंचपर तपते ही हैं, अभिमत मिलता नहीं, न चिन्ता, अपने ही हैं । जब तक यों जातीयताका न चढ़ेगा रंग दृढ़ ; हो न सकेगा तब तलक विजय विघ्नका सुदृढ़ गढ़ |
धर्म-तत्व
वही राम मन्दिर कहलाता जहाँ विराजे हैं भगवान ;
?
क्या करीमके मसकनको मसजिद न मानती हैं कुरान घन्य भाग्य हैं, मनमें मन्दिर, दिलमें है मसजिद प्यारी ;
प्रकृति देविने पुण्य-भावनासे की जिसकी तैयारी | नरने चूना गारा पत्यरसे कुछ भवन वनाये हैं ;
भव्य भावनाकी श्रंजलि देकर भगवान बुलाये हैं | नर - निर्मित मन्दिर मस्जिद स्मृतियाँ हैं मन मन्दिरकी ;
वाह्य क्रिया है साधन, वीणा गूंज उठे श्रभ्यन्तरकी । पण्डित - मुल्ले भोली-भाली जनताको बहकाते हैं ; नर-नारायण, मन्दिर - मसजिदके अनिल अनलसे बढ़कर दावानल वनती है, क्षमा क्षमाशीलोंका गुण है,
मिस प्राण गँवाते हैं ।
वीमारीकी तहमें व्यापी बहुमतको वीमारी है ;
दूपण है ;
धर्म मर्म है, भूषण है |
प्रपंचियोंका वल प्रचंड है, भले जनोंकी वारी है ।
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वायू अयोध्याप्रसाद गोयलीय
. जैन समाजमें बहुत थोड़े लोग ऐसे हैं जो वा० अयोध्याप्रसादजी गोयलीयको पहलेसे ही प्रत्यक्ष या परोक्ष रूपमें न जानते हों। ____ गोयलीयजी श्राज २० वर्षसे जैन-समाज और जन-साहित्यको गतिविधिमें सक्रिय भाग ले रहे हैं। उनके सीनेकी आग आज भी उसी तरह गरम है । समाज, देश, धर्म और साहित्यसेवाकी दीवानगी प्राज भी २० वर्ष पहलेकी तरह बदस्तूर कायम है।
अपनी सहज कुशाग्र बुद्धि, अध्यवसाय और अनुशीलनके द्वारा उन्होंने न्याय, धर्मशास्त्र, इतिहास, हिन्दी, उर्दू और संस्कृत साहित्यमें अच्छी गति प्राप्त की है। कथा, कहानी, कविता, नाटक, निवन्ध और प्रचारात्मक साहित्यके वे सप्टा हैं। 'दास' उपनामसे लिखी हुई उनकी हिन्दी और उर्दूको कविताओंका संग्रह प्रकाशित हो चुका है। और जैन इतिहास, विशेषकर मौर्यकालीन इतिहासके तो वे प्रामाणिक विद्वान् हैं। उर्दू शायरीसे इन्हें खास दिलचस्पी है।
सामाजिक जागृतिके क्षेत्रमें उन्होंने कार्यकर्ताओंको जोशीले गाने और उत्साहप्रद कविताएँ तथा युवकोंकी भावनाओंको सिंहनादका स्वर दिया। उनकी एफ जोशीली कविताके चन्द शेर मुलाहना हो ।
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जवानोंका जोश
हम वो हैं मर्द कि मनन न थोड़ेंगे कभी। मुंहले जो कह चुके मुंह उससे न मोड़ेंगे कमी !! तीरते, तंगसे खंजरसे, कहीं डरते हैं ? कल्ट' जित वातका कर लेते हैं वोह करते हैं। आर जो हनसे ज़ियादा है वोह कल कम होंगे। जब कमर बाँधके उठेंगे, हम ही हम होंगे। नंक और वदमें है क्या बतानेवाले! जो हैं गुमराह उन्हें राह पं लानेवाले ॥ वेबवर जो थे उन्हें हमने स्वस्तार किया। वावे गलत हरक मल्सको हुण्यार किया । यह तो दावे हैं, मगर वक्ते अमल जब पाए। परसे बाहर न कोई आए न मुंह दिखलाए । खोने दे की मानिन्द बदन पराए। कामकी जिससे कहो वोह ये पै लाए। जानसे बढ़के है, नबी मोहब्बत हमको। क्या करें ? कामसे मिलती नहीं फुरसत हमको। लोग क्या कहते हैं? मृतलकं उन्हें अहना नहीं। आवर, वर्म, दयाका मी जरा पास नहीं । जिस तस्वीरकी गोमा बड़े वोह रंग बनो। दिलमें गैरत है अगर 'दास' तो अकलंक वनो ।
'प्रण। भूला भटका। 'स्वप्न । 'काम करनेका समय। 'वेंत। 'नुछ। 'लगाव ।
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बाबू अजितप्रसाद, एम० ए०, एल-एल० वी०
बाबू अजितप्रसादजीका जन्म सन् १८७४में हुआ। आपने सन् १८६५में एम० ए०, एल-एल० वी०की उपाधि प्राप्त करके वकालत प्रारम्भ की थी। श्राप कई वर्षों तक सरकारी वकील और बादमें बीकानेर हाईकोर्ट के जज रह चुके हैं। __आप स्याद्वादमहाविद्यालय, ऋषभ ब्रह्मचर्याश्रम, सुमेरचन्द जैन होस्टेल, जैनसिद्धान्त-भवन और दिगम्बर जैन-परिषद्के संस्थापनमें उत्साही पदाधिकारीके रूपमें सम्मिलित रहे हैं।
आप सन् १९१२ से अंग्रेजी 'जैनगजट'के सम्पादक और सन् १९२६ । से 'सेन्ट्रल जैन पब्लिशिंग हाउस,' लखनऊके सञ्चालक हैं, जहाँसे अंग्रेजीमें ११ सिद्धान्त अन्य प्रकाशित हो चुके हैं।
श्री अजितप्रसादजी कविरूपसे विख्यात नहीं हैं। विशेष अवसरोंपर मित्रोंके अनुरोधसे, खासकर उर्दूमें, कुछ लिख देते हैं। लेकिन जो कुछ लिखते हैं उसमें कुछ पद-लालित्य और विशेष अर्थ गम्भीरता होती है।
आपने प्रायः सेहरे लिखे हैं। ___उनकी उर्दू-हिन्दी मिश्रित एक धार्मिक रचनाके कुछ अंश यहाँ दिये जा रहे हैं। दूसरी कविता 'यह बहार' उर्दू-शैलीको सुन्दर रचना है, जो एक सेहरेका अंश है। .
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धर्मका मर्म (इस कविताकी वहर उर्दूक वजनपर है) भगवन ! मुझे रास्ता बता दे,
ज्योति टुक ज्ञानकी दिखा दे, चिरकालसे बुद्धिपर है परदा
जल्दी गुरुदेव वह हटा दे। कर्मोने किया खराव-खस्ता,
चरणोंमें पड़ा हूँ दस्तवस्ता , वेखुद मैं खुदीमें हो रहा हूँ,
परमात्मा हूँ पै सो रहा हूँ। इस नींदकी आदि तो नहीं है,
पर अन्त है इसका यह सही है , पत्थरमें छिपी है आत्म-ज्योति,
पाषाणसे अग्नि पैदा होती। फूलोंमें खिली है आत्म ज्योति,
वृक्षोंमें फली है अात्म ज्योति , अज्ञानका वस पड़ा है ताला,
ज्ञानीने है उसे तोड़ डाला। चारित्रसे रास्ता सुगम है,
चलना न बहुत है, वल्कि कम है , आगमने जो मुझको सिखाया, -
है मैंने यहाँ वह कह सुनाया। गुरुदेवसे जो मिला है परसाद,
देता है वही 'अजित परसाद' ।
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यह बहार
[ तेहरेका एक अंश ]
फ़स्ल-ए-बहार याती है हर साल नित नई ! दिखलाती है वहार वह हर साल नित नई ॥ पर वकी सालकी तो अनोखी ही ज्ञान है । देखी कभी न पहले वह अव ग्रान बान है ॥ जाड़ेनं खूब लुत्फ़ दिखाया था ठंडका | अकड़ा था ऐसा नया ठिकाना घमण्डका ॥ संग्रेज़ा किटकिटा रहा वत थर थरा रहा । पारा मुकड़के तीनमे नीचे था या रहा || अंगारा राखमें था मुँह अपना छिपा रहा । चेहरे पे आफ़तावके परदा सा छा रहा || आते ही वस वसन्तके नक्शा वदल गया । वस अन्त जाड़ेका हुआ उनका श्रमल गया || खोंमें सबकी रंग समाया वसन्तका । साफ़ा वसन्ती और दुपट्टा वसन्तका
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X
X
दूल्हा दुल्हनकी जोड़ी विधाताने जोड़ी है । दोनों हैं वे-मिसाल क्या यह वात थोड़ी है ॥ जत्र तक जमीं फ़लक रहे जोड़ी बनी रहे । वने वनीमें खूब मोहव्वत वनी रहे ॥
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( एक विवाहोत्सवयर पठित)
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श्री कामताप्रसाद जैन
श्री कामताप्रसादजीका जन्म सन् १९०१ में सीमाप्रान्तके प्रमुख नगर कैम्पवेलपुर (छावनी)में हुआथा। आपके पिताश्री ला० प्रागदासजी वहाँ सरकारी फौजमें खजांची थे। वैसे वह अलीगंज, जिला एटाके रहनेवाले हैं। यद्यपि आपका वाल्यजीवन पेशावर, मेरठ और हैदराबाद सिंवमें बीता, और आपका अध्ययन मैट्रिक तक ही हो सका; परन्तु आपमें ज्ञानपिपासा और धर्म-जिज्ञासा जन्मजात हैं, जिनके कारण आपका ज्ञान और अनुभव उल्लेखनीय है । आप जैन इतिहास और तुलनात्मक-धर्मके प्रामाणिक विद्वान् और सुलेखक है। आपकी विद्यापटुता और बहु-श्रुत-ज्ञान को लक्ष्य करके "जैन एकेडेमी ऑव विजडम ऐंड कलचर" करांचीने "डॉक्टर ऑव ला"को सम्माननीय उपाधिसे आपको अलंकृत किया था। आपका साहित्यिक जीवन स्व० श्री ब्रह्मचारी शीतलप्रसादजीकी प्रेरणाका सुफल है । अापने 'भगवान महावीर' नामक पुस्तकको रचनासे प्रारम्भ करके अब तक लगभग ३०-४० पुस्तकें लिखी हैं। हिन्दी और अंग्रेजीके सामयिक-साहित्य-सिरजनमें भी आप सतत उद्योगी रहते हैं। आपने "जैन इतिहास"को पाँच भागोंमें लिखा है, जिसमें ३ भाग "संक्षिप्त जैन इतिहास" के नामसे 'श्री दि० जैन पुस्तकालय', सूरत द्वारा प्रकाशित हो चुके हैं। अभी हालमें श्रापका हिन्दी जैन साहित्यका इतिहास' नामक बृहद् . निबन्ध 'श्री भारतीय विद्याभवन', बम्बई द्वारा चालित अखिल भारतीय सांस्कृतिक निवन्ध प्रतियोगितामें पुरस्कृत हो चुका है-उसपर आपको रजतपदक प्राप्त हुआ है। यह सुन्दर रचना भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा प्रकाशित हो रही है। 'भ० महावीरकी शिक्षाएँ' नामक निवन्धपर आपको "यशोविजय ग्रन्थमाला, भावनगर से सुवर्णपदक प्राप्त हो चुका है।
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आपकी अन्य रचनाएँ भी पुरस्कृत हुई हैं। आपकी एक विशेषता रही है कि साहित्यरचना करना आपके निकट एक धर्म-कृत्य मात्र रहा है।
आपकी पुस्तकोंका अनुवाद गुजराती, मराठी और फनड़ी भाषाओं में हो चुका है। अंग्रेजीमें भी प्रापने दो-तीन पुस्तकें लिखी हैं। श्राप "जैन सिद्धान्त-भास्कर"के सम्पादक हैं और भा० दि० जैन-परिषद्के मुख पत्र 'वीर'का तो उसके जन्मकालसे ही सम्पादन कर रहे हैं । आपका
रा समय सार्वजनिक कार्योंमें ही प्रायः बीतता है। अलीगंजमें आप राजमान्य ऑनरेरी मैजिस्ट्रेट और असिस्टेंट कलक्टर भी हैं। अनेक सभा-समितियोंके सभासद और मन्त्री भी हैं।
श्री कामताप्रसादजी 'कवि'की अपेक्षा कविताको प्रेरणा देनेवाले साहित्यिक अधिक है। आपने 'वीर' द्वारा अनेक लेखकों और कवियोंको प्रोत्साहन दिया है। आपने कवितावद्ध कम्पिला तीर्थको पूजा और जैनकथाएं भी लिखी हैं । इन्होंने 'वृहद् स्वयंभूस्तोत्र का पद्यानुवाद किया है।
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वीर-प्रोत्साहन अब उठो, उठो हे तरुण वीर ,
कर दो जगको तुम अभय वीर ! वह देखो, नव ऋतुराज साज, नव तरु विकसित पल्लव पराग ; जीवन-जागृति-ज्योती-अपार, चमके अव जगके द्वार द्वार !
अव जगो, जगो तुम धीर वीर ! प्राची दिशके तुम तेज राशि, भर दो जगमें तुम नव प्रकाश ; कर दो दुख वर्वरता विनाश, थिरके ज्यों घट-घटमें हुलास।
___अब बढ़ो, बढ़ो साहस गंभीर !' हे वीर-भूमिको सुसन्तान, हे चन्द्रगुप्त-गौरव-वितान; राणा प्रतापकी अतुल शान, वन जानो अब तुम विश्व-त्राण ।
अव हरो, हरो दुख दर्द पीर ! कर दृढ़ असि गहकर करुण वार, निर्वैर युद्ध कर क्षमाधार; आ गया शत्रु, अव देख द्वार, प्रलयंकर मद कर क्षार-क्षार ।
अव चलो, चलो तुम रण सुधीर ; अव उठो- उठो हे तरुण वीर !
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जीवनकी झांकी
'जीवनकी है अकथ कहानी ;
है किन देखी; है किन जानी ? मधुर-मधुर अरु विपम-विपम-सी सरस - विरस अरु सुखद-दुखद भी ; सित-तम-पक्ष विलोके ना जी , निरखे नित ही वह मनमानी ;
किन यह जानी प्रकृति निशानी ?
किन यह जानी, किन यह मानी ?? नभमें तारा झिलमिल चमके ; चातक चन्द्र चाँदनी मोहे , रवि शिशु उपा-अंकमें सोहे , गंगकी धार वहे नित पानी !
किन यह ध्रुवलीला पहिचानी ?
किन है जानी, किन है मानी ?? जल-बुद-बुद-सम विभव प्याली; क्यों पीवे तू यह मतवाली ? सुव न रहे वुव पिय विसरावे ! विरह विपय चहुँ गति अकुलानी !!
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किन यह जानी ! भेद विज्ञानी ! किन है ठानी, किन है मानी ?
रति - रस- रच रसना मतवाली, मधुवृज पगी तृषा न शमी री ; यम प्रहार छूटी वह सारी, केवल रह गया चित् विज्ञानी !
किन यह भेद - दशा पहिचानी ? किन यह जानी, किन यह मानी ??
दुग-ज्ञान-चरण समता धर वे ! वीर - विजय- धन ममता हर वे !! चतुर विवेकी नर वे ज्ञानी ! जिन यह देखी, जिन यह जानी !!
उन सम नहि है और विज्ञानी ! उनने जानी, उनने मानी ! !
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जीवनकी है अकथ कहानी !
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पंडित परमेष्ठीदास ' न्यायतीर्थ'
श्राप जैन समाजके युवक हृदय गम्भीर विद्वानों से हैं । श्रापने जैन- दर्शन श्रीर जैन साहित्य के मननके साथ-साथ हिन्दी भाषाके प्राचीन' और अर्वाचीन साहित्यका अच्छा श्रध्ययन किया है । आपकी प्रतिभा समालोचनाके क्षेत्रमें विशेष रूपसे सजग श्रीर सफल है । आपने जैनशास्त्रोंका मौलिक दृष्टिकोणसे श्रध्ययन किया है, और निर्भीकतासे उसका प्रतिपादन किया है । इनके विचार उग्र हैं; श्रोर जीवन सदा कर्तव्य-रत । समाज-सुधार और देशोन्नतिके लिए श्राप श्रौर श्रापको धर्मपत्नी सौ० कमलादेवी 'राष्ट्रभाषा कोविद', जो हिन्दीको सुकवियित्री भी हैं, अपना जीवन अर्पण किये हुए हैं । यह दम्पति स्वदेश प्रान्दोलनमें जेल यात्रा. कर श्राया है ।
श्रापकी लिखी हुई पुस्तकों - 'विजातीय विवाह मीमांसा', 'सुधर्मश्रावकाचार समीक्षा', 'दान-विचार समीक्षा' प्रोर 'जैनधर्मकी उदारता', श्रादि-ने श्रनेक विषयोंपर मौलिक प्रकाश डालकर समाजके विद्वानोंको नये चिन्तन र मननकी सामग्री दी है । श्राप जैनधर्मको ऐसे व्यापक रूपमें देखते हैं और उसे युक्ति तथा श्रागमसे इस प्रकार प्रमाणित करते हैं कि उसका भगवान् महावीर द्वारा मानव-धर्मके रूपमें प्रतिपादन या प्रतिष्ठापन स्वतः सिद्ध प्रतीत होने लगता है ।
श्रापका एक कविता-संग्रह 'परमेष्ठी-पद्यावलि' नामसे छपा है । श्रापकी रचनाएँ जनता और वर्गमें धार्मिक भावनाएँ और सामाजिक सुधार प्रोत्साहित करनेके लिए श्रच्छा साधन बनी हैं। साहित्यिक मूल्यकी अपेक्षा उनका सामाजिक मूल्य अधिक है ।
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महावीर - सन्देश
धर्म वही जो सब जीवोंको भवसे पार लगाता हो ; कलह द्वेष मात्सर्य भावको कोसों दूर भगाता हो । जो नवको स्वतन्त्र होनेका सच्चा मार्ग बताता हो ; जिनका आश्रय लेकर प्राणी सुख समृद्धिको पाता हो । जहाँ वर्णसे सदाचारपर अधिक दिया जाता हो जोर ; तर जाते हों जिसके कारण यमपालादिक अंजन चोर ।
जहाँ जातिका गर्व न होवे और न हो थोया अभिमान ; वही धर्म हैं मनुज मात्रका हों जिसमें अधिकार समान । नर नारी पशु पक्षीका हित जिसमें सोचा जाता हो ; दीन हीन पतितोंको भी जो हर्प सहित अपनाता हो । ऐसे व्यापक जैन धर्मसे परिचित हो सारा संसार ; धर्म शुद्ध नहीं होता है, खुला रहे यदि इसका द्वार । धर्म पतित पावन है अपना निश दिन ऐसा गाते हो ; किन्तु बड़ा ग्राश्चर्य आप फिर क्यों इतना सकुचाते हो । प्रेम भाव जगमें फैला दो, करो सत्यका नित व्यवहार ; दुरभिमानको त्याग हिंसक वनो यही जीवनका सार ।
वन उदार ग्रव त्याग वर्म फैला दो अपना देश विदेश - "दास" इसे तुम भूल न जाना, है यह महावीर-सन्देश |
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प्रगति प्रेरक
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श्री कल्याणकुमार 'शशि'
कविताके नये युगमें जिन कवि-हृदयोंने समाजमें प्रगतिको प्रेरणा दी, उनमें युवक कवि श्री कल्याणकुमारजी 'शशि' निःसन्देह प्रधान हैं । आज लगभग १५ वर्ष से 'शशि'जी काव्य-साधना कर रहे हैं; और उनकी प्रतिभा उत्तरोत्तर विकासकी ओर उन्मुख है । उन्हें आप कोई सा विषय दे दीजिए, वह अपनी भावुक कल्पना द्वारा सहज काव्य-सृष्टि करके उस विषयको चमका देंगे । कविका कार्य समाजके जीवनमें प्रवेश करके उसको साथ लेकर, उसे श्रागे बढ़ाना होता है । 'शशि'ने उत्सवोंके लिए धार्मिक पद रचे, फंडेके लिए गीत बनाये, महापुरुषोंकी जीवनियोंपर भावपूर्ण कविताएं लिखीं और समाजके नये भावोंको नई वाणी दी ।
अब वह कई पग आगे बढ़ गये हैं । श्राज उनके गीतोंमें विश्वका आकुल अन्तर बोल रहा है । वह कल्पनाको उत्तेजित कर, अलङ्कारकी सृष्टि नहीं करते; श्राज तो उनका हृदय वर्त्तमानको देखकर ही भावाकुल हो उठता है । वह अपनी नैसर्गिक प्रतिभाके बलपर भावोंको गीत-बद्ध कर देते हैं । हाँ, वह भाषाका लालित्य और भावोंको सुकुमारता जागरणके वज्रघोषी गीतमें भी क़ायम रख सकते हैं ।
जब हमने 'शशि' से प्रामाणिक परिचय माँगा, तो लिख भेजा" मेरा परिचय कुछ नहीं है । मार्च १९१२ का जन्म है । व्यापार करता हूँ-गरीब श्रादमी हूँ; बस यही !"
यह 'गरीब आदमी' कविताके जगत् में श्राज सारी समृद्ध जैन- समाजकी निधि है ।
श्री कल्याणकुमार 'शशि'ने जैन- महिलाओं की कविताओंका सुन्दर संग्रह 'पंखुरियाँ' नामसे प्रकाशित किया है। आपकी अनेक स्फुट, रचनाएँ पुस्तकाकार छप चुकी हैं। आप रामपुर ( रियासत ) में व्यापार कार्य करते हैं ।
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रणचण्डी
जागो,
जगकर आज गान
हे कवि-वाणी, कुछ गाओ !
अग्नि-युद्ध में, हा, वू-धूकर मानव जलता छाई रोम-रोममें दुनियाके व्याकुलता, बढ़ा ग्रा रहा बुद्धिवाद मानवको दलता
}
बहुत हुआ, ग्रव यह भीषण-पट परिवर्तन कर जानो ।
नाच रही है उच्छृङ्खल रक्तिम रणचंडी, लाल रक्तने लथपय वन, उपवन, पग-डंडी, बीहड़ में जयकेतु उड़ा खुग युद्ध घमंडी
दानवताका गर्व चुरकर इसमें मानव लाम्रो ।
T
केवल मेरी सत्ताकी माया मरीचिका,
उगा रही है पग-पगपर भीषण विभीषिका,
प्यासा यह नर-यल, भयंकर रक्त-नीतिका
इसे रक्तकी जगह प्रेमका पुण्य - पियूष पिलाओ।
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विश्रुत जीवन
नई लहरने वदल दिया है
मेरा सञ्चित जीवन ;
नए रूपमें नए रंगमें
हुआ
पल्लवित मधुवन ;
अभिमंडित हो उठा आज
विश्रुत जीवनका कण-कण, यह प्रसिद्ध हैं, किस भविष्यपर दौड़ रहा यह क्षण-क्षण |
उर कहता है, कुछ खोया है
मन कहता है . पाया ; उद्वेलित कर रही नित्य यह
उभय
पक्षकी माया ।
विश्व और मैं और हुआ
क्या देख रहा हूँ सपना ?
ग्रह, यह लो निमेषमें ही
सव बदल गया जग अपना ।
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गीत
लय गीत मवुर, लय गीत मधुर ! है, है कवि, तेरी मदिर ताल , झंकृत वीणाकी ध्वनि विशाल , मैं सुनकर आज हुआ निहाल , हाँ, हाँ, फिर गा दे एक बार
वह गीत प्रत्रुर ! सन्निहित जगतका उदय अस्त , तेरी वह मादक ध्वनि प्रशस्त , मेरा जंगम जग अस्त-व्यस्त , वनकर स्वर लहरी मचल उठे,
फिर वह आतुर ! हो पुनः तरंगित गीत रम्य , अपवाद आज फिर हो अगम्य , हो अन्त रहित यह तारतम्य , वीहड़में कुछ लहलहा उठे
वन प्रेमांकुर ! ले मिला मिलाया सफल आज , विर लहरी गूंजे पुनः अाज , निर्माण नया हो स्वप्नराज , हो आलोकित मेरा निगान्त
- जग अन्तःपुर !
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गायन-सी हो गुंजायमान, छा जाये नभपर बन अम्लान, थिरके चंचल हो सुप्त प्राण,
गत वर्तमान जोड़े भविष्यको
वन लय - सुर !
अह, छेड़ रहा है मुझे कौन ! लय भंग हो गया यदपि, तो न
मुखरित होगा मन्दायु मौन,
रे, अभी भविष्यत् और शेष है वन न निठुर !
बस, बन्द करो अस्थिर निनाद,
ले लो तुम यह चिर आह्लाद,
में लूंगा मादकता प्रसाद, में अमर हुआ, गत हुआ नाद यह क्षण-भंगुर !
,
जो सरस प्रेमसे रहा सींच उसको मेरे करसे न खींच, अवलोक रहा हूँ नेत्र मींच,
में अन्तहित हूँ दृश्यमान
BY
छवि म्लान मुकुर
७१
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!
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हाँ, अव चमका मेरे समीप
वह प्राणमयी निर्माण दीप
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में हुआ अजर जगका महीप,
अव कुछ न सुनूंगा राग भंगकर ओ सुकवि, चतुर !
शत शत शताब्दियोंका श्मशान,
हो उठा ग्राज फिर मूर्तिमान,
लुट चला विश्वमें प्रेम दान,
,
लय खेद हुआ, गत भेद हुए किन्नर, नर, सुर !
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७२
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श्री भगवत् स्वरूप भगवत्'
साहित्यके प्राकाशमें इस नक्षत्रका उदय अभी कुछ वर्ष पहले ही हुआ है। पर पाते ही इसने जनताकी दृष्टि अपनी ओर खींच ली; क्योंकि इस नक्षत्रमें अनुपम प्रकाश है, ज्वाला है और साथ ही है एक अपूर्व स्निग्धता।
'भगवत्' जी कवि हैं, कहानी-लेखक हैं और नाटककार हैं-खूबी यह कि जो कुछ लिखते हैं प्रायः बहुत ही सुन्दर होता है। आपकी कविता नितान्त आधुनिक ढंगकी है-वह युगसे उत्पन्न हुई है और युगको प्रतिध्वनित करती है। वर्तमान मानव-समाजका ढांचा जिन आर्थिक और सामाजिक सिद्धान्तोंपर खड़ा हुआ है, वह जन-समूहके लिए निरन्तर संकट और संघर्षको वस्तु बने हुए हैं। प्रापका कवि संघर्षसे जूझ रहा है। 'भगवत्' अपनी कवितामें उसी संघर्षका प्रतिनिधित्व करके हमारी सामाजिक चेतना-धाराको विश्व-व्यापी मानवचेतनाकी महापारासे जोड़नेका प्रयत्न कर रहे हैं। वह कहते हैं:
"कर्मक्षेत्रमें उतर रहा हूँ, लेकर यह अभिलाषा:
समझ सके संगठन शक्तिकी, जनता अव परिभाषा।" आपकी भाषा बहुत ही स्वाभाविक होती है । नाटकोंमें पाप विशेष रूपसे ऐसी भाषाका प्रयोग करते हैं जो आम लोगोंकी समझमें आ जाये।
अब तक आपको निम्नलिखित रचनाएँ प्रकाशित हो चुकी हैंउस दिन, मानवी (कहानियाँ), संन्यासी (नाटक), चांदनी
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(कविता-संग्रह), समाजकी प्राग (नाटक), चूंघट (प्रहसन), घरवाली (व्यङ्ग काव्य), भाग्य (नाटक), रसभरी (कहानियाँ), प्रात्मतेज (स्वामी समन्तभद्र), त्रिशलानन्दन, जय महावीर, फल-फूल, झनकार, उपवन-अन्तिम पाँचों गीत हैं।
आप ऐतमादपुर (आगरा)के रहनेवाले थे; और सन् १९२४-२५से लिख रहे थे।
खेद है कि भगवत्जी' अपने पीछे अपनी विधवा पत्नी और तीन पुत्रियोंको विलखते छोड़कर ६ सितम्बर सन् १९४४को दिवंगत हो गये।
आपकी अब तक १६ पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।
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आत्म-प्रश्न
मैं हूँ कौन, कहाँसे ग्राया ?
महाशोक हैं, मानव कलाकर भी इतना जान न पाया । स्वर्ण छोड़ पीतलपर रीझा,
सुधा त्याग पी लिया हलाहल ;
चला वासनाओं के पथपर
,
इतना रे, भरमा श्रन्तस्तल ।
सच्चे सुखका स्वप्न न देखा, दुखपर रहा सदा ललचाया । अपने भले-बुरेकी मैंने समालोचना भी कवकी है ?
श्रात्मिक निर्बलता भी मुझको, नहीं कभी मनमें खरी है ।
'जीवन' भूला रहा, मृत्युको अविवेकी होकर अपनाया ! काश, टूट जाता भीतरसे,
मोह श्रीर मायाका नाता ;
"
तो अपने सुख-दुखका में था उत्तर - दाता भाग्य-विधाता ।
किन्तु गुलामीने हैं मुझको ऐसा गहरा नगा पिलाया ।
एक-एक कर चले जा रहे, दिन जीवनको हँसा रुलाकर ; विघ्न वादलोंमें लिपटा है, इधर मृतक - सा ज्ञान- दिवाकर ।
सूझ न पड़ता ग्रन्वकारमें, क्या अपना है कौन पराया !
मैं हूँ कौन कहाँसे प्राया ?
/
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सुख-शान्ति चाहता है मानव पीड़ाकी गोदीमें सोया,
खेला दिलके अरमानोंसे , विहँसा तो हाहाकारोंमें,
रूठा तो अपने प्राणोंसे । आध्यात्मिक पथपर बढ़नेको,
अव क्रान्ति चाहता है मानव । सुख-शान्ति० सव देख चुका नाते-रिश्ते,
अपनोंको भी देखा-परखा , सुखके साथी सव दीख पड़े,
दुखमें न कोई बन सका सखा। दुनियाके दुखसे दूर कहीं
एकान्त चाहता है मानव !! सुख-शान्ति. प्रोत्साहनके दो शब्द मिले
- आशीष मिले स-करुण मनकी, प्राणोंमें जागें नये प्राण
भर दें जो लहर जागरणकी। जीवन रहस्य समझा दें वह
दृष्टान्त चाहता है मानव । सुख-शान्ति० जीये तो जीये ठीक तरह
मुरदापन लेकर लजे नहीं , मानव कहलाकर दीन न हो
श्री मानवताको तजे नहीं। इसपर भी आ बनती है तव प्राणान्त चाहता है मानव ।
सुख शान्ति चाहता है मानव ।
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मुझ न कविता लिखना आता
मुझे न कविता लिखना आता , जो कुछ भी लिखता हूँ उससे केवल अपना मन बहलाता ।
मुझे न कविता लिखना आता ॥ कवि होनेके लिए चाहिए जीवनमें कुछ लापरवाही , घनी हो रही मेरे उरमें चिन्ताओंकी काली स्याही , मुझ जैसे पत्थरसे है फिर क्या कोमल कविताका नाता?
मुझे न कविता लिखना आता ॥
प्रखर दृष्टि कविकी होती है प्रकृति उसे प्यारी लगती है , पाता है आनन्द शून्यमें क्योंकि वहाँ प्रतिभा जगती है, हाहाकारोंका मैं वन्दी क्षण-भरको भी चैन न पाता।
__ मुझे न कविता लिखना आता ॥ धुंधले दीपकके प्रकाशमें लिखी गई मेरी कविताएं, क्या प्रकाश देंगी जनताको इसको जरा ध्यानमें लायें, मैं इन सबको सोच-सोचकर मनमें हूँ निराश हो जाता।
मुझे न कविता लिखना आता ॥ कविता क्या है अब तक मैंने इसे न अपने गले उतारा , विमुख दिशाकी और वह रही है मेरे जीवनको धारा , किन्तु प्रेम कुछ कवितासे है अतः उसे जीवनमें लाता ।
मुझे न कविता लिखना आता ॥
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एक प्रश्न
क्यों दुनिया दुखसे डरती है ? दुखमें ऐसी क्या पीड़ा है, जो उसकी दृढ़ता हरती है ? हैं कौन सगे, हैं कौन गैर, कितने, क्या हाथ बटाते हैं , सुखमें तो सब अपने ही हैं, दुखमें पहचाने जाते हैं, 'अपने' 'पर'की यह वात सदा दुखमें ही गले उतरती है ,
___क्यों दुनिया दुखसे डरती है ? दुखमें ऐसा है महामन्त्र जो ला देता है सीधापन , सारे विकार सारे विरोध तज,प्राणी करता प्रभु-सुमिरन , हर साँस नाम प्रभुका लेती, भूले भी नहीं विसरती है ,
क्यों दुनिया दुःखसे डरती है ? दुनियावी सारे बड़े ऐव, दुखियाको नहीं सताते हैं, सुखमें डूबे इन्सानोंको वेशक हैवान बनाते हैं, दुख सिखलाती है मानवता, जो हित दुनियाका करती है ,
__ क्यों दुनिया दुखसे डरती है ? पतझड़के पीछे है वसन्त, रजनीके बाद सवेरा है , यह अटल नियम है उद्यमके उपरान्त सदैव बसेरा है , दुख जानेपर सुख पाएगा, सुख-दुख दोनोंकी धरती है ,
क्यों दुनिया दुखसे डरती है ?
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श्री लक्ष्मीचन्द्र जैन, एम० ए०
आप अंग्रेजी और संस्कृत, दोनों विषयोंके, एम० ए० हैं। इन्हें साहित्यके प्रायः सभी युगों और क्षेत्रोंसे परिचय है और संस्कृत, हिन्दी, अंग्रेजी उर्दू और बंगला साहित्यके वालोचनात्मक अध्ययनमें विशेष रुचि है। ___ इनके हिन्दी और इंग्लिगके गद्यलेख-भाषा, भाव और शैलीमेंबहुत सुन्दर होते हैं। श्राप जव देहली और लाहौरमें थे तो ऑल इन्डिया रेडियोसे आपके भाषण, साहित्यिक पालोचनाएँ और कविताएँ प्रायः ब्रोडकास्ट होती रहती थीं।
अापके कवि-जीवनका परिचय श्री कल्याणकुमार 'शशि'के शब्दोंमें इस प्रकार है___"श्राप समाजके ही नहीं, वरन् देशके उभरते हुए उज्ज्वल नक्षत्र हैं। आप बहुत ही सरल स्वभावी और मौन प्रकृतिके जीव हैं। और पत्रोंमें नहींके बरावर लिखते हैं। इसीलिए सुदूर वनस्थलीके सुकोमल नीड़ोंमें गुंजरित होती हुई, हृदयको नचा-नचा देनेवाली कोयलकी कूक हमें सुननेको नहीं मिलती। आप अपने विषयके चित्रमें प्रतिभाकी बड़ी वारीक कूचीसे रंग भरते हैं। श्रापकी कवितामें 'पन्त' जैसी कोमलताका दिग्दर्शन मिलता है। सम्भवतः किसी-किसी कविताम तो ऐसी अनुभूति होने लगती है कि मानो इन्होंने प्रकृतिको प्रात्मासे साक्षात्कार करके ही उसका वर्णन किया हो।"
पहले श्राप लाहोरमें भारत इन्श्योरेंस कम्पनीके पब्लिसिटी-ऑफिसर और अंग्रेजी पत्र 'भारत मैग्जीन के सम्पादक थे। आजकल आप डालमियानगरमें दानवीर साहू शान्तिप्रसादजीके सक्रेटरी और डालमिया जैन ट्रस्टके मन्त्रीके पदपर हैं। अापकी धर्मपत्नी श्री कुन्यकुमारी जैन वी० ए०, (ऑनर्स) वी० टी० सुसंस्कृत और प्रतिभासम्पन्न प्रादर्श महिला हैं।
- ७९ -
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कोई क्या जाने, कोई क्या समझे ? '
प्रेमी
प्रीतिमगे
मनको
कोई क्या जाने, कोई क्या समझे !
कविके पागलपनको
कोई क्या जाने, कोई क्या समझे !
भावुक
उन्मत्त हृदयकी थिरकनको,
नत कुलके
नयनोक
तेरे
अवर प्रकम्पनको
निमन्त्रणको
मूक कोई क्या जाने, कोई क्या समझे !
अति कुटिल गरलमें बुझी हुई
अति सरल, सुवाने सींची सी मद-भरी अनोखी चितवनको
कोई क्या जाने, कोई क्या समझे ! -रे कीट, ज्योतिका इक चुम्बन,
उसपर प्राणोंकी बाजी ? आत्म-विसर्जनको
कोई क्या जाने, कोई क्या समझे !
श्रांत-मिचौनीको
-सुख-दुखकी
-इस
नक्की
स्वप्न-मरीले
"
SO
होनी-अनहोनीको
जीवनको
कोई क्या जाने, कोई क्या समझे !
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'कुहू कुहू फिर कोयल बोली मन्द समीरणके पंखोंपर, बैंठ, उड़े उसके आतुर स्वर, विकल हया तरु-तरुपर मर्मर, मंजरियोके स्वप्न मधुरतर,
___ भंग हुए, जव शाखा डोली । 'कुहू कुहू.' उरमे अमिट पिपासा लेकर, घूम रहा अति प्राकुल-पातुर, कली-कलोके द्वार-द्वारपर, रोते अधरों रोता मधुकर,
गान समझती दुनिया भोली ! 'कुहू कुहू.' थाई कूक अवनि अम्बरपर, उठी हूक-सी, गरजा सागर, द्रवित हुए गिरि-पाहनके तर, निःश्वासोंसे निकले निर्भर,
विकल व्यथाने पलकें खोली। 'कुहू कुहू.' उरमें किसकी याद छिपाकर, रोती है तू कर ऊँचा स्वर, मचल उठा क्यों मेरा अन्तर, इन आँखोंमें पा नव निर्भर,
तूने उरकी पीड़ा घोली। 'कुहू कुहू' फिर कोयल बोली।
- ८१ - .
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मैं पतरकी सूखी डाली
चौराहे पर पाँव जमाये, भूतों-सा कंकाल बनाये 2. सूखा पेड़ खड़ा मुँह वाये, जो लम्बी बाहें फैलाये,. मैं उसकी हूँ उँगली काली ; मैं पतझरकी सूखी डाली । झर झरकर फल-पत्ते छूटे, लुटा रूप रस पंछी रूठे, युग-युगके गठबन्धन टूटे, बिन अपराध भाग क्यों फूटे ?
सूखे तन, भूखे मनवाली
,
मैं पतझरकी सूखी डाली ! फैला केश रात जब रोती, नभकी छाती धक-धक होती सन्नाटे में दुनिया सोती, मैं उल्लूका बोझा ढोती
,
ताली ;
डाली !
वह गाता में देती मैं पतझरकी सूखी
1
जो जगकी बातोंपर जाऊँ, एक साँसमें ही मर जाऊँ, मैं न किन्तु वह, जो डर खाऊँ, जीवनके नूतन स्वर गाऊँ
,
'अजर, अमर, मैं प्राशावाली' ;
मैं पतझरकी सूखी डाली !
पतझर कितने दिनका भाई, सुनो, पवन सन्देशा लाई, अम्वरपर छाई अरुणाई, लो, वसन्तकी ऊषा श्राई,
भूलेगा न मुझे वन- माली ;नहीं रखेगा सूखी डाली ।
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सजनि, आँसू लोगी या हास ?
नील अंचलमें छिप चुप-चाप , वियोगी तारे तकते राह , निराशाका पा अन्तिम ताप , वरस जाती आँसू बन 'चाह' !
कलीकी बुझती इससे प्यास सजनि ! आँसू अच्छे या हाम ?
कनक-करसे फैला उल्लास , झूमती मलयानिलमें झूल , चूमती जब ऊपा सविलासमुस्करा उठते सोये फूल !
धरापर छा जाता मधुमास , सजनि, कितना मादक है हास !
'मिलन' हँस हँस विखराता फूल , 'विदा' रो पोती मोती-माल , मुमनमें दोनोंके हैं शूल , मुझे दोनोंपर आता प्यार !
भेट-हित दो ही निधि हैं पास , सजनि, आँसू लोगी या हास?
- ८३ -
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श्री शान्तिस्वरूप, 'कुसुम'
श्री शान्तिस्वरूप 'कुसुम'को काव्य-रचनाके लिए जन्म-जात प्रतिभा मिली है। आपका जन्म १५ अक्तूबर सन् १९२४को धनोरा (मेरठ)में हुआ। आपने हाई स्कूल तक ही शिक्षा प्राप्त की है, और प्राजकल सहारनपुरमें इम्पीरियल बैंकमें खजांची हैं।
__आपको हिन्दी साहित्यसे वचपनसे ही अनुराग रहा है और स्वतः स्फूतिसे प्रेरित होकर अापने कविता-रचना प्रारम्भ की है। थोड़े ही समयमें आपने इस दिशामें बहुत उन्नति कर ली है और भविष्यमें आप निःसन्देह हिन्दी कवि-समाजमें विशेष गौरव और पादरका स्थान प्राप्त कर सकेंगे। ___ आपके गीतोंमें उच्च कला, सफल सौन्दर्य और अभिनव सरसताके दर्शन होते हैं। इनकी कविता प्रवाह होता है जो इस बातका प्रमाण है कि कविता और कविताको शब्द-योजना हृदयके स्पन्दनसे उत्पन्न हुई है और वह निर्भरकी तरह प्रकृत्रिम धाराके रूपमें बह रही है।
'कुसुम'का भावुक हृदय, वेदनाके हलके-से आघातसे भी झनझना उठता है। पर, शायद वह निराशावादी नहीं हैं।
भविष्यमें प्रगतिको जो वाञ्छनीय रूप लेना है उसके प्रति कुसुम-जैसे उठते हुए कवि-कलाकारोंका विशेष उत्तरदायित्व है।
हिन्दी साहित्यको श्री शान्तिस्वरूप 'कुसुम'से भविष्यमें बहुत आशाएं हैं।
- ८४ -
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•
कलिका के प्रति
हो कितनी सुकुमार सलीनी, कलिके, प्रेम सनी-सी ;
अन्तरमे रंग भरे अनूठा, जीवन-ज्योति धनी-सी ।
इन मादक घड़ियोंमें अपने यौवनं सकुचाती ; कुछ-कुछ खिलती-सी जाती हो, अवनत नयन लजाती । मृदु चितवनसे प्राकपित शत-शत युवकोंने देखा ; मधुर रँगीली-सी प्रांखोंमें, उन्मादक-सी रेखा । यौवनके स्वणिमते युगमें यह कुंकुम-सी काया ; तैर रही जीवन सागरमें वनकर मोहक माया ।
पर पह्नुरियोंके समीपतर इन शूलोंका रहना ; खटक रहा प्रतिपल, सुन्दरि, सचमुच ही तू सच कहना । इन लियोंके मोह जालमें तनिक न तुम फँस जाना ; लोलुप मधुके मधुर प्रेमका, केवल, सजनि, बहाना । इनकी प्रीति क्षणिक है, पगली, सरस देख आ जाते ; रम रहने तक मौज उड़ाते, नीरस कर उड़ जाते । मैं भी कभी कली थी सुन्दर, यों ही मुसकाती थी ; शैशवके मद भरे प्रातमें मञ्जु गीत गाती थी । प्राती मलयवायु थी मुझमें, दुख भर-भर जाती थी ; उपा अरुणिमा देती, संध्या, दुख भर ले जाती थी ।
तव इन मधुपोंने या प्रेम डोरके वन्धनमें
मुझको मधुमय गीत सुनाया ; कस, अपना जाल बिछाया ।
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लूटी मधुमय मवुऋतु मेरी, छलनी हृदय किया है ; इस जीवनमें सुखके बदले दुखका निलय दिया है। मुझपरसे अब तुमपर जा, तुमसे जा और किसीपर; वों ही उड़ जायेंगे हनकर, अपनी मनमानी कर । निष्ठुर जगकी रीति यही है, 'सुखमें साथी' बनना ; मुन्न रहने तक साथ निभाना, दुखमें छोड़ विछुड़ना । यौवन-दीप बुझाकर तेरा स्वार्य-भरे ये नारे; तुझे चिढ़ाकर झूम उठेंगे, ले-ले पवन मनोरे । वासन्तीकी मधु छायामें, सुमुखि, प्रेम भूलो ; रस बरसाती रहो निरन्तर, मुक्त पवनमें फूलो। शूल तुम्हारे जीवन साथी, इनसे नेह लगायो ; इन काले-काले भौरोंको, कांटे चुमा उड़ानो।
कुछ भी न समझ पाताहूं मैं, जगकी या मेरी ग़लती है !
मैं सुख भोगूं या दुख भोगूं, दुनिया क्या जहर उगलती है; कृछ नी न समझ पाता हूँ मैं, जगकी या मेरी गलती है। मैं पन्य पुराना छोड़ चुका, मर्यादा वन्धन तोड़ चुका ; दुनियासे तो रिस्ता ही क्या, अपनो नो मुंह मोड़ चुका । फिर क्रूर निगाहें रह-रहकर क्यों मेरे भाव मसलती हैं; कुछ भी न समझ पाता हूँ मैं, जगकी या मेरी ग़लती है।
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अब एक निराला जीव बना, जीवन में कहीं न उलझन है ; में है, मदिरा है, साक़ी है, साक्रोवालाकी रुनभुन है । में सबसे खुश हूँ दुनियाको, मेरी सत्ता क्यों खलती है। कुछ भी न समझ पाता है मैं, जगकी या मेरी ग़लती है ? टो टिन हीका ती मेला है, फिर जाता पथिक अकेला है; यहनन्नर वनदौलत पाकर,रे! कौन न हेरा-चुग खेला है । यदि में भी इस लूं तो जगकी, दृष्टी क्यों रंग बदलती है; कुट भी न समझ पाता हूँ मैं, जगकी या मेरी ग़लती है । में प्रेम नगरमें रहता हूँ, मुखके सागरमें बहता हूँ; गवी ही गुनता जाता हूँ, अपनी न किसीसे कहता हूँ। तो भी ये दुनियाको बातें, क्यों रह-रह मुझपर ढलती हैं ; 'कुछ भी न समझ पाता हूँ मैं, जगकी या मेरी ग़लती है। कोई वाहता तू मार्ग-भ्रष्ट, होकर पाता क्यों अमित कप्ट ; पापाने रंगा हुआ पगले, तेरे जीवनका पृष्ट-पृष्ट । मैने न कभी पथ पूछा फिर, इनकी क्यों जिह्वा चलती है; कुछ भी न समझ पाता है में, जगकी या मेरी ग़लती है । में विद्रोही है, बागी हूँ, अनुराग लिये वैरागी हूँ; जिसका न कभी स्वर विकृत हो, मैं ऐसा अद्भुत रागी हूँ। फिर मेरे निकले रागाँस, क्यों दुनिया मुझको छलती है ; कुछ भी न समझ पाता हूं मैं, जगकी या मेरी ग़लती है ?
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श्री हुकुमचन्द्र खारिया 'तन्मय'
'तन्मय' जी कविताके क्षेत्रम १९४०, ४१ से ही प्रकाश्य रूपमें थाए हैं । आपकी कविताएँ बड़ी श्रोजपूर्ण तथा विद्रोहपूर्ण होती हैं । कविता-पाठ करते समय श्राप श्रोताओंको मन्त्र-मुग्ध कर देते हैं । उनकी श्रात्माएँ फड़क उठती हैं ।
आप अपने परिचयमें लिखते हैं-- 'राष्ट्रकी गुलामीको बात जब कभी में सोचता हूँ तो तिलमिला जाता हूँ । पवित्र शस्य श्यामला और सुजला- सफला घरतीके निवासियोंको जब भूखों मरता देखता हूँ तो लेखनी विद्रोहके लिए मचल उठती है और तभी वरबस ही मेरे 'कवि' को घोषित करना पड़ता है
' भाग लिखना जानता हूँ ।'
MON
एक स्थानपर श्रापके कवित्वने शारदासे प्रार्थना की है'युग - कलाकार युग - मानवका पथ-दर्शन मुझको करने दो, सूनी वलि - वेदीको श्रम्वे ! अगणित गोशोंसे भरने - दो, पाताल स्वर्गसे मिल जाए हो धरा-गगनका प्रालिंगन, विद्रोह खेल खुलकर नाचे, विप्लवको आज मचलने दोइस जगको, माँ, तुम एक बार हो तो जाने दो क्षार-क्षार ।'
odd and
'तन्मय' जी प्रलय - गीत लिखनेमें खूब सफल हुए हैं, किन्तु प्रलय-गीतों के साथ आपने कुछ प्रणय गीत भी लिखे हैं ।
वस्तुतः 'तन्मय' जीके कवित्वने कोरी कल्पनाके पंख लगाकर अनन्तके श्राकाशमें उड़ान नहीं भरी है, बल्कि दृश्य जगत् के अन्तर्वाहका उसने
Grad
SS
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गम्भीरतासे संवेदन किया है और इसी संवेदनने वेगवान् होकर आपकी कविताके प्रवाहको अनेक धाराओंमें प्रस्फुटित किया है।
श्रापको जन्मभूमि ललितपुर (बुन्देलखण्ट) है। ये कांग्रेसी कार्यकर्ता हैं और सत्याग्रह-नान्दोलनमें दो बार जेल-यात्रा कर चुके हैं।
प्रापसे समाज तथा साहित्यको अनेक प्राशाएं हैं। इनके निम्नलिखित अप्रकाशित कविता-संग्रह हैं:
१. अङ्गार २. आधी रात ३. पाफिस्तान (एक खण्ड काव्य)
आग लिखना जानता हूं!
कोकिलाको मघर क-कू, सुन रहा कोई निझर-झर, म्वप्नमें लग्यकर मुमुखिको भर रहा कोई विरह-स्वर । किन्तु मैं तो भैरवी अपनी निराली तानता हूँ।
आग लिखना जानता हूँ ! ~ ८९ -
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व्यर्थ, कवि, मधु विन्दुनोंसे गीत तू अपने सँजोता, बाल-विधवाकी
तरह
नव-जात छायावाद रोता !
जो वग़ावत फूंक दे - कविता उसे मैं मानता हूँ । या लिखना जानता हूँ !
रीझ प्रेयसिपर रहा जो भूलकर भीषण प्रलयको, देख भूखोंको, न रोया,
३.
क्या कहूँ उस कवि हृदयको ?
और वह दावा करे --- 'युग - धर्मको पहचानता हूँ ।' ग्राम लिखना जानता हूँ !
व्यर्थ है सङ्गीत-लेखन
हो न जगती का भला जव,
यदि न दो रोटी मिलें तो
भूल जायें कवि कला सव !
-गीत रोटीके लिखूंगा-याज प्रण यह ठानता हूँ । याग लिखना जानता हूँ !
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मैं एकाकी पथ-भ्रष्ट हुआ
कुछने चौपथ तक साथ दिया , कुछ अर्द्ध मार्गसे हुए विलग ; कुछ थके, रुके, कुछ कहीं थमे , हो उठे सभीके भारी पग। . । में एक निरन्तर किन्तु वढ़ा ,
था आगे इस टेढ़े पथपर ; पर, हाय, हुमा मुझको भी क्या ,
हो रहे चरण मेरे डगमग ! आगे क्या होगा, गति-अथ ही जव इतना सथक, सकष्ट हुआ?
मैं एकाकी पथ भ्रष्ट हुया ।
पथ - भीषणता, दुर्गमताका , जग आज दिखा मत मुझको भय ; चल पड़ा रुकुंगा अव न कही,
आँधी आये, हो जाय प्रलय । पाँवोंमें काँटे चुभे, लहू , टपके, मुझको चिन्ता न आज ; कर जाऊँगा कालालिंगन , या लीलूंगा ले पूर्ण विजय ।
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इतिहास जाता काटति जो उलना यह उत्कृष्ट हुआ;
__ में एकाकी पथ - ऋष्ट हुआ १२॥
में पहुंच पंगा नंजिल तक , तुझको नय है, न हूँ हमाग ; पग-रगपर गिरता उना हूँ, हो रहा लुप्त रवि, शानि-प्रकाय ।
फिर पाँव पकड़कर खींच रहे, पोछे मरे सहगानी ही ; आवद्ध विविध बन्धन-वारा ,
कर रहे, हाय, है नबनाम । ने, नेरी जीवन-गायाका , तो बन्द प्राधिरी पृष्ट हुना।
में एकाकी पय - भ्रष्ट हुआ ।
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श्री कपूरचन्द्र, 'इन्दु'
श्री कपूरचन्द्र 'इन्दु' सम्भवतः कई वर्ष पहले से कविता लिख रहे हैं, किन्तु इधर हालमें ही जो उनकी कविताएँ पत्रों में प्रकाशित हुई हैं, उनसे 'इन्दु' जोकी प्रतिभा विषयमें बहुत अच्छी धारणा बन जाती है ।
पकी कविताओंका केन्द्रवर्ती दार्शनिक भाव प्रभिनव शब्द-व्यंजनाके द्वारा जब व्यक्त होता है तो वह परिचित होते हुए भी अनूठा लगता है । अपने मौलिक भावके लिए यह तदनुकूल शब्द और शब्द-सङ्कलन गढ़ लेते हैं ।
प्रापको 'कवि-विमर्श' नामक कविता जो यहाँ दी जाती है वह श्रापकी शैलीका सुन्दर उदाहरण है । मधु पुराना ही है, किन्तु प्याली एकदम नई और आकर्षक !
कवि-विमर्श
सरावोर प्यालीका तो रस, नही कभी प्रिय छलक सकेगा । अधजल गगरी छलका करती, पूरण-घट रहता है निश्चल, चन्द' पड़े शवनमके' क़तरे, हरित बना देंगे क्या मरुथल, रस छलकानेका न समय है, पड़ते घीकी भाँति जलेगा, सरावोर प्यालीका तो रस, नहीं कभी प्रिय छलक सकेगा ।
शाश्वत निधन-हीन रहते क्या सुख-दुख कृत संसार नही है, संसारी कर्मोसे लिपटा, वह बन्धनसे पार नहीं है, मुक्त हुए 'मानव' कैसा फिर, सुख-दुखका भागी न रहेगा सरावीर प्यालीका तो रस, नहीं कभी प्रिय छलक सकेगा ।
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SP
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ऋषी-मुनी भी देश कालकी स्थितिका है रखते अवधारण, . क्योंकि सानुकूलता उनकी होतो स्व-पर-श्रेयका कारण , लता-सफलतापर उसकी ही, रक्षामें नव-कुसुम खिलेगा, सराबोर प्यालीका तो रस, नहीं कभी प्रिय छलक सकेगा।
मैं तो नहीं मानता जगको, इस श्रोयी-मायाका जाया , द्रव्य-क्षेत्र-भव-भाव-कालकी, चलती-फिरती रहती छाया , सत्य, शील, तप, दया विना कुछ केवल त्याग' न काम करेगा ,
हराबोर प्यालीका तो रस, नहीं कभी प्रिय छलक सकेगा। शान्ति द्वन्द एकत्र न देखें, आगे पीछे आते जाते , हिमासे उत्पत्ति अहिंसाकी, ही वैयाकरण बताते , केवल अवलोकन न सार्थ है, जव तक वह कर्तृत्व न लेगा , सरावोर प्यालीका तो रस, नहीं कभी प्रिय छलक सकेगा।
परिभाषा-भरकी अभिगतिसे, दूर न होती हृदय कलुपता, पूरव, पूरव-सा कैसे है ? क्यों पच्छिमकी दहती रिपुता , क्षितिज-ककुभ-अम्बरतलमें भी, राग-द्वेष क्या घर कर लेगा ,,
सरावोर प्यालीका तो रस, नहीं कभी प्रिय छलक सकेगा। संकट संस्कृत कर देता है, आत्मग्रन्थिका विकृत-गुंठन , खारी-तृप्त अश्रुकी बूंदें, मधुरिम शीतल कर देतीं मन , देर भले अन्धेर नहीं है, कृतका फल भरपूर मिलेगा, सरावोर प्यालीका तो रस, नहीं कभी प्रिय छलक सकेगा।
मुख-दुख, पाप-पुण्यका अनुचर, दुखमें भी प्राणी सुख कहता , विन साम्यसे देखा करते, मूरख उनमें रोता-हंसता , नियति-नियम तो एक रहा है, कैसे कोई दो कह देगा, सरावोर प्यालीका तो रस, नहीं कभी प्रिय छलक सकेगा।
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श्री ईश्वरचन्द वो० ए०, एल-एल० वी०
अञ्जलि
आजसे युगों पूर्व तारों-भरा आँचल उठा अस्त-व्यस्त सोई-सी रजनी अलसाई थी। प्राची रस-सागर-तट कुंकुम बिखेरती-सी लज्जासे ओत-प्रोत ऊपा मुसकाई थी। और एक बंकिम्-भंगिमासे चूंघटको खोल, विस्फारित नेत्रोंसे झाँका वह रस-स्वरूप
आँका वह मोहक रूप ज्योतिर्मय, प्रभायुक्त ! सीमित हो उठा था जिसमे विश्वका अखिल ज्ञान, मनियोंका अटल ध्यान, रूपसिका अचल मान, लहरोंका चंचल गान ! सीम्य मूर्ति, जिसपर स्वयं मुक्ति हो मनुहारमयी बन्द नयन ! वन्द जिनमें हो उपेक्षित विश्व
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पलकोंपर सोया हो समतामय विराग -भाव, अधरोंपर स्मित-हास्य, सारे बन्धनोंके प्रति भूला-सा भटका-सा राग औं' विराग-हीन चेतन, अचेतन-सा दिव्य-रूप, दिव्य ज्ञान, दिव्य दृष्टि, दिव्य प्राण ! लक्षित, अलक्षित, अवहेलित-सी अलकोपर जिनका चूंघर-सा रूप, रह-रहकर डोलता-सा, किरणोंसे बोलता-सा, वायुके झकोरों जैसा कलिका-पट खोलता-सा, सोया था शान्ति रस । मीठे-से हलके-से खोये और सोये-से मन्द-मन्द वह रहे, 'कलियोंका पराग लिये, सौरभ, सम्मोहन और मूर्च्छनामय राग लिये
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हलके समीरणके कोमल झकोरोंके महिमामय क्षणमें देव ! जैसे सुधांशुपर-से मेघ हट जाता है। जैसे दीप-ज्योतिकी कोमल किरण-बालाएँ अन्तहीन तमकी तहोंको चीर देती हैं। वैसे ही, वर्द्धमान, वुद्धदेव, केवली, आत्माके बन्धनोंके अन्तिम प्रावरणको चीर शुद्ध रूप, शुद्ध ज्ञान, शुद्ध शौर्य, शुद्ध वीर्य, एक महा ज्योतिःपुंज, अपनी विराटतामें अणु-अणु विखर गया, निखर गया अखिल विश्व, दीप्त हुआ भामंडल, 'त्रिभुवन हुआ आलोकित, कोटि-कोटि कंठोंके जय-जय महाघोष से गूंज उठे, लोक, काल, भूसे ले नभ तक, नाथ !
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समस्त-विश्व-प्राणियोंने मस्तकको नवाया था झुकाये थे चरणोंमें अपने प्रपीड़ित प्राण, नीरव वेसुध से हो सुखके रस-सागरमें डूबते, • उतराते, रोमाकुल, रोमातुर, की थी तव वन्दना वन्दना-ज्ञानमयी, अर्चना-ध्यानमयी, प्रतिष्ठा-प्राणमयी, प्रार्थना-गानमयी। उसकी पुण्य-स्मृतिमें शत-शत मानवोंके विह्वल मन-प्राणोंकी कोमल, सजल, पङ्खरियाँ जो छूनेसे विखर जायें, प्रोसकी बुन्दकियोंसे सौगुनी निखर जायें। अर्पित है, देव, आज पद-रज-परागपर श्रद्धाकी अञ्जलियाँ।
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श्री लक्ष्मणप्रसाद प्रशान्त'
अपने २५ वर्षके साधन-हीन जीवनके द्वन्द्वोंको पारकर, आज जब लक्ष्मणप्रसादजी 'प्रशान्त' पीछे मुड़कर देखते हैं तो उन्हें सन्तोष होता है इस वातपर, कि अब परिस्थितियां बदल गई हैं और जीवनको वेदनाने उन्हें उस कविके दर्शन करा दिये जो उनके हृदयमें इसी दिनके लिए छिपा बैठा था। आपने कविता लिखनेके लिए काफ़ी परिश्रम किया है, और साधना की है। फिर भी, लगता तो यही है कि उनकी कविताका स्वर सहज और नैसर्गिक है।
इनको कवितामें संसारको अस्थिरता और जीवनकी विषमताकी हलको छाप है । पर, कविके कर्तव्यको ओर भी इनकी दृष्टि है
"हर दिलमें उमड़ पड़े सागर, हर सागरमें अमृत जागे, अमृतकी प्यालीमें मानवका एक अमर जीवन जागे।" .
दो दिनकी अस्थिर सुपमापर मत इतराना फूल ; प्रात समय हँसते, मतवाले, साँझ न जाना भूल । मत करना अभिमान रूपका केवल जग अभिलापी; नहीं सत्य अनुराग, स्वार्थपरता, फिर वही उदासी । माना वन-वनमें ढूंढ़ा करता तुझको वनमाली ; पर क्या ? स्वार्थ वासनासे मानवका अन्तर खाली ? सम्हल-सम्हल रहना शिखरोंपर, फिमल न जाना भूल ; पातपात डालीडालीमें निहित नुकीले शूल । जिसके साथ रहे जीवन-भर खेली आँखमिचौनी ; वही विहग सूनी संध्यामें बने विरागी मौनी ।
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राही झूला प्रेम दिखाकर व्यर्य तुझे अपनाते ; चूस चूस पी अमृत, मसलकर फेंक, अरे इठलाते हार सृजन कर, वेव हृदय, अपने जी-भर तरनाकर ; दुनियाने पाई शोभा, तेरा संसार मिटाकर ।
कविसे
पत्थर में कोनलना जाने,
अंगारोंने
वरने पानी; निस्तव्य गगन हो उ मुखर, मूकोंकी सुन भैरव वानी ।
हो उठे वाली दिवा, निघा
का चीर गहन तममें चमके;
हिमकरकी शीतल किरणोंन
नानवके इंगितपर गत शत
उद्दीप्त तेज रह-रह दमके ।
न्यौछावर हो जायें प्राणी;
सुन मानवताका सिंहनाद
हर दिलमें उमड़ पड़े नागर,
नतमस्तक हो जायें मानी।
हर सागरनें अमृत जागे ।
अमृत की प्याली में मानवका,
एक अनर जीवन जागे || कवि, गान मधुर ऐसा ना है।
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अब कैसे निज गीत सुनाऊँ युग-युगका इतिहास व्यथित आँसूसे निर्मित एक कहानी, भग्न हृदय भी आज लिये है
अपनेपनकी करुण निशानी । वृद्ध कण्ठकी स्वरलहरी, तव कैसे जीवन राग मुनाऊँ । अव० मुख दुखकी दुनियामेंएकाकी हसना रोना बाकी है।। उठ-उठकर गिरना गिरकर
रोना, यह जीवन-झाँकी है ।। देख रहा संसार छलकते दृगसे कैसे अश्रु छिपाऊँ । अब कण-कणमे संघर्प, धधकतीचारों ओर समरकी ज्वाला । भूल गया मानव मानवता,
सर्वनागकी पीकर हाला॥ वन्धु-बन्धुका ही घातक, तव किसको अपना मीत वनाऊँ । अव० भूमण्डल, अम्बर, जल, यलमें, हाहाकार सब तरफ़ छाया । अागान्वित अनन्त जीवनमें,
कीन? प्रलय-सा भरता पाया। अरे, शून्य इङ्गित पथपर मैं अव कैसे निज पर बढ़ाऊँ ।
अब कैसे निज गीत सुनाऊँ ।
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श्री राजेन्द्रकुमार, 'कुमरेश'
" एटा जिलामें है विलराम नाम एक ग्राम ताही बसत लाला झुन्नीलाल वानियाँ, ताके सात सुतनमें दूजो सुत कुमरेश
पढ़िवेकी खातिर विदेश चित्त ठानियाँ | थोड़ोसो कियो है याने हिन्दीको अभ्यास कछु
और कछु जाने नाहि जगको रितानियाँ, कविता न जाने, पर कविनकी संगतितें
टूटी-फूटी भाषत है नित्य ही तुकानियाँ ।"
-यह है 'कुमरेश' जीका जीवन परिचय --- उनके अपने शब्दों में । श्रापने आयुर्वेद कॉलेज, कानपुर में श्रायुर्वेदाचार्य तक अध्ययन किया है । सन् १९३२ से लिखना प्रारम्भ किया है और तबसे निरन्तर जैन- श्रजैन और हिन्दीके अन्य पत्रोंमें लिखते चले आ रहे हैं ।
आपने 'अंजना' और 'सम्राट् चन्द्रगुप्त' नामक दो खण्ड-काव्य लिखे हैं जो अभी प्रकाशित हैं । एक और खण्ड-काव्य श्राप लिख रहे हैं ।
आप नये-पुराने सभी ढंगोंकी कविता श्रासानीसे लिख सकते है । यह कुछ छायावादी शैलीको अपनाते हैं, फिर भी इनकी एक अपनी ही शैली है । इनकी बड़ी खूबी यह है कि विषयके अनुसार भाषाका सुगम या गहन प्रयोग करते हैं, जो स्वाभाविक प्रतीत होती है ।
'कुमरेश' जी प्रधानतः साहित्यिक अभिरुचिके आदमी हैं, और इसलिए आशा है आपकी रसधारा बढ़ती ही जायगी। आप कहानियाँ भी अच्छी लिखते हैं, जो पत्रोंमें प्रकाशित होती रहती हैं ।
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जागृति - गीत
जाग जीवनके करुण, वह एक अद्भुत राग ।
'बुन उठे ध्वनि सुन जगतकी चेतना उर मीन
रह सके बैठी भले स्थिर तालपर यह तो न कर उठे सहना थिरकती एक ताण्डवनृत्य
और यह हो जाय तत्क्षण वह प्रलय-सा कृत्य
आप या वरदान प्रतिक्षण फूंकते हों प्राग ।
ग्रा भरे उत्साह तनमें और मनमें रोप
टूट जाये ग्राज चिरको नीद आये होग देख लें दृग खोल अव क्या-क्या रहा है शेप
प क्या है, दैन्य, बन्धन, श्रीर दारुण क्लेश
7
हूक कर ज्वाला मिटा दे यह अमिटसे दाग़ ।
फूँक दे वह प्राण मृत-सी देहमें श्रविराम
स्वयं इस आरामका मनमें न लेवें नाम उठे जड़तामें निरन्तर भयानक तूफ़ान
और पशुतासे पुरुष पा जाय यह परित्राण
खेल ले निज शम्भु शोणितसे विहमि हँसि फाग ; जाग जीवनके करुण वह एक अश्रुत राग ।
परिवर्तनका दास
से लिखा जा रहा प्रतिक्षण है इतिका इतिहास ;
दुखमें झलक रहा है सुखका वह मादक मधुमास ।
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लिये खड़ा है विरह मिलनका सुन्दरसा उपहार ; राह हासकी देख रहा है उन्मन हाहाकार । एक भाग लेकर विरागकी जलता है अनुराग ; मुग्ध प्रतीक्षामें आशाकी रही निराशा जाग । नाव गीत गाता विकासके, करता है मनुहार ; पाप जलाये दीप पुण्यका, भांक रहा है द्वार । मृत्यु मानिनी-सी करती है जीवनका उपहास ; और हाय, मैं वना हुना हूँ, परिवर्तनका दास ।
बहिनसे
मुझ से हृदयहीन भाईके वहिन बांध मत राखी ;
जिसने तुझ दुखिया अवलाकी है न कभी पत राखी। जो अपने स्वार्थोपर तेरी नित वलि देता आया ;
जिसके दिलमें दर्द नहीं है, नहीं कसक है वाक़ी । तू अपने दुःखोंसे रो-रो, हँस-हंस जूझ रही है ;
और इधर यह ढूंढ़ रहा है सुरा, सुराही, साक़ी । यह निर्मम वेसुव अस्नेही वना पुरुषसे पशु है ;
उसे बना सकती न पुरुष फिर तू या तेरी रात्री। अरी छोड़ भाईकी छाया कसके कमर खड़ी हो ;
दिखला दुर्गा और भवानीकी-सी फिरसे झांकी।
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पन्थी
शाका दीप जलाये पन्यी चला ग्राज किस पथपर ? पैर बढ़ाये चला जा रहा अपने गरपर रखकर गठरी ; कहां हृदयकी प्याग बुझाने चला छोड़कर है यह नगरी । भूल न जाये राह, जा रहा मनमें किसकी दुआ मनाता,
जीमें किस उलझनके सुन्दरमे मुन्दर यह स्वप्न वनाता । घरपर वाट देती होगी बैठी क्या, इसकी भी गती ;
याद इसे भी ग्राती होगी ग्रपनी बीती हुई कहानी । किसे सुनाये, किमे बताये, राह अकेली, साथ न प्रियवर ;
आमाका दीप जलाये पन्थी चला ग्राज किस पथपर ? अरमानोंमें झूम रही है क्या इसके भी एक दुराना ;
जिसके कारण कुलाया-सा बढ़ा जा रहा भूसा प्यासा जीवनकी दुविधामांने नित इमे कर दिया है क्या उन्मन ;
गूंज रहे कानोंमें इसके प्राणोंके क्या शत-शत क्रन्दन । वावाने तोड़ दिया क्या इसका ग्रन्तिम एक सहारा ;
ढूंढ रहा है क्या दुनियाके जानेको उम पार किनारा । कोन प्रेरणा लेने देती इसको चैन कही न घढ़ी-भर ; का दीप जलाये पत्थी चला ग्राज किस पथपर ?
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श्री अमृतलाल, 'चंचल'
कवि और लेखक में 'चंचल'जी समाजमें सुपरिचित हैं। विद्यार्थी अवस्याले ही आपको साहित्यिक लगन है। जब आप ७-८ वर्ष पूर्व, हरदा कॉलेजमें पढ़ते थे, उसी समय आपने संस्कृतके सुप्रसिद्ध वर्मग्रन्य 'रलकरण्ड श्रावकाचार'का हिन्दी कवितामें अनुवाद किया था, जो प्रकाशित हो चुका है। आपको संस्कृत और हिन्दीका अच्छा ज्ञान है। उर्दू साहित्यसे भी रचि है।
चंचलनीकी रचनाएँ अत्यन्त मयुर होती हैं। आप प्रकृति-शनते प्राप्त पाल्लादकी अभिव्यंजना सरल और स्वासाविक पदावलि द्वारा करते हैं। किन्तु पायियके वर्णननें भी, अपायिव तत्त्वकी ओर सरत करके चलते हैं। आपकी साहित्यिक प्रगति भूलने दार्शनिक संस्कृतिली याप है।
अमर पिपासा
कहाँ दौड़ रहा मृग - छान अत्रेत, अरे, यहाँ नीरकी आशा नहीं; मरुभूनिकी है मृग-वृष्णिका ये, यहाँ खेल तु प्राणता पाया नहीं।
यहाँ लान्नों शहीद हुए कवि'चल', तू भी दिखा ये तमामा नहीं ; यहाँ जिन्दगीही जाती है, किन्तु कभी बुनती है पिपासा नहीं। - १०६ -
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कहाँ झूम रहा मदमत्त पतंग , अरे, यह पाग तमाशा नहीं! वन जायेगा खाक अभी, कवि 'चंचल', मोल ले व्यर्थ निराशा नहीं।
यह चाहकी प्यास है नित्य, सखे , मिटती कभी यह अभिलापा नही ; यह जिन्दगी हीवुझ जाती है, किन्तु कभी बुझती है पिपासा नहीं !
मत चाहकी राहमें आहें भरो, इस चाहमें लुत्फ जरा-सा नहीं ; इस चाहका जो भी शिकार बना , वह वना निज प्राणका प्यासा वही ।
यह चाह यहाँ दुखदाई, सखे, मिटती इसकी अभिलापा नही; यह जिन्दगी ही वुझ जाती है, किन्तु, कभी बुझती है पिपासा नहीं !
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श्री खूबचन्द्र, 'पुष्कल'
Gerryton
आपकी अवस्था अभी २५ वर्षकी है । यह सोहौरा ( नागर ) के रहनेवाले हैं । काव्य - साहित्यसे वचपनसे ही अनुराग है । श्राप लिखते हैं"मुझे कविताको स्वाभाविक लगन है, और यह ध्रुव सत्य है कि . कविताके बिना मैं उन्मत्त बना रहता हूँ ।"
'पुष्कल'जीने श्रनेक विषयोंपर श्रव तक जो कविताएँ लिखी है उनकी संख्या काफ़ी है । यह बहुत ही होनंहार कवि हैं ।
अपनी कवितामें श्राप वैयक्तिक सुख-दुखको अनुभूतिका राग नहीं छेड़ते । वाह्य दृश्यों और पदार्थोंको केन्द्रमें रखकर यह अपने हृदयको प्रतिक्रियाका प्रदर्शन करते हैं । भाषा, भाव और विषयोंका संकलन सरल होता है ।
भग्न- मन्दिर
अहा, पावनतम पुण्य प्रदेश, धर्मके प्रामाणिक इतिहास ; प्रकृति अञ्चलमें हो मौन, निरन्तर लिये हुए उल्लास । कलाकारोंके हे स्मृति चिह्न, कलाओं के संग्रह संस्थान ; ग्रहो, पाया तुमने केवल, विश्वमें सर्वोत्तम सम्मान । किसी मन्दिर में मानवदल, किया करने अनुपम संगीत ; गूंजता रहता निर्जनमें, निकटवर्ती निर्भरका गीत । कलानिधि कहलाने के योग्य, विश्वमें सर्वोन्नत साकार ; दिवाकर, चन्द्र र तारे, रहे निशर्टिन अनिमेष निहार ।
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शिखर रमणीक गगनचुम्बी, सर्व गुणसे हो तुम भरपूर ; देखकर तुम्हे मानियोंका मान होता है चकनाचूर ।
कहीं तुम, निर्मित हो ऐसे, चहूँ दिश निर्जन सूनापन ; तपस्वी निश्चय हो स्वयमेव, तपस्वी के हो जीवन धन ।
मूर्तियाँ विश्वेश्वरकी रम्य, वेदिका ऊपर निश्चल हैं ; भाव ग्रवलोकनसे होते परम पावन प्रति निर्मल हैं ।
किसी बीहड़ वनमें तुम मौन, वने भग्नावशेप, खंडहर ; समय पाकर निर्दय दुष्टा जराने किया जीर्ण जर्जर |
धराशायी, ग्रो भग्नावशेष खडहर, जीर्ण-शीर्ण मन्दिर, प्रशंसा करता जन समुदाय तुम्हारे चरणांपर गिर-गिर |
कवि कैसे कविता करते हैं ?
कवि, कैसे कविता करते है ?
मैं यही विचारा करता हूँ, ये कवितापर क्यों मरते है ?
जीवन-पथ इनको कटकमय वाधाथोंमें ध्रुत सत्य विजय, दुनियाका सुख-दुख लिखनेको, लगता है इनको अल्प समय ।
कविकी उस तुच्छ तृलिकामे मधु-प्रक्षर कैसे भरते हैं ?
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निर्जनके सूनेपनमें . क्यों चिन्तित रहता इनका जीवन ? प्रकृतिके प्रतिक्षणका कैसे
ये करते हैं मञ्जुल चित्रण ? निर्वल निज तनसे फिर कैसे ये कविता-सरिता तरते हैं ?
मृतप्रायोंमें जीवन लाना नवयुवकोंको पथ वतलाना , दीनोंकी करुण कराहोंको
दुनियाने कवितासे जाना। धन, वैभव, तन, बल क्षणिक, किन्तु ये कवितामें क्या भरते हैं ?
मैं चिन्तित-सा रहता निशदिन यह कविता क्या, कैसी होती ? छोटा - सा छन्द बनानेको
मम भावोंकी वीणा रोती। कविता करना कब आयेगा, हम यही विचारा करते हैं !
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जीवन- दीपक
जीवन- दीपक जलता प्रतिपल ।
प्राण तेल है, दीप देह है, दोनोंका अनुपम सनेह है, अज्ञानान्व स्वरूप गेह है,
उसमें ज्योति जलाता निर्मल ।
सव विधि भाव प्रभाका उद्भव, हो विलीन, क्षण-क्षणमें अभिनव, कैसा जीवनका यह उत्सव,
नवल दीप जब जलता झिलमिल !
श्राशात्रोंकी ज्योति निकलती, घोर निशाका धुआँ उगलती, मानवकी यह भीपण गलती,
प्रणयी वन क्यों होता पागल ।
आता जभी कालका झोंका, प्राण-तेल तव देता धोखा,
रुकता नहीं किसीका रोका,
जलते - जलते बुझता तत्पल ।
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-श्री पन्नालाल, 'वसन्त'
आप समाजके उद्भट विद्वानों और साहित्य-सेवियोंमें हैंसाहित्याचार्य, न्यायतीर्य और शास्त्री। आपका जन्म सन् १९११ में पारगुंबा (सागर) में हुआ।
अापने संस्कृतके अनेक धार्मिक प्रन्योंको टीकाएं लिखी हैं और संस्कृत गद्य और पद्यमें मौलिक रचनाएं की हैं।
'वसन्त जी रात-दिन साहित्य-सेवामें निरत हैं। विचार आपके वहुत उदार और राष्ट्रवादी हैं। अनेक विषयोंपर आप सफलतासे लेखनी जाते हैं, किन्तु आपकी प्रायः कविताएँ या तो प्रकृतिको लक्ष्य करके लिखी जाती हैं या वह राष्ट्रवादी होती हैं।
जागो, जागो हे युगप्रधान !
जागो-जागो हे युगप्रवान ! है भक्ति निहित सारी तुमनें, तुमही हो जगके नर महान । नितिपर हरियाली छाई है, पर सूख रहे मानव आनन , सरिताएँ वनमें उमड़ रहीं, पर खाली हैं मानस कानन , घनघटा व्योममें उमड़ रही, पर भूपर है ज्वाला वितान ,
. जागो, जागो हे युगप्रवान ! नभसे होती है वम्ब-वृष्टि, नितिपर सरिताएं लहराती, जठरोंमें नरकी ज्वालाएँ, हैं वढ़ी भूखकी हहराती, हैं सुलभ नहीं दाना उनको, आँखोंमें छाया तम महान,
जागो, जागो हे युगप्रवान ! - ११२ -
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कितने ही भाई विलख रहे, कितनी ही वहनें रोती है, कितनी माताएँ प्रतिपल अपने शिशुधनको खोती हैं, जग भूल गया कर्त्तव्य-कर्म, जिससे माताका सुख निधान,
जागो, जागो हे युगप्रधान ! है रणचण्डीका अतुल नृत्य, दिखलाता जगमें विकट खेल, है वन्ध-बन्धुमें प्रेम नही, है नहीं किसीके निकट मेल, कंकाल मात्र अवशेप रहा, सब दूर हुआ बल,सौख्य, दान,
जागो, जागो हे युगप्रधान ! यह काल दैत्य ज्वालाभितप्त, करता आता है ध्वंस आज, यह प्रलय केन्द्र उत्तप्त हुआ, है सजा रहा संहार साज, वन उठो वीर! हे सजल मेघ, कर दो जगका ज्वालावसान,
जागो, जागो हे युगप्रधान ! जगतीमे छाया निविड़क्लान्त, पथ भूल रहे नर सुगम कान्त, दिखता है मानव हृदय क्लान्त, सागर लहराता है अशान्त, लेकर प्रकाशकी एक किरण, करने जगमें आलोक दान,
जागो, जागो हे युगप्रधान !
हैं पुरुप प्रापपुरुषार्थ करें, वर पोज विश्वमें प्राप्त करें, है तरुण, तपी तरुणाईसे, नभमें महान् आलोक धरें, भरकर उरमें सन्देश दिव्य, फैलाने जगमें अतुल ज्ञान,
जागो, जागो हे युगप्रधान !
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त्रिपुरीकी झांकी
त्रिपुरीके सुन्दर 'प्राङ्गणमे रेवाका कलरव देखा ; विन्ध्याचलके विजन विपिनमें शान्ति-क्रान्तिका युग देखा ।। ग्वण्ड-खण्डम कण-कणमें यग, वीरोंका छाया देखा ; नीले नभमें पूर्व जनोंका, सिंहनाद गुञ्जित देखा। विजलीकी झिलमिल आभाग, वृक्षोंको हँसते देखा ; वीरोके वर अट्टहाससे, गिरि गह्वर मुखरित देखा। गिरि-मालाकी मध्य-वीथिसे लोगोंको आते देखा ; अपने मुकुलित हृन्य-क्षेत्रमें भव्य-भाव भरते देखा। हस्तकलाका सुन्दर चित्रण, भारत-वीरोंको देखा ; महिलाओंके सुन्दर मनमें सेवा-बत जागृत देखा । तरुणाईकी ललित लालिमासे नभको रञ्जित देखा ; प्रवल ओजसे रज कण-कणको उद्भासित होते देखा। बावन गजसे युक्त शुभ्र रथका उत्सव भरते देखा ; लाखों जनताकी जयध्वनिसे गिर मण्डल गुञ्जित देखा। नीले नभमे 'राष्ट्र-पताकाको लहराते भी देखा ; 'झंडा ऊँचा रहे हमारा'का गाना गाते देखा ।। रजनीके नीरव निकेतमें कवियोंका संगम देखा ; कोमल कान्त मधुर कविताओंसे नभको पूरित देखा।
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कुछ नवचेतन प्रतिनिधियोंको वीरभाव भरते देखा ; 'जयप्रकाग' श्री वीर 'जवाहर'को गर्जन करते देखा। • नोगलिस्ट लोगोंके दिलको तत्क्षणमें गिरते देखा ; गान्धी-वादी नेताओंको विजयलाभ करते देखा। कभी जवाहरकी चुटकीयोंसे सवको हँसते देखा ; कभी उन्हींके प्रवल नादसे खून खौलते भी देखा। 'मौलाना'को सजग भावसे जन जागृत करते देखा ; कुछ अभ्यागत मिश्र-वासियोंको हर्पित होते देखा। श्री सरोजिनी के कूजनसे सभा भवन विस्मित देखा; 'स्वागत नायक'के भापणसे मन गद्गद होते देखा। क्या देखा क्या आज बताऊँ, मैने सब कुछ ही देखा ; पर गान्धी विन अनुत्साहकी रेखाको विस्तृत देखा।
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श्री वीरेन्द्रकुमार, एम० ए०
HENANLAR TO
हिन्दी साहित्य में श्री वीरेन्द्रकुमार, एम० ए०ने प्रतिभावान् कवि और कलावान् कहानी-लेखकके रूपमें पदार्पण किया है । आपका पहला कहानी-संग्रह 'आत्म-परिचय' के नामसे प्रकाशित हुआ है जिसका हिन्दी - जगत् में समुचित श्रादर हुआ है ।
आपकी कविता कोमल भावना, ऊँची कल्पना और उपादेय भावुकताका दर्शन होता है । आपकी भाषा प्रांजल और कर्ण - मधुर होती है । यहाँ उनकी 'वीर - वन्दना' शीर्षक सुन्दर और सजीव कविताके साथ-साथ अन्य कविताएँ भी दी जा रही हैं ।
वीर-वंदना
लेकर अनंग- मोहन यौवन, ग्रवरोंपर वंकिम धनु ताने ; मनसिजकी पुष्प-धनुष - डोरी, तुम तोड़ चले, ग्रो मस्ताने । नन्दन-काननमें प्रप्तरियाँ वन कमल विछीं तेरे पथमें ; पद-रजकी उनको दे पराग, तू लौट चढ़ा पावक रथमें । वह तीस वर्षका अरुण तरुण, रतिकी शैय्या भी थी प्यासी ; त्रैलोक्य-काम्य रमणीके परिणयको निकले तुम संन्यासी ।
बाला-जोवन, भोली सूरत, भौहोंमें शत्-सन्धान लिये ; चितवनमें देश - कालपर शासन करनेका अभिमान लिये । अघरोंपर वीतराग ममताकी अनासक्त मुस्कान लिये ; उन अवहेलित-सी अलकोंमें शाश्वत यौवनका मान लिये । चिर मोह - रात्रि भवको अभेद्य, भेदन करने चल पड़े वीर ; भीषण जड़-चेतन युद्धोंमें तुम जूंझ चले जेता सुधीर ।
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हिंसक पशु-संकुल वीहड़ बन, दुर्गम गंभीर गिरि-पाटीमें ; तुम निर्भय विचरे हिंसा, भय, साक्षात् मृत्युकी घाटीमे । निर्वसन, दिगम्बर, प्रकृत, नग्न, तुम विकृति विजेता क्षात्र - जात ; पृथ्वी ससागरा लिपटी थी तव चरणोंपर होने सनाथ । झाड़ी-भंखाड़, वनस्पतियाँ, वल्लरियाँ भरती परिरम्भण ; विषधर विभोर हो लिपट रहे नंगी जाँघोंपर दे चुम्बन ।
नाना विधि जीव-जन्तु कीड़े, चींटी, दीमक सब निर्भयतम ; पृथ्वी, जल, अम्बर, तेज, वायु, सब त्रस थावर जड़ श्री' जंगम । तेरी समाधिकी समताके उस वीतराग आलिङ्गनमें ; सव मिलकर एकाकार हुए, निर्वन्धन, तेरे बन्धनमें । कैवल्य ज्योति, आदित्य-पुरुष, ओ तपो- हिमाचल शुभ्र धवल तेरे चरणोंसे बह निकली समताकी गंगा ऋजु निश्छल ।
इस निखिल सृष्टिके अणु-अणुके संघर्ष, । विषमता मी' विरोव ; कल्याण- सरितमें डूब चले, हो गया, वैर आमूल शोध । तेरे पद-नखके निर्भर-तट, सब सिंह, मेमने, मृगशावक ; पीते थे पानी एक साथ, तेरी छायामें प्रो रक्षक । जिन - चक्रवति, सातों -तत्त्वोंपर हुआ तुम्हारा नव-शासन ; तीनों कालों, तीनों लोकोंपर विद्या तुम्हारा सिंहासन ।
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श्री रविचन्द्र 'शशि
श्री रविचन्द्र 'शशि'की रचनाओंने कुछ वर्ष पूर्वसे ही समाजके . साहित्य-प्रेमियोंका ध्यान आकर्षित किया है। आपकी प्राय अभी वाईस-तेईस वर्षकी है, पर अापने समाजके नवयुवक कवियोंमें अपचा विशेष स्थान बना लिया है। आपके जीवन के वातावरणमें ही कविताका समावेश है, क्योंकि आप समाजके प्रसिद्ध कवि श्री 'वत्सल'जीके दामाद हैं और आपकी पत्नी श्री प्रेमलता देवी 'कौमुदी' भाबुक कवियित्री हैं। ___श्री रविचन्द्रजीको कविताएं कल्पना-प्रधान होती हैं। छायावादी , शैली श्रापको प्रिय मालूम होती है और आपकी राष्ट्रवादी कविताएँ प्रोजपूर्ण होती हैं।
भारत साँसे याद आती आज भी है यश-भरी तेरी कहानी ; कीति-गिरिपर मुस्कुराती जगविजयिनी नवजवानी । थी कभी इस विश्वकी तू कोहनूर, सुवर्ण-चिड़िया ; गर्व भाल उठा रही थी, 'सभ्यताकी वृद्ध रानी' । वीरता वल ओजसे जिसको वनी गाथा पुरानी ; है युगोसे बनी शाश्वत वीर मनुजोंकी कहानी। अमित तममें सन रही थी विश्वकी जव राह सारी; युगल पद-रेखा तुम्हारी थी घराके पथ पुरानी। चंचला कलकलस्वरा जिसमें तरंगिनि डोलती थी; गर्वकी द्रत मेघ-माला सरस मवरस घोलती थी। वीर गुण-गाया सुनाकर आज राजस्थान रोता; विजयलक्ष्मी सदा जिमका स्वर्ण-आनन खोलती थी।
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आज उसके मृदुल पदमें वेड़ियाँ हैं झनझनाती ; किस विरह किस वेदनाका ग्राह, अब वे गीत गाती । वक्षमें है घाव भारी, हथकड़ी करमें पड़ी है ; हा, गुलामी विपम-हाला ग्राज जिसका जी जलाती ।
विश्वका आदर्शवादी, ग्राज जग पद चूमता है ; जीर्ण शीर्णऽवप टुकड़ेपर मदी हो भूमता है । दूसरोंके तालपर हा, गान गाता हृत-वदन वह, ग्राज पीड़ा सदनमे हा
नाचता है ;
घूमता है ।
तेरा ;
नजा ग्राकाश
तेरा ।
ग्राज जगके मुस्कुरानेमें छिपा है हास वंदना रक्तदीपांस के धराको, तमपुजको, यम-चन्द्रिका तूने दिखाई ; एक अनुचर व्यंग अब कर रहा
परिहास तेरा ।
रो
श्राज तेरी शक्तियाँ पदमं पड़ी है, रही है ; क्यों वृथा अनुतापका यह भार रो-रो ढो रही है । जननि, तेरी मातृप्रेमी हुई जो सन्तति दिवानी ; वह विहँसकर जान क्या सर्वस्वको भी खो रही है ।
पद-दलित वमुवा विताड़ित कहाँ वह, ग्रभिमान तेरा ; खर्व कैसे हो गया, स्वातन्त्र्य - सौख्य-निशान तेरा । क्या न तू है सिंहनी हरि-सुत यहाँ क्या फिर न होंगे ; क्या न होगा विश्वमं फिरसे, जननि, जयगान तेरा ?
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श्री रत्नेन्दु', फरिहा
रत्नेन्दु'जी, फरिहा, जिला मैनपुरीके रहनेवाले हैं। यह कवितामें स्वाभाविक रुचि रखनेवाले नवयुवक कवि हैं। आप लगभग ४०-५० कविताएं लिख चुके हैं, जिनमें कई तो बहुत लम्बी-लम्बी हैं। दोहे, कवित्तसे लेकर छायावादी और हालावादी आदि सभी शैलियोंका प्रयोग करके आपने अपनी रचनाओंकी शैली निर्धारित करनेके लिए परीक्षण किया है।
आपकी कविताओं में अनेक भावोंका सम्मिश्रण होता है इसलिए प्राशय कहीं-कहीं दुरूह हो जाता है। किन्तु इनकी शब्दयोजना बहुत सुन्दर होती है । कल्पनाकी उड़ान भी खूब लेते हैं।
प्रकृति-गीत मेरे अंगोंमें पहनाती माँ क्यों तू इतने गहने , उषा तुल्य फूटी पड़ती छवि स्वतः बाल चन्द्राननमें ।
कर्ण-विवर-भेदक ' वाद्योंकी अच्छी लगती गूंज नहीं , मधु निशीथका मर्मर भाता
जैसा निर्जन काननमें । माँ, तेरा तो घटी यन्त्र यह घंटों रुक-रुक जाता है, रवि-शशि पल भर कभी न भूले निश-दिनके संचालनमें।
मां, तेरे इस नृप प्रवन्धमें । श्रमिक कृषक भी भूखे हैं , कण-कण तक मुसकाता रहता शुक्लाके 'शशि-शासनमें । - १२० -
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आँखोंमें लज्जाजन भर दे यौवन - वेग निहार सकूँ, बालामृत गद हीन पिला तू माँ, मेरे शिशु-पालनमें ,
मां, किस नारीने आजीवन निज कर्तव्य निभाया है, उपा पुजारिन कभी न चूकी
निज रविके आह्वाननमें । माँ, वह पचरंगा दृकुल अव बनवा नही नवीन मुझे , दोप छिपा न सकू फेनोज्ज्वल वमन कींगा धारण में।
किस मानवका कितना कोई जीव न मरनेका साथी , मुदित दिवम-भर नलिनी रहती
चन्द्रोदयके साधनमें। नर यात्री-पोतोंसे जलकी क्या अथाह छवि देख सकें , नक्र चक्र जैसा पाते सुख सागरके अवगाहन म ।
गिशु तो मात गोदको देते मल-पुरीप क्षेपणसे भर ,. तिक्त स्वादसे सवको रुचती। माँ, आंवी बालापनमें ।। - १२१ -
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गन्व प्रकृतिके लिए नियत हो जिनकी, ऐसे ज्योतिर्मय, सुमनोंके मुरतरु अनन्त, माँ उपजा इस उर प्रांगनमें।
मनन
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मौन रजनीकी गहन निस्तब्धताको चीर, स्वर भगा fare भरका खींच श्रेष्ठ समीर | युग युगोंकी चेतना मोई, उठी है जाग उगल दूंगा 'कवि हृदयसे काव्यकी-सी ग्राग' । विविध रूपोका मुसाफ़िर, मिन्दुका हूँ नीर, जगत् संसृति चित्रपटकी एक क्षुद्र लकीर | चांदनी ने कहे क्या बात निज इतिहास, गगनसे क्या कुछ छिपा है तड़ित चपल - विलास । विश्वका कण-कण परस्पर कर रहा, ग्रालाप 1 मुझे अपने में मिलानेके लिए चुपचाप । खुद समझ लूँगा बताता पूछने पर कौन, नित्य दे याती उपा रविको निमन्त्रण मीन । वीर जौहर व्रत करूँगा सहन कर हर व्यावि, लगी ध्रुव ध्रुव तक रहेगी यह अनन्त समाधि । मावनायें लीन था में नेत्रसे श्राभास एक निकला, किया जिसने रूपका विन्यास |
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श्री अक्षयकुमार, गंगवाल
आपने अपना पद्यात्मक परिचय इस प्रकार प्रेषित किया है--- "परिचय मेरा है क्या, जो दूं लेकिन तेरा है आदेश , इसीलिए कुछ लिख दूँ, माता, अजयमेरु है मेरा देश , ग्राम सिराना है छोटा-सा, उसमें है मेरा लघु धाम , नेमिचन्द्रजीका मै सुत हूँ, 'अक्षय' है मेरा लघु नाम , मारवाड़में रहता हूँ अब है कालू अानन्दपुर ग्राम , यहां किया करता हूँ मातः अध्यापन जैसा कुछ काम । हिमसे भी है अतिशय शीतल, 'ज्वालाप्रसाद' मेरे मित्र , मार्गप्रदर्शक है मेरे के, प्रौ' उनका अति विमल चरित्र । बस इतना तो ही होता है, कविताकारोंका इतिहास ,
सुख-दुखकी बातें लिखना तो होगा यहाँ सिर्फ़ उपहास।" गंगवालजीकी कविताएं जन-पत्रोंमें प्रायः छपती रहती है। श्राधुनिक शैलीको संवेदनाशील और क्रान्तिके भावोंको जगानेवाली कविताएँ आप सुन्दर लिखते है।
रेमन!
रे मन, मन ही मनमे रम रे। विकसित होकर प्राण गवाँता उपवनका उद्यम रे । रे मन०
है देवी वरदान रूप सौन्दर्य अनूठा मिलना ,
किन्तु रादा पीड़ित देखी निर्धनकी सुन्दर ललना , नोंच-नोंच पीड़ित करते हैं कामी, धनिक, अधम रे । रे मनल
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कितना सुन्दर, कितना चंचल, काननका वह मृग रे,
पर उसमें क्या तत्त्व देखता, दुष्ट व्याधका दृग रे, वही रूप लेकर रहता है उस अवोधका दम रे । रे मन
वैभवका वैभव दिखता है सुन्दर, सुन्दरतर, रे, .
अद्भुत महल, अनूपम उपवन, गज, रथ, जर, जेवर रे, चोर लुटेरोंसे पिटवाता वह प्रिय अप्रिय सम रे । रे मन
अपनापन अपनी स्वतन्त्रता अपने में ही लख रे,
इस दम्भी मायाकी जगकी तुझको नहीं परख रे , सहनशीलता नहीं यहाँ त चलना सहम सहम रे । रे मन
उद्बोधन
उठ, उठ मेरे मनके किशोर ! उठ रहा अनल, उठ रही अनिल, उठ रहा गगन, उठ रहा सलिल, पार्थिव कणकणने व्याप्त किया उठ-उठकर यह ब्रह्माण्ड अखिल, उठ पंच तत्त्वके साथ-साथ क्या इनसे तू है भिन्न और, .
उठ, उठ मेरे मनके किशोर ! उठ रही वेदनाएँ प्रति पल, उठ रहीं यातनाएँ प्रति पल, आहे वन-वन चढ़ रहीं गगनमें, आशाएँ जगकी जलजल, वेदना यातना आशाओंका तू भी उठकर पकड़ छोर,
उठ, उठ मेरे मनके किशोर ! मानवता उठती जाती है, दानवता बढ़ती जाती है, इस पुण्य-भूमिकी नवतासे अभिनवता उठती जाती है, इनको सँभालनेको ही उठ, कुछ लगा जोर, कुछ लगा जोर,
उठ, उठ मेरे मनके किशोर ! -
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हलचल
पनन भी उत्थान भी है। है जहाँ निशिका अँधेरा, है वही होता सवेरा ; रवि निशाकरका गगनमें उदय भी अवसान भी है।
__ पतन भी उत्थान भी है। सुमन खिलते है मुदित हो, म्लान भी होते दुखित हो; विश्वको इस वाटिकामे, म्लान भी मुस्कान भी है।
__पतन भी उत्थान भी है। . इन दृगोंमें जल छलकता, और उनमें मद झलकता; हृदय वारिधिमें जहाँ भाटा वहां तूफ़ान भी है।
___ पतन भी उत्थान भी है। है कही वीरान जंगल, श्री' कही उद्घोप दंगल , इस घरातलपर कही कलरव, कही सुनसान भी है।
पतन भी उत्थान भी है। है कहींपर मूक पोड़ा, ओं' कही उद्दाम क्रीड़ा ; विश्वके वैचित्र्यमें प्रासाद श्रीर श्मशान भी है।
पतन भी उत्थान भी है।। है कही साम्राज्य लिप्सा, मी' कही भीषण वुभुक्षा ; विश्व मन्दिरमें कही षट्रस, कही विपपान भी है।
पतन भी उत्थान भी है।
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श्री चम्पालाल सिंबई. 'पुरन्दर
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ग्रारकी जन्मतिथि ५ फरवरी सन् १६१६ है। अापने मात्र कॉलेज मनन एम० ए० तर विमा पाई है और उसके उपरान्त अपने व्यापार कार्यको मनान लिया है।
आर जन् १९३५ने कविताएं और कहानियां निन्ज रहे हैं. जो ननव-नामपर जन-ौनया 'मायुतं'नारों, रिजयाजी प्रतारं आदि महिलिन पत्रोंने नावित होती रही हैं। पारने बाल साहित्याची भी वृष्टि की है। तता का कालचान पत्र्ने भारतस्यू-सहोर के नाम लेन्द्र और कहानियां देते हैं।
भारत छोटे भाई श्री माताल लिई सुन्दर गीतिकाल निते हैं। 'परन्दर नोनी कविताएँ प्रोजनयी और प्रसाद गुगयुक्त होती हैं।
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दीप-निर्वाण (कन्याके स्वर्गवासपर)
पलमें हुआ दीप निर्वाण । जीवनका पूरा प्रकाश था , प्राशाओंका मधुर हास था ,
प्रेम-पयोनिधिका विलास था , दो हृदयोंके स्नेह-मिलनका सुन्दर फैल था वह अनजान ।
जव तक श्वासा तब तक आगा , कुटिल जगत्का यही तमाशा ,
क्षणमें आशा हुई निराशा , ज्योति मनोहर क्षीण हो गई, नष्ट हुए उरके अरमान ।
जव तक नश्वर देह न छूटी ,
तव तक ममता-रज्जु न टूटी , . हाय, कालने कैसी लूटी , अभी-अभी सुख-सेज रही जो वह भी अव धन गई मसान ।
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चन्देरी रहे चिरन्तन चन्देरी जिसको निज मान दुलारा है ।
उठा उच्च शिर-शृंग विध्य-गिरि नित रक्षा-रत होता , वेत्रवतीका परम पूत पय पादाम्बुजको घोता , 'जिसका नाम-स्मरणमात्र मनसे कायरपन खोता , सदा काल अद्भुत साहसका रहा सलोना सोता।
धीर-वीर रणसिंह-वती कुल-लाजधरोंका प्यारा है। जिसने स्वाभिमानसे अपना ऊंचा शीश उठाया , ' उस शिशुपाल नृपाल श्रेष्ठका सुयश महीमें छाया , ' . जहाँ कन्दराओंमें अनुपम मूर्तिसमूह रचाया , तपकर वहाँ महर्षिवरोंने ज्ञान अनोखा पाया।
जिनके अनुगामी हैं समझे 'तृणवत् भूतल सारा है'। कीतिपालकी कीर्ति कीर्तिगढ़, यहाँ अचल अभिमानी, बुन्देलोंके प्राणदानको जो अमरत्व प्रदानी , राजपूत महिलाओंके जौहरकी अमिट निशानी , कण-कण कथित यहाँ राणा साँगाकी विजय-कहानी।
प्रण-पालन हित प्राणार्पण-युत वही त्यागकी धारा है। शिल्पकला-कौशलकी कोने-कोने फैली राका , . 'वस्त्र-कलामें निपुण, मध्य-भारतका यह है ढाका ,
रिक्त न होवे कभी रम्यता कोप विपुल सुपमाका , - गूंज रहा है आज सिन्धियाके प्रतापका साका ।
आत्मशक्ति-साहसके मदमें यश-सौरभ विस्तारा है।
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प्रगति-प्रवाह
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श्री मुनि अमृतचन्द्र, 'सुधा'
श्री अमृतचन्द्र 'सुधा का जन्म सन् १९२२में आगरेमें हुमा। आपके पिता पं० युगलकिशोरजी अपने यहाँके प्रसिद्ध ज्योतिषी थे। सन् १९३८ में इन्होंने स्थानकवासी सम्प्रदायको मुनि-दीक्षा ले ली। आपने लगभग सात कविता-पुस्तकें रची हैं, जो प्रकाशित हो चुकी हैं।
इनकी कविताओंका विषय प्रायः धार्मिक, सामाजिक और सांस्कृतिक होता है । कविताको शैली आधुनिक ढंगकी है । भाषा और भाव सरल
होते हैं।
अन्तर
मानस मानसमें अन्तर है। अड़ी खड़ी है आज हमारे
सम्मुख कैसी जटिल समस्या ; मुलझ न सकती, अरे, कहो, क्या
विफल हुई सम्पूर्ण तपस्या ? मुप्त पड़ी है वही भूमिका जिसपर उन्नति पथ निर्भर है।
गवित था जो देश कभी
अपने गौरवके गानोंसे ; आज शून्य होता जाता वह
नितके नव-अपमानोंसे । नाम हमारा कभी अपर था, काम हमारा आज अपर है।
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रह करके परतन्त्र हमारा
क्या कुछ जीनेमें हैं जीना; वीरोंका वह खून, अरे, क्या
· निकल गया वन पतित पसीना ? कहो आज अस्तित्व हमारा क्योंकर तुला लचरतापर है।
बढ़े जा बढ़े जा, अरे पथिक, मत वोल !
जब तक तेरे विस्तृत पथकी अन्तिम संध्या निकट ना ले। देख, कहीं अब तू मत सोना, व्यर्थ समय यों ही मत खोना ; कभी न भूल प्रमादी होना , निरुत्साहका बोझ न ढोना। • भयको कर भयभीत हृदयसे, निर्भयताको ध्येय बना ले। चाहे लाखों संकट आयें , भीषणताएँ आन सतायें; पर तेरे पगकी सीमाएँ पथसे विचलित हो ना जायें।
अपनी धुनमें गाये जा तू, अपने पथके गीत निराले। अग्र गमन हो प्रतिदिन तेरा , कह दे मैं जगका, जग मेरा; कभी मार्ग में हो न अँधेरा, जब तू जागे तभी सवेरा।
___पराधीनताके मुखमें तू जड़ दे आजादीके ताले । थक मत, आगेको बढ़ता जा ; उन्नतिके गिरिपर चढ़ता जा ; पान्थ, परीक्षामें कढ़ता जा , निजमें निजताको पढ़ता जा।
होकर प्रेम-प्रणयमें पागल पीले भर-भर रसके प्याले ; जब तक तेरे विस्तृत पथकी अन्तिम संध्या निकट न आले।
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जीवन
प्रेममय जीवन वनूं मैं। साधना मेरी अभय हो , सत्यसे सुरभित हृदय हो; मफल तर-मी वर विनय हो , सुखट मेरा प्रति समय हो।
स्वच्छता-धन घन बनूं मैं। हो मिली मुझको सफलता , और अचला-सी अचलता ; नाग हो सारी विफलता , मैं निभा पाऊं सरलता।
सरसता-उपवन वनूं मैं।
दृग् सदयताके सदन हों, मधुर मधुसे भी वचन हों ; मित्र मेरे मुजन जन हों, लख मुझसव मुदित मन हों।
आप अपनापन वनं में।
पाउँ सत्कृतमें मुगमता , त्याग दूं सम्पूर्ण ममता ; भस्म कर डालू विपमता , धार लूं निज आत्म-दमता।
निर्वनोंका वन वनूं मैं। मानसिक संध्या विमल हो , भावना मेरी धवल हो; धर्ममय पल हो, विपल हो , शील भी शुभ हो, सवल हो।
सोन्यका सावन वनूं मैं।
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श्री घासीराम, 'चन्द्र'
श्री घासीराम 'चन्द्र', नई सराय, लगभग १०-१२ वर्षते कविताएँ लिख रहे हैं । प्रारम्भमें आपने कवि-सम्मेलनोंके लिए समस्या पूर्ति करके कविता रचनेका अभ्यास किया । अव आप स्वतन्त्र विषयोंपर रचनाएँ करते हैं। आप भावोंकी सुकुमारताको अपेक्षा विषयको उपयोगिताकी और अधिक आकर्षित होते हैं ।
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फूलसे
चार दिनकी चांदनी, फूल, क्योंकर फूलता है ? बैठकर सुखके हिंडोले, हाय, निश-दिन भूलता है ! श्रायगा जब मलय पावन, ले उड़ेगा सुख सुवासित ; हाथ मल रह जायेंगे माली, बनेगा गून्य उपवन ।
फिर बता इन क्षणिक जीवनमें, अरे, क्यों भूलता है ? कर रहा शृंगार नव-नव नित्य-नित्य राजा सजाकर ; गा रहा श्रानन्द बुरपद प्रेम-वीन वजा-बजाकर
कालकी इसनें सदा रहती घरे प्रतिकूलता है !
आज तू सुकुमारतामें मग्न है निश-दिन निरन्तर ; एक क्षण-भरने, घरे, हो जायगा अति दीर्घ अन्तर |
है यही जग-रीति क्षण-क्षण सूक्ष्म औ स्थूलता है ।
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ग्राज जो हर्षा रही पाकर तुझे सुकुमार डाली ; कल वही हो जायगी सौभाग्यसे वस हाय खाली ।
देखकर लाली जगत्की काल 'निश-दिन भूलता है ।
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आज जो तेरे लिये सर्वस्व करते हैं निछावर ; कल वही पद धूलमें तेरे लिये फेंके निरन्तर ।
स्वार्थ-मय लीला जगत्की, मूर्ख, क्योंकर हूलता है ।
विश्वका नाटक क्षणिक है, पलटते हे पट निरन्तर ; आज जो है कल उसीमें ही रहा सुविशाल अन्तर ।
है अभी अज्ञात इसमें 'चन्द्र' क्या निर्मूलता है ; चार दिनकी चांदनीमें फूल क्योंकर फूलता है ?
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पं० राजकुमार, 'साहित्याचार्य्य'
पं० राजकुमारजी जैन समाजके श्रतीव होनहार और सुयोग्य विद्वान् हैं । श्राप संस्कृत साहित्यके तो प्राचार्य हैं हो, हिन्दीके भी सुलेखक श्री कुशल कवि हैं । श्रापने 'पाश्र्वाभ्युदय' नामक संस्कृत काव्यका हिन्दी कविता सुन्दर अनुवाद किया है । ये खंड-काव्य तथा श्रतुकान्त afaar लिखने में विशेष रूपसे सफल हुए हैं ।
आह्वान
जब जीवन - भाग्याकाश घिरा था
कलुष-धन- मालासे ।
कुटिल धू-धू कर जले जा रहे थे नर-पशु जलती ऋतु - ज्वालासे ॥ भू माँका था फट रहा वक्ष,
ग्राकाश सजल नयनाञ्चित था । वह स्नेह, विश्व वन्धुत्व-भाव
जीवनमें कहीं न किञ्चित् था ॥ तव धीर वीर, तुमने ग्राकर
समताका पाठ पढ़ाया था। वसुधापर सुवा-कलित करुणा
का सुन्दर स्रोत बहाया था ॥
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X
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पर वीर, तुम्हारा कर्म-मार्ग हो चुका श्राज विस्मृत विलीन |
कर रहे आजसे फिर मानवमानवताको मलीन ॥ -
मंजुल
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___ जल रहे निखिल पुरजन-परिजन
. विध्वंस - पिण्ड - ज्वालाओंमें। है चीख रही सारी जनता
उन कोटि-कोटि मालाओंमें ।।. लुट गया आज माताओंका
सौभाग्य, हुई सूनी गोदी। मानवने फिर संहार-हेतु
वह एक नई खाई खोदी ॥ नर कहीं तरसते दानेको
शिशु कहीं विलखते मात-हीन । झोंके जाते हैं कहीं वही
स्फोटक - ज्वालानोंमें, कुलीन ॥ है वीर, विषमता यह कैसी
कैसा यह अत्याचार-जाल । क्यों हुआ अचानक ही कैसा
भीषण यह कुटिल कराल काल । आओ, फिर आओ, महावीर,
__यह विषम परिस्थिति सुलझाओ । सत्पथसे भूली जनताको
मङ्गलमय पथ दिखला जाओ ॥
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श्री ताराचन्द, 'मकरन्द'
'मकरन्द 'जीकी कविता प्रायः जैन-पत्रोंमें छपती रहती है । इनकी कविताएँ शैलीमें छायावादी ढंगकी होती हैं । जहाँ कविताओंका अभ्यन्तर कुछ स्पष्ट हो जाता है, वहां छायावादी शैली कवि और पाठक दोनोंके लिए बाधक हो उठती है । आशा है प्रगतिकी सीढ़ियोंपर दृढ़तासे पग रखते हुए 'मकरन्द' अभी श्रागे और बढ़ेंगे —— ठीक दिशामें ।
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जीवन - घड़ियाँ
ओ जाग, जाग सोनेवाले
हो गया देख स्वर्णिम प्रभात जीवन-घड़ियाँ क्यों सोनेमें यों बिता रहा जब गई रात ?
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सोते बदहोश तुम्हें मानव हैं बीत चुकी अगणित सदियाँ, क्यों अलसाये तुम पड़े हुए खो रहे आप अपनी निधियाँ ?
मानस-तटपर
यद्यपि तेरे
आते हैं किरणोंके वितान,
फिर भी तू सोता ही रहता आलसकी
चद्दर
तान-तान !
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जीवनके क्षण-क्षण वीत रहे मोतीकी टूट रहीं लड़ियाँ , इन इने-गिने दो दिनमें ही 'बीती जाती जीवन-घड़ियाँ।
फिर हाथ भला क्या आवेगा सचमुच यदि हालत यही रही , मौका पा करके ही धो लो वहती गंगाकी धार यही ।
प्रोस रजनीके प्रियतम बनकर, ले प्रणय वेदना सपना; आये निशीथके अंचल, अस्तित्व मिटाने अपना । ऊपाकी अरुणा नभसे स्वागत करनेको तेरा; प्रतिविम्बित हो प्रतिक्षणमें, तेरा शृंगार सुनहरा। अथवा स्वर-परियोंके ये, मालाके मोती क्षितिपर ; किसके उरमें परिवेदन, उनकी निर्ममतम कृतिपर । किस हृदयहारके अनुपम, उज्ज्वल ये विखरे मोती;
शृंगार सुरभिमें परिणत, तुमने छोड़ा है रोती ? स्वप्नोंकी अर्ध-निगामें शीतल समीर झकझोरे ; निस्तव्य प्रकृतिके आँसू पुलकित उरके किलकोरे । देदीप्यमान रवि प्राकर, वसुधापर नवल प्रभाएँ; तेरे मृदुतम तव तनसे कई एक निकलती आहे। क्षणभंगुर है जग-मानव, जल-कणकी करुण कहानी ; वैराग्य हृदयमें तेरे, नयनोंमें होगा पानी।
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पुनर्मिलन मेरी जीवन कुटियामें तुम एक बार फिर आना।
जीवन - वमन्नमें मेरे जब छाई हो अरुणाई , कोकिलके पुलकित स्वरने
हो प्रेम रागिनी गाई; जीवनके पुनर्मिलनमें मैंने तुझको पहचाना।
मै मृदुल मालिनी भोली नू मन्त्र-मुग्य-सा योगी, तेरे वियोगमें मेरी
अन्तर्बाला क्या होगी: म्वर क्षीण हुई वीणाकी तन्त्रीके तार जगाना।
मेरे जीवन • उपवनमें जब मुरभित नुमन खिले हों, चिर-चिर अनन्तके पथमें
कलियोंसे मयुप मिले हों: लहरोके फेनिल पयमें बस एक वार मुस्काना।
हों चन्द्र देव, प्रिय रजनी ये निलमिल नमके तारे, मैं शून्य वासिनी जगकी
ये ही हैं एक सहारे; सहना विलीन हो निमि फिर भूल मुझे मत जाना। मेरी जीवन कुटियामें तुम एक बार फिर पाना॥
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श्री सुमेरचन्द्र, 'कौशल'
श्री सुमेरचन्द्रजी वकील 'कोशल' सिवनीको प्रसिद्ध फ़र्म हुक्मचन्द कोमलचन्दके मालिक हैं । आपने अभी तीन वर्ष पूर्व वकालत प्रारम्भ की है | आपकी अभिरुचि वाल्यकालसे ही साहित्य, दर्शन और संगीतकी श्रोर विशेष रूपसे है । प्रापं लेख, कहानियाँ और कविता लिखा करते हैं जो जैन श्रजैन पत्रोंमें सम्मानके साथ प्रकाशित होती है । आप एक प्रभावशाली वक्ता श्रीर उत्साही सामाजिक कार्यकर्ता भी हैं । श्रापकी कवितामें दार्शनिक पुट रहती है, फिर भी वह सुवोध श्रीर सुन्दर होती है ।
जीवन पहेली
इस छोटेसे जीवनमें, कितनी आशाएँ वांधी; लघु-उरमें भावुकताकी आने दी भीषण आँधी । श्राशाका उड़नखटोला ऊंचा ही उड़ता जाता;
क्या मृगतृष्णामें पड़कर, यह जीवन सुखी कहाता ? दुख सुखकी श्रखमिचौनी है सब संसार बनाये ;
आशा तृष्णाके वग हो, जगतीमें पुरुष भ्रमाये 1 'जीवन है जब पहेली, क्या भेद समझमें श्राये;
'कोयल' ज्यों इसको खोलो, त्यों-त्यों यह उलझी जाये ।
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आत्म-वेदन
निराशामें बैठे मन मार,
किया करते हो किसका ध्यान ; वनाकर पागल जैसा वेष .
किया क्यों सुन्दर तन अति म्लान ? अरे, तुम हो उत्कृष्ट विभूति,
प्रणय-तन्त्रीकी सुन्दर तान ; मृपा सुख-स्वप्नोंका छवि-धाम, .
किया क्यों मायाका परिधान ?
लिया क्या छीन तुम्हारा प्यार,
किसी निर्मम निर्दयने आज ; वनाया कातर 'किसने आज
दूसरोंके हो क्यों मुंहताज ? खोल निज अन्तरदृष्टि महान्,
त्याग दुनियाके कार्यकलाप ; खोजता फिरता है तू जिसे,
हृदयमें छिपा हुआ है 'आप' ।
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श्री वालचन्द्र, 'विशारद
श्री वालचन्द्रकी श्रायु अभी २० वर्षको है। कविता रचनेमें इनकी नैसर्गिक प्रवृत्ति है । मालूम होता है जीवनके विषादने इन्हें निराशावादी बनाया है। ये अपने श्रापको 'नियतिके हाथको गेंद' मानते हैं।
वालचन्द्रजी कविता केवल 'स्वान्तः सुखाय' रचते हैं, और इसमें वास्तविक मानन्द अनुभव करते हैं।
चित्रकारसे
चित्रकार चित्रित कर दे। मेरा गिव औ' सत्य चित्र, सुन्दर पटपर अंकित कर दे।
नैराश्य-सिन्धु यह अगम अतल , जीवन-नौका हो रही विचल , लहरें घातक, अतिशय हलचल ,
मन-माझी भी मेरा चंचल, मुग्व दुखकी विकट तरंगोंको तू उत्तालित दर्शित कर दे।
मेरे जीवनमें प्रेम छिपा , अनुराग छिपा, सन्ताप छिपा, पीड़ाओंके उद्धार छिपे,
हँसते-रोते उद्गार ' छिपे , कुछ हूक छिपी कुछ भूख छिपी, स्पष्ट प्राज सन्मुख रख दे।
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मेरे जीवनमें व्याज नहीं, मेरे जीवनमें साज नहीं, मेरे मस्तकपर ताज नहीं,
मुझपर ही अपना राज नहीं, - मैं सदा निराश्रित, नियति-शास्ता-शासित तू इसमें लिख दे।
सन्ताप-तप्त ये जलते क्षण, आक्रान्त व्यथित पृथ्वीके कण , दावानल दग्ध वृहत्तर वन ,
संकुल-व्याकुल खग-पशु जन गण , : ऐसे कितने आदर्श ढूंढ़कर पृष्ठभूमि निर्मित कर दे।
. अगस्त यह 'दिन महान,
स्मृतिपटपर अंकित निशान , मानस पीड़ाका मूर्त ज्ञान , भंकृत करता हृत्तन्त्रि तान , शंकित कम्पित निश्वस्त प्राण ,
हा आह गान । अन्वी रजनीका अन्वगान , स्वर्गगाका शुभ दीप-दान , नैराश्य प्रस्तका श्रान्त मान , * अन्तरका आशा ज्योति जान ,
संस्मृत स्वज्ञान। ~~ १४४ -
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वह दृश्य आज भी कम्पमान आता समक्ष जीवित सप्राण, अनजान प्रतिसे भयाक्रान्त शंकित हो उठते युगल कान,
वह
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वे नवयुगके
नवयुवक-प्राण,
वे सजग, गठिततन श्री' सज्ञान, झंडा करमे ले स्वाभिमान, बढ़-चढ़ करते थे शीस-दान,
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वह क्रन्दन-स्वर, वह रुदनगान , वह पीड़ा, वह त्रस्ताभिमान, सन्तप्त मान, संत्यक्त जान, संकल्पशक्तिसे शक्त प्राण ,
अनुदान ।
वह राष्ट्र- मान ।
अव भी समान ।
हम शान्त रहें या रहें क्लान्त, हम सुखी रहें या दुःख उद्दान्त, हम मुक्त रहें या पराक्रान्त, स्मरण रहेगा यह वृत्तान्त,
यदि देश ज्ञान ।
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गीत
आज हमें फिर रोना होगा ।
नई-नई आशाएँ लेकर, अरमानोंको खूब संजोकर,
स्वप्न-चित्र सुखका खींचा था आज उसें फिर धोना होगा । आज हमें फिर रोना होगा ।
मधुर कल्पना - जाल बिछाकर, नुपम अतिशय महल बनाकर,
निर्मित लस अलौकिक जगको आज वाध्य हो खोना होगा । आज हमें फिर रोना होगा ।
अव न रहेंगी सुखद वृत्तियाँ, शेष बचेंगी मधुरस्मृतियाँ,
उन्हें छिपाये ही हृत्तलमें मरते-मरते जीना होगा । आज हमें फिर रोना होगा ।
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'आंसूसे कौन आ रहा है तुम जिसका , स्वागत करने आए हो। चुन-चुन मुक्तामणि सुन्दरतम , हार सजाकर लाए हो ॥१ .
कहो, आज क्यों प्रकट हुए हो , भग्न हृदयके मृदु उद्गार । कैमे ढुलक पड़े हो वोलो, कसा पीड़ाका उद्भार ॥२
अरे वेदनाके सहचर तुम तप्त हृदयके मद्ध सन्ताप । उमड़ी पीड़ाकी सरिताके ,
कैसे अभिनव अनुपम माप ॥३ छलक पड़े तुम, दुलक पड़े तुम , मन्द-मन्द अविरल गति धार । इन विपढायोंके समक्ष क्या ,
मान चुके हो अपनी हार ॥४ हार! नहीं, यह विजय तुम्हारी , महनशीलताके सुविचार ।
आँख उठाकर देखो, रोता हमदर्दसि यह संसार ||५
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श्री हरीन्द्रभूषण जी, सागर
श्री हरीन्द्रभूषणनी एक उदीयमान कवि हैं। यह गवर्नमेंट संस्कृत कॉलेनबनारसके साहित्यशास्त्री हैं और हिन्दीके अच्छे लेखक हैं।
निवास-स्यान इनका सागर है और कुछ वर्ष तक ये स्याहाद महाविद्यालय तथा हिन्दू विश्वविद्यालय काशीके स्नातक भी रह चुके हैं। साहित्यको तरह समाज और राष्ट्र सेवासे भी प्रापको लगन है। ।
आपको कविता भावपूर्ण और भाषा प्राञ्जल है।
वसन्त
मैं समझ नहीं पाया अब तक ,. किस तरह मनाएँ हम वसन्त ।
अवखुला वदन अवनरा पेट , है कौन बड़ा यह कृषित काय । आंखोंने मोती छलक रहे , मैं समझ गया यह कृषक हाय ।
सर्दी गर्मीका नहीं भेद, अनसे जिसको है सदा काम । भरपेट अन्न उसको न मिले, जिससे पलती दुनिया तमाम ।
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विश्वम्भर अन्नपूर्णाके, सुतका जव ही यह हाल, हन्त । मैं समझ नहीं पाया अब तक ,
किस तरह मनाएँ हम वसन्त । (२) परसेवा जिसका एक ध्येय , • तनकी जिसको परवाह नहीं ! मानव मानवको खीच रहा , यशकी जिसको कुछ चाह नहीं !
भूखे नंगे बच्चे फिरते , मुंहसे न निकलती कभी ग्राह ।
रोटी-रोटीका जटिल प्रश्न , जिसको करता प्रतिक्षण तवाह ।
भारत माके इन पुत्रोंका , इस तरह जहाँ हो विकल अन्त । मैं समझ नहीं पाया अब तक , किस तरह मनाएँ हम वसन्त ।
आ गया द्वार पर वह देखो , दिख रहा क्षीण कंकालमान !
औरत वच्चे सव भूख-भूख , चिल्लाते करमें लिये पात्र !
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पर नहीं तरस हम खाते हैं, कह देते जा आगे बढ़ जा ! पा रहा किया जो कुछ तूने , कल मरता था अब ही मर जा ।
.. इस तरह भूखकी ज्वालामें ,
जलते रहते प्रतिक्षण अनन्त । मैं समझ नहीं पाया अब तक ,
किस तरह मनाएँ हम वसन्त । ( ४ ) इस तरफ गगनचुम्बी आलय , जिनमें रहते दो-तीन प्राण ! मानवताका उपहास यहाँ , मानवता बैठी मूर्तिमान ।
दूसरी तरफ हम देख रहे , टूटी कुटियापर घास-फूस। . बकरी भेड़ोंकी तरह सदा जन रहते जिनमें ढूंस-ठूस !
इस तरह विषमताकी ज्वाला, होती जाती प्रतिक्षण ज्वलन्त । मैं समझ नहीं पाया अब तक , किस तरह मनाएँ हम वसन्त ।
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(५) दाने-दानेको तरस जहाँ , बच्चे बूढ़े दे रहे प्राण । पथपर शवका लग रहा ढेर, गृह स्वर्ग तुल्य हो गये श्मशान ।
द्रोपदि, सीता, सावित्री-सी , कुल-वधुएँ क्या कर रहीं आज । तन बेच रहीं दो टुकड़ोंपर , हो गया पतित मानव समाज ।
दो-दो पानेमें पुत्रोंको, मां बेच रही हो जहाँ हन्त । मैं समझ नहीं पाया अब तक , किस तरह मनाएँ हम वसन्त ।
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श्री सुमेरु चन्द्र शास्त्री, 'मेरु'
आप बहराइच (यू० पी० ) के रहनेवाले हैं । व्याकरण, न्याय और साहित्यके विद्वान् हैं | खड़ी वोलीमें सवैया श्रादि छन्दोंमें बहुत सुन्दर रचना करते हैं । स्थानीय साहित्यिक क्षेत्रमें आपका बहुत श्रादर है । यह 'कवि संघ' बहराइचके मन्त्री हैं । समस्या-पूर्ति विशेष रूपसे सफलतापूर्वक करते हैं।
शारदा-स्तुति
वारदे, निहारि दे कृपाकी कोर एक बार, कल्पनामें केशव कवीन्द्र वन जाएँ हम ; वीररस भूषणकी व्यञ्जित पदावलीकी
योज-भरी प्रतिमाका रूपं दिखलायें हम ; 'सूर' सी सरल रस- रोचनामें सिद्धहस्त
'तुलसी' सी चारु चरितावली सुनायें हम ; 'मेन' कवि वीणापाणि वीणा झनकार दे तो मञ्जुल पताका कविताकी फहरायें हम |
सुवर्ण उपालम्भ
नहि दुःख जरा भी हुआ मनको
जब खानसे खोद निकाला गया ; नहि कान्ति मलीन भई तब भी
जब ज्वालमें डाल तपाया गया । 'उ' भी निकली न जुवांने मेरी
जब रूप कुरूप बनाया गया ; पर दुःख्नु है तुच्छ महा घुंवचीफलचे यह तोलमें लाया गया ।
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महाकवि तुलसी राघव पुनीत पद-पद्मका पुजारी वह
भक्त मण्डलीका एक धीर वीर नेता था ; अटल प्रतिनामें था, अचल हिमाचल-सा
जान-कर्म-भक्तिकी पवित्र नाव खेता था। अणु परमाणुषोंमें सारे विश्व मण्डलोंमें ।
रामका स्वल्प देख 'राम' नाम लेता था; हुलसी' का लाल हिन्द हिन्दी हियमाल वन
राम-पद प्रीतिका मनोज जान देता था ।१ धन्य वह कंटकोंकी डाल अभिनन्दनीय
विकसित होता जहाँ सुमन सहास है; संसृतिमें वन्य वह पतझड़वाला ऋतु
जिसमें छिपा हुआ वसन्तका विलास है। नर देह नश्वर भी जगमें प्रशंसनीय
क्रीड़ाका अनन्तकी वना जो अविवास है; दीनोंका दलित देग वन्य कहलाये क्यों न
_ 'तुलसी'-सा रत्न जहाँ करता प्रकाग है ।२ कविवर, तेरी भारतीमें है अनोखी ज्योति
होती ज्यों पुरानी त्यों नई-सी दिखलाती है; विश्वका रुदन और सृष्टिका विशद हास
मृदुल ‘पदावली' तो स्वयं बताती है। , एक-एक छन्दसे है वसुवा सुवामयी-सी
जीवन संगीतका अपूर्व गीत गाती है; अतएव मुग्ध होके आज कवि-मण्डली भी
तुलसी पदोंमें प्रेम-अंजलि चढ़ाती है।३
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परिचय
हृदय हिमालय हिलेगा परिचय सुन पूछो मत कैसी उर-वेदनाका भार हूँ ; विश्वकी समस्त सम्पदाएं जिससे हैं दूर
क्रूर उस जगका तिरस्कृत में प्यार हूँ । स्वप्निल जगत् नव्य तन्द्रिल बना ही रहा
केन्द्र करुणाका वह फेनिल असार हूँ ; विग्रह विरोव अवहेलना परावृत हूँ चाहत हृदयका विकट हाहाकार हूँ |१
नित्य मन मन्दिरके प्रांगणमें खेल रही
पूरी जो न हो सकेगी ऐसी एक चाह है ; खण्ड-खण्ड हो चुके मनोरथके सेतु जहाँ
चाह हीन घोर दुःख सागर अथाह हूँ । प्रतिरुद्ध हेतु हुए विफल प्रयत्न ऐसा
अविरल रूप अश्रु-धाराका प्रवाह हूँ ; सुनना सनकता विचारना है कोसों दूर, ऐसे बान्त उरकी में कठिन कराह हूँ |२
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कवि-गर्वोक्ति
अतुलित शक्ति मेरी कौन जानता है कहो,
चाहूँ तो त्रिलोकमें नवीन रस भर दूं; भर दूं महान् ज्ञान विपुल विलास हास,
विशद विकासका विचित्र चित्र घर दूं। विहँस न पाई जो प्रसुप्त सदियोंसे पड़ी
ऐसी भावनाओंका प्रकाश दिव्य कर दूं; मेरी मति माने तो तुरन्त मन्त्र मारकर
देशके अशेष व्यपदेश क्लेश हर दूं।१
एस
विषम विषले पार तथ्यसे हलाहलको
सार-हीन कर अस्तित्व भी मिटा दूं मैं ; जटिल समस्या या कि कठिन पहेली क्या है
विधिके विधानका भी गौरव घटा दूं मैं। शंखनाद जयपूर्ण पार हो क्षितिजके भी,
अचल हिमाचलको सचल बना दूं मै ; कल्पना-किले में जिसे बाँधना असम्भव हो
सम्भव बना दूं यदि शक्ति प्रगटा दूं मै ।२
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श्री अमृतलाल जी, 'फणीन्द्र'
श्री अमृतलालजी 'फणीन्द्र' टीकमगढ़ स्टेट और झाँसी जिलेकेप्रमुख जनप्रिय साहित्यिक श्रीर सुकवि हैं । श्रापकी कविताएँ, कहानी, एकाङ्की तथा लेख सार्वजनिक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहते हैं । आपकी रचनाएँ मामिक और अग्निगर्भ हैं । आपकी 'विश्वक्रान्ति' (नाटक) और 'रैयतकी लड़ाई (आल्हा ) - यह दो रचनाएँ शीघ्र ही प्रकाशित होकर पाठकोंके हाथमें पहुंचेंगी।
'फणीन्द्रजी साहित्यिक ही नहीं, बल्कि एक उदीयमान राजनीतिककार्यकर्ता भी हैं । श्राप श्रोरधा स्टेटके एम० एल० ए० तथा 'ओरछा सेवासंघ के सहायक मन्त्री हैं । ग्रापसे साहित्य, समाज तथा देशको अनेक आशाएँ हैं ।
क्रान्तिका सैनिक
में अग्रिम युगकी अमर क्रान्ति सैनिक, संसार हिला दूंगा, मानवतापर मर मिटनेकी घर घरमें आग जला दूंगा । यो सम्हलो शोपण कर्ताओ, मानव वन मानत्र खाया है, दानवता दलने मानवताका दूत सामने आया है । तुमने मज़दूरोंको तरसाया मुट्ठी-मुट्ठी दानोंको, टुकड़े-टुकड़ेपर कटवाया तुमने जीवित सन्तानोंको । सड़कोंपर मुर्दा मजदूरोंको देख-देख सुख पाते तुम कंगालोंकी भूखी टोली लख फूले नहीं समाते तुम । सोचा तुमने भी नहीं तनिक आखिर इन्सान तुम्हीस हैं, ये तेनिक अन्नके भूखे हैं ये तनिक माँड़के प्यासे हैं । जव चला तुम्हारा वस तुमने मुंहमसे छीना कौर मेरा । ठुकरा, ठुकराकर दण्डित अपमानित कर के छीना ठौर मेरा ।
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इस तरह अनेकों इस जर्जर सीनेसे कुटिल प्रहार सहे , इन पके हुए फोड़ोंपर भी दुष्कृत्य अनेकों वार सहे। नहिं सह सकता हर्गिज़ आगे दुर्दान्त दासताके वन्वन , नहिं सुन सकता हर्गिज़ आगे पद दलित प्रजाके नित क्रन्दन । हममें वल है उजड़ी वगियाको गुलशन पुनः बना देंगे, लेकिन इन काले कृत्योंका तुमसे भरसक उत्तर लेंगे। मेरे इस विकल घरकते दिलसे निकलेंगी चीत्कारें, सत्ताधीशोंके महलोंकी हिल जाएंगी दृढ़ दीवारें। मेरी वाहोंमें वह वल है सौदामिनि दिश-दिश तड़क उठे, मेरी बाहोंमें वह वल है विप्लवकी अग्नी भड़क उठे। मेरे लघु एक इशारेपर अम्बरके तारे टूट पड़ें, वस मेरे फ़क़त इशारेपर ज्वालागिर दिश-दिश फूट पड़ें। मैं हिलू, डगमगा उठे भूमि, मुर्दा कन्नोसे बोल उठे, अंगड़ाई लेने लगे विश्व अविचल सुमेरु भी डोल उठे। मैं वह सैनिक जिसको मरनेसे किंचित् होता क्षोभ नहीं, माँकी गोदीकी ममता या यौवनके सुखका लोभ नहीं। हम नहीं हिलाये जा सकते शस्त्रोंके कुटिल प्रहारोंसे , अव नहीं दवाये जा सकते जुल्मों औ अत्याचारोंसे । हम साम्यवादके दूत हलाहलको हँस-हँस पीनेवाले , हम आजादीके पूत मौतसे लड़-लड़कर जीनेवाले। है आज फैसला जगकी आज़ादीका या पालादीका , जन रक्षामें उलझा सवाल है दुश्मनकी वरवादीका। कर देंगे चकनाचूर शत्रुको इन फ़ौलादी पांवोंसे , शासन जनताका जनतापर करवा देंगे निज प्राणोंसे। रहने नहिं देंगे दुनियामे हम भाग्य विधाता ए पैसे , कंगालोंकी भूखी टोली फिर आएगी आगे कैसे ?
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दानवता हत्याखोरोंकी मानवताके पद पकड़ेगी, जो आज झुकाती है ताक़त वह झुक सिर पगमें रख देगी। नहिं होगा कोई ग़रीव और सरमायादार नहीं होंगे, साम्राज्य नहीं, फ़ासिम, देश द्रोही गद्दार नहीं होंगे। नहिं आएंगी नयनों समक्ष पैशाचिकताकी तस्वीरें, हो खण्ड खण्ड, कड़कड़ा उठे दुर्दान्त हमारी जंजीरें। फिर रह न सकेंगे क्रूर कहीं अवनीपर नवयुग आवेगा , कोने, कोनेमें मजदूरोंका झण्डा जव फहरावेगा।
सपना
(इंगलैंडके चुनाव पर)
आज देखा एक सपना। चिर युगोसे चक्षु जिसको सजल हो हो ढूंढ़ते थे, देखता हूँ आज, जिसकी यादसे अरि घूरते थे। दासताके दुर्ग ढहते भूमि लुण्ठित ताज देखे , जालिमोंकी छातियोंपर गरजते मुहताज देखे । स्वर्ण सिंहासन उलटते धूलिमें रवि रश्मि देखी , विश्वके श्रमजीवियोंकी विजयकी प्रतिमूर्ति देखी। झूमती है निराभूपण क्रान्तिकी मन हरन प्रतिमा , कालिमाको चीर लालीकी वही शत रश्मि आभा ।
तान घूसे कह रहे सवजहाँ अपनी, विश्व अपना ,
आज देखा एक सपना।
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श्री गुलाबचन्द्र, ढाना
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आप सागर जिलेके ढाना ग्रामके निवासी हैं। अनेक विषयोंकी जानकारी रखनेके अतिरिक्त साहित्यसे आपको विशेष रुचि है। अपने यहाँके राजनैतिक क्षेत्रमें भी ये सक्रिय भाग लेते हैं और जेल-यात्रा कर पाये हैं। कविता अच्छी कर लेते हैं। अन्तरको अनुभूतिकी व्यंजना कम है।
चन्द्र के प्रति निशाकी नीरवता कर भंग गगनमें आते हो चुपचाप, विश्वको देते क्या उपदेश वताओ, हे राकापति, आप ?
सूर्यकी प्रखर रश्मियोंसे जगत् सन्तापित होता नित्य , उसे फिर शीतलता देना
निशापति, तेरा ध्येय पवित्र । रंकसे राजाओं तक सदा एक-सा है तेरा व्यवहार, प्रवद्धित होते हो हर रोज़ सुधाकर, करते हो उपकार ।
तुम्हें कहते हैं कवि सकलंक वड़ा निष्ठुर है यह व्यवहार, किन्तु मुखकी उपमा देकर किया करते हैं कुछ प्रतिकार ।
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- नित्य होते जाते कृश-काय बताओ, हे शशि, है क्या वात, कौन-सी दुश्चिन्तामें ग्राह बनाते हो अपना कृश गात ?
पद्म- कलिकाएँ मुरझाकर 'प्रफुल्लित होते थे, राकेश, इसीसे प्रतिद्वन्द्वी तेरा
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वना है क्या वह चण्ड दिने ॥
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विभाजित कर रक्खा क्यों व्ययं तारिकाओं में अपना सार, इसीसे काला है क्या हृदय जिसे लखता सारा संसार ?
इसीसे दुर्बल होकर, इन्दु एक दिन खोते निज सम्मान, सिखाते दुनियाको यह पाठ मानका होता यों अवसान ।
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सफल जीवन
• आँख वह होती न बिलकुल
जो न पर दुख देख रोती, काम उसका क्या हुआ जो स्वयं सुखमें तृप्त होती ?
लाभ क्या है उन करोंसे जो न गिरतेको उठायें ? या कि वन दानी जगत्में कीर्ति-यश अपना बढ़ाये।
है श्रवण वे धन्य जो
आवाज़ सुनते कातरोंकी , वे गुहा हैं जो कि सुनते रागिनी मंजुल स्वरोंकी।
वह हृदय है नामका वस जो न भावोंसे भरा हो, देशका अनुराग जिसमें पूर्णतः लहरा रहा हो।
व्यर्थ है वह जन्म लेना जो जिये अपने लिये ही, धन्य हैं वह मृत हुए जो सिर्फ औरोंके लिये ही।
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डॉ० शंकरलाल, इन्दौर
डा० शंकरलालजी काला, डी० श्राई० एम०, इन्दौर, मध्यभारतके उदीयमान हिन्दी कवि और लेखक हैं । आपकी रचनाएं 'जीवनप्रभा', 'जैन मित्र' श्रीर 'जैनबन्धु' आदि पत्रों में प्रकाशित होती रही हैं। वर्तमानमेंआप 'आत्मबोध' संस्कृत ग्रन्थका हिन्दी पद्यानुवाद कर रहे हैं । आप बालकों के लिए श्रोजमयी सुन्दर रचनाएँ भी करते हैं । उदाहरण दिया जा रहा है ।
आज़ादी
भोले भाले वालक, आश्रो, मानस मन्दिरके आधार ; जीवनके तुम ही हो साथी, तुम हो देव, अरे, साकार । मांस पिडके तुम हो पुतले, राष्ट्र-सारिणीके पतवार ; तुम हीको अपने जीवनमें इसका करना है उद्धार । सेनानी बन समर सैन्यमें तुमको ही लड़ना होगा ; गाँधीकी ग्रांधी में तुमको लघु तृण-सा उड़ना होगा । समय नहीं आता है, वालक, समय नहीं देखा जाता ; जीने-मरनेके प्रश्नोंको कोन उपेक्षित बतलाता । आओ, आओ, वालक वीरो, आज़ादीका जंग लड़ें ; कहीं रुकें ना कहीं भगें हम विद्युत्के बल आज बढ़ें। जन्मसिद्ध आज़ादी जगकी इसके बल सब देश खड़े ; प्राज उसी आज़ादीके हित वोलो अब हम क्यों न लड़ें ? वाल वन्धुओ, नहीं हमारा देश रहेगा फिर परतन्त्र ; जगती के कण-कणमें फूंकें आज़ादी जीवनका मन्त्र । झंडा ऊँचा करो देशका आज़ादी अव पानेको ; वीर भूमिके बालक, वीरो, जीवनमें सुख लानेको !
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मानवके प्रति
अरे मानव, तू श्रव तो देख पलकसे ढपे युगल-पट खोल
हर्निग वीत रहा है श्राज समय तेरा सबसे अनमोल ।
समझ जीवनमें इसका मूल्य यही जीवनका जाग्रत् प्राण इसे जो खोते हैं निष्काम वने फिरते है वे म्रियमाण ।
समयकी मधुर साधना साव प्राण अपनेपर बाजी खेल उतर पड़ रण- ग्रांगनके बीच देव-हित अपना देह ढकेल ।
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खिलाड़ी करना होगा खेल छके वैरी-दल सहसा देख वने प्यारा भारत स्वाधीन नहीं हो पर वन्वनकी रेख ।
मिटा दे ग्रन्थकार अज्ञान करा दे सबको सच्चा ज्ञान जुटा जीनेके सावन नित्य कला - कोलका ताना
तान ।
मिटा रोटीका व्यापक प्रश्न वना भारतको गिखराख्ढ़ नहीं तो निश्चित ही यह जान एक दिन देश जायगा वूड़ ।
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बावू श्रीचन्द्र, एम० ए०
बाबू श्रीचन्द्र जैन समथर राज्यान्तर्गत अम्मरगढ़ नामक. ग्रामके निवासी हैं। बचपनसे ही आपको कवितासे प्रेम है। आपको करुणरसप्रधान कविताएँ प्रिय हैं। श्रापकी अनेक कविताएँ जैन पत्रोंमें प्रकाशित होती रहती हैं। आप सुन्दर कहानियां भी लिखते हैं। कुछ लेख श्रापने 'जयपुर जैन-कवि' नामक शीर्षकसे लिखे हैं। आपकी कविताएँ मार्मिक और प्रसाद-गुगपूर्ण हैं । 'सामायिक पाठ'का आपने पद्यानुवाद किया है जो प्रकाशित हो चुका है। आपकी रचना 'चन्द्रशतक' प्रकाशित हो रही है। आपका कविता कहनेका ढंग बहुत सुन्दर है।
गीत ये पागल मनकी आशाएँ;
मेरी उत्कट अभिलाषाएँ। गिरि-शृंगोंपर सरस कमल हों, रस निकले रेणूके कणमें ; विह्वलतामें बसे सान्त्वना, हो प्रमोद जगके चिन्तनमें। यह क्षण-भंगुर जग निश्चल हो, राग वेदनाके स्वरमें हो; विभीषिकाकी रणस्थलीमें रंगभूमिका मृदुल सृजन हो। मानव मात्र देव बन जावें, सभी दीन वैभव-सुख पावें; हो ममत्व पाषाण-हृदयमें विषम गरल जीवन वन जावें । प्रस्थित यौवनके सौरभमें झंकृत अविनश्वर नित रव हो; लहरोंसे जग सागर तरना विह्वल मानवको सम्भव हो।
ये पागल मनकी आशाएँ ; मेरी उत्कट अभिलापाएँ।
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आत्म-वेदना
मेरे कौन यहाँ पोंछेगा आँसू, हा, अञ्चलसे,
पारस्परिक सहानुभूति जब भरी हुई हैं छलसे ? समता सीखें यहाँ भला क्या, ईर्षा वश हो करके,
सुखका अनुभव यहाँ करें क्या कटु आहें भर-भरके । धर्म हमारा कहां रहेगा जब प्रवर्मने आकर,
मानवताका नाश किया है पशुताको फैलाकर । जिवर देखिये उधर आपको दिखलाते सव दीन,
धन-शोभा श्रव कहाँ रहेगी जब जग हुआ मलीन ? पास पास करके हमने क्या कर पाया है पास
"
तिरस्कार अपमान उपेक्षा या कलुपित उच्छ्वास ? पतझड़के पश्चात् नियमतः श्राती मधुर वसन्त,
पर पतझड़के बाद यहांपर आया गिगिर अनन्त ।
दोहावली
3
जीवनभर रटते रहे, हे चातक प्रिय नाम ; मैं तो कभी न ले सका, हा, प्रिय नाम ललाम । १ करकी रेखा देखकर, मनकी रेखा देख ; करकी रेखासे सतत, मनकी रेख विशेष ॥२ निर्मोही बनना चहे, तू मोहीको पूज ; मैल तेलसे धो रहा, हा, तेरी यह सूझ | ३ बैठ महलमें मूढ़ तू, करत पथिक उपहास ; कवसे पतन बता रही, तेरी उठती साँस ॥४
-
१६५
-
[ 'चन्द्रशतक' से
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श्री सुरेन्द्रसागर जैन, साहित्यभूपण
आपकी जन्म भूमि दलिपपुर (मैनपुरी) है और वर्तमान निवास कुरावली ।
आपकी शिक्षा मैट्रिक और साहित्यभूषण तक ही हुई है, फिर भी कवित्वका वीज आपमें जन्मजात है । आपकी रचनायें प्राञ्जल भाषा, गम्भीर भाव और मधुर कल्पनात्रोंका सुन्दर सम्मिलन है ।
परिवर्तन
कहाँ वह हँसता-सा कहाँ वह स्वर्णिम आज रुदनका होता ताण्डव नृत्य, प्रात छाता तम-तोम महान् ॥
उपाकी मंजुल मृदु मुसकान, मुदित करती मानवके प्राण । दिशात्रोंमें अव है
प्रच्छन्न,
हुए शोकातुर मानव
म्लान ॥
मधुमास ? विहान ?
कूजते
प्रात
3
नीड़में विहग और गाते थे सुन्दर राग !
राग अभिराम ?
किया विराग ! !
कहाँ वह गए
खगोंने धारण
१६६
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FREEEEEEEEEEEEEE
चिपटकर लता वृक्षके गात , समझती थी अपनेको वन्य । और सौन्दर्य-सिन्धुकी रागि , समझती यौवन स्वीय अनन्य ।। किन्तु वे आज विरत कृग गात , मधुरिमा हुई क्षीण अभिसार । चिपटती नहीं वृक्षसे आज , समझती यौवनको है भार ॥ अहा ! वह तरु छायायुत गीत , पथिक जिसमें करते विश्राम । मनों भव-दव-दाहाँसे तप्त , आज अनुतापित है निष्काम । नयनमें था जो वीरोल्लास , देखनेको अभिनव अभिचाव ।
आज उनमें नीलमके सूत्र , दीखते सचमुच हुअा अभाव ॥ अहा, ! गोरेसे गिगु-मुख-हास्य , मधुर करते थे हास्य विकीर्ण । सहज वरवस पाहन उर तलक , खींच लेनेमें थे उत्तीर्ण ॥ उन्हीपर पीत-रंग मसि आज , पोतती अपनी कीर्ति अपार । भूल बैठे चंचलता हास , विरस-सा उनको आज निहार ॥
- १६७
-
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घटाएँ विपदाकी छा घोर ! कर रहीं वरसा हैं घनघोर । हुआ पीड़ित है अग-जग आज , दुखोंका नहीं कहीं है छोर ! हुआ संत्रस्त आज है लोक . समझता पीड़ामय संसार । यहाँ केवल जीनेका नाम ! हुआ है जीवन भी तो भार !! अरे, ओ परिवर्तन नृपराज ! किया प्रसरित अपना साम्राज्य । तुम्हीं लख लो उन्नति-अवसान , प्रजाका स्वीय तुम्हारे राज्य ।। अरे, सुख-दुखके तुम करतार ! रीझते हो जिसपर प्रिय श्राप । उसे करते हो श्री-सुख पूर्ण, और करते हो मोद-मिलाप ।। खीजते जिसपर हो तुम ! आर्य , दिखाते उसको नाना दु:ख । अरे! उसको. हो तुम अभिशाप , छीन लेते उसके सब सुक्ख ।। तुम्हारी संज्ञा अहो महान् ! कभी लघु कभी विराटाकार । तुम्हीसे तुंग शिलाएँ शीर्ण कभी वनती प्रांगण आकार ।
- १६८
-
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विस्तार,"
जहाँपर थल-अंचल वहाँपर लहराते हो और फिर सार्थक करने नाम,
सिन्धु ।
स्वयं तुम कहलाते हो
सिन्धु ॥
तुम्हें नहि व्रीड़ाका भय छद्मभेपोंस रचते
"
धूल सिकता -युत कर मरु मुखा देते हो जलवि
रंच,
जाल |
1
थान विशाल ॥
विवर्तित प्रातर् कभी संध्यामय करके तमित्राका दे हो
ग्रहो ! परिवर्तन हो या
अरे, तुम स्रजनहार, पर सर्व व्यापक हो अहो
1
ऊपा - काल ,
आप
रूप
1
गाप ?
१६९
! हे जग-दूर
जगत्-अवलम्वन
!
न कुछ हो, तुम सब कुछ हो, धन्य - !
हन्त
1
अनन्य !
-
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श्री ज्ञानचन्द्र जी जैन, 'आलोक'
रहनेवाले हैं। वर्तमानमें
।
श्रापका साहित्यिक क्षेत्रमें
श्री ज्ञानचन्द्रजी जिजियावन (झाँसी) के आप स्याद्वाद -महाविद्यालय, काशीके स्नातक हैं यह प्रथम प्रवेश है । आपकी रचनाएँ सरल र सुवोध होती हैं । श्राशा है, भविष्य में "प्रालोक" जीकी झालोकपूर्ण रचनात्रोंसे माता सरस्वतीका मन्दिर अधिकाधिक प्रालोकित होगा ।
किसान ---
गर्मीकी
भीषण
गर्मीम
सहते दिनकरका तेज ताप । भूखे-प्यासे हल हाँक रहे जिनके दुःखोंका नहीं माप १४
X
भारत भूके भूषण स्वरूप
स्वर्णिम टुकड़े वे अल्प ग्राम । जो इवर उवर वीरान पड़े हैं कहीं वसे दो चार वाम ॥१
X
वे ही हमको देते जीवन चे ही हम सबके कर्णवार । उन सबमें रहनेवाले ही
देते हैं हमको अन्नसार १२ X
ये हैं किसान जो दिन-दिन-भर करते रहते श्रम शिरसे एड़ी तक चूती है
बेशुमार ।
जिनके तनमें नित स्वंद बार 1३
4x
है नहीं पैरमें जूती भी शिरपर टोपीका नहीं नाम । तनपर वस्त्रोंका है प्रभाव अवशिष्ट सिर्फ है कृष्ण चाम १५
X
पानी पीनेको
मिट्टीका फूटा
खानेको मिलते
ऐसा वेढव
१७०
-
इन्हें एक
वर्तन है ।
चार कोर
परिवर्तन है ।६
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इनके बच्चे रोते-रोते- भूखे ही भूपर सो जाते। उठनेपर जल्दीसे नीरस कोदोंकी रोटी खा जाते ७
है दुग्ध और घृतका सुनाम जिनको सुनने तक ही सीमित। रोटी 'खानेकी सिर्फ आश इनको करती रहती प्रेरित।८
इतनेपर मुखियाकी विगार करनी पड़ती बेचारोंको । पैसे मँगनेपर पड़ जाती दो-चार जूतियाँ दुखियोंको ।१२
x वर्षामें इनका घर चूतासर्दी में पड़ती खूव प्रोस। गर्मीमें छप्पर फोड़, सूर्यपीड़ित करता पर नहीं जोश ।१३
x आता इनको, क्योकि दरिद्र चिन्तित होनेसे क्षीण काय । वेचारे कर ही क्या सकते , करते रहते बस हाय-हाय ।१४
वस पांच हाथका इनका घर वह भी है कच्चा जीर्ण शीर्ण। ऊपरसे छाया जहाँ फूस है अङ्क-अङ्क जिसका विदीर्ण ।६
उसमें रक्खा चूल्हा कच्चा इस तरह दुखित,फिर भी, किसान रक्खी है चक्की वही एक । देते हैं हमको खूब अन्न । है पड़ी वही टूटी खटिया पर हमें कहाँ इनका सुध्यान काली हन्डी भी पड़ी एक ।१० क्योंकि, हम हैं अभिमान-छन्न ।१५
X होती है खुजली इन्हें खूब रहते हम उन प्रासादों मेंपरोंमें फटी विमाई है। अम्बर-चुम्वी जो हैं विशाल । ज्वरसे रहते ये सदा ग्रस्त जिनके घर्षणसे लोक प्रकट इसलिए कि भूखी नारी हैं ।११ है चन्द्रराजका कृष्ण भाल ।१६
- १७१
-
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पीनेको मिलता हमें दुग्व व्यञ्जन षट् रस संयुक्त सूव । पोषक पदार्थ हम खाते हैं जिनसे बढ़ता है खून खूव ।१७
X
वस्त्राभूषण शिरसे पग तक
करते रहते शोभित शरीर । बैठी रहती मानव समाज इसलिए कि हम सव हैं अमीर |१८
X
पर ठाठाठ इनके सारे तेरी ही हिम्मतपर किसान ! इनका सुख भी अवलम्बित है तेरी ही छातीपर किसान |१९
X
इनकी शोभा इनकी इज्जत इनके सारे सुख श्रविनश्वर । तेरे तनपर तेरे मनपर
तेरे धनपर ही हैं निर्भर 1२०
X
kaya
इसलिए उठो सोचो समझो श्रो मेरे जीवनधन किसान ! तेरे ही ऊपर अवलम्बित गान्धीका होना मूर्तिमान | २३
उत्तुङ्ग महल, उन्नत विचार तेरी ही दमपर होते हैं । तेरे अनाजको खाकर ही सुखकी 'निद्रामें सोते हैं । २१
X
टकटकी लगाये दिनकर भी तेरी हिम्मतको ग्रांक रहा तेरी ही दमको रे किसान ! संसार अखिल में झांक रहा । २२ X
.
१७२
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श्री मगनलाल जी, 'कमल'
आप एक उदीयमान प्रतिभाशाली कवि हैं। आपका निवास स्थान शाढौरा (ग्वालियर राज्य) है।
'कमल'जी वाल्यावस्थासे ही कवि-कर्ममें संलग्न हैं। अपनी अन्तर्वेदनासे प्रेरित होकर ही आप अपने कर्ममें प्रवृत्त होते हैं। यही कारण है जो "बाहोंके हैं प्राघात, प्रिये" लिखनेके लिए आपको क़लम सहज भावसे चल पड़ती है।
आशा है, एक दिन यह कवि-कलिका अपने सुवाससे साहित्यके उद्यानको अवश्यमेव सुवासित करेगी।
जौहरकी राय .
आज हृदयमें प्यार कहाँ है ? दलित, पतित, कुचले जीवनका ही सूना संसार यहाँ है ।
- आज हृदयमे प्यार कहाँ है? अत्याचार करेगा जो भी।
अत्याचारी कहलायेगा, शासक भी हो क्यों न जगत्का
पीड़ित दलसे दहलायेगा; ग्राहोंके शोलोंमें बोलो यौवनका सौन्दर्य कहाँ हैं ?
आज हृदयमें प्यार कहाँ है ?
अरे इन्ही अत्याचारोंसे
रंगा हुआ इतिहास पड़ा है, - १७३ -
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शब्द, शब्द सन्देश दे रहा
कहाँ न्याय अन्याय लड़ा है। पग, पगपर रोना ही है तो फिर पावन त्योहार कहाँ है ?
आज हृदयमें प्यार कहाँ हैं?
उस पावन मेवाड़ भूमिपर,
अन्यायोंका प्यार पला था, राजपूत ललनाओंका जहँ,
रूप और सौन्दर्य जला था, धधकी थीं ज्वाला-मालाएं जहाँ, आज प्रासाद वहाँ हैं !
आज हृदयमें प्यार कहाँ है ?
कभी नहीं भूलेगा भारत,
अरे बाग़ जलयानावाला, पापी सर ओ डायरने जह,
बहा दिया था खूनी नाला, उसके रक्त-बिन्दुओंसे ही लिखा गया इतिहास वहाँ हैं !
आज हृदयमें प्यार कहाँ हैं ?
शासक वर्ग भवन कहता है,
भाग्यहीन खंडहर हैं फूट, जिसे शृंखला समझा पागल,
वह तो सव बन्धन है टूटे, मरघट कहते हैं हम जिनको, फैली जौहर राख वहाँ हैं !
आज हृदयमें प्यार कहाँ हैं ?
- १७४
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ऊर्मियाँ
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श्री लज्जावती, विशारद
श्री लज्जावतीजी समाजकी उन जागृत महिलाओंमेसे हैं जो यथाशक्ति देशकी सेवा और साहित्यकी साधनामें सदा तत्पर रहती हैं। श्राप जव मेरठमें थीं तो वहाँकी महिला समितिको मन्त्रिणी थी और अब मथुरामें जहाँ अापके पति वा० जगदीशप्रसादजी अोवरसियर हैं, नारी समाजको उन्नतिके कार्योंमें योगदान देती हैं। प्राप'वीर जीवन' और 'गृहिणी कर्तव्य' नामक दो पुस्तकोंकी लेखिका है।
श्रापकी कविताओंमें विषयके अनुसार ही शब्दोंका चयन होता है, और भावोंमें गम्भीरता रहती है। वेदनाके भावोंको चित्रण करते हुए इनकी कविता विशेष रूपसे सजीव हो उठती है। 'फूल सुगन्धित तू चुन ले, शूलोंसे भर मेरी झोली' कितनी सुन्दर पंक्ति है !
आकुल अन्तर मैं इस शून्य प्रणय-वेदीपर , किन चरणोंका ध्यान करूँ; मृत्यु-कूलपर बैठी कैसे अमर क्षितिज निर्माण करूं?
विश्वासोंपर वसा हुआ है, जगके स्वप्नोंका संसार; सखी, भाग्यकी अस्थिरतानोंपर किसका आह्वान करूँ ?
- १७७ -
१२
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मेरी
मार्गहीन यात्राएँ,
हैं लक्ष्य गतिहीन, सखी ;
ये मगमें करुणाके टुकड़े, छोड़ इन्हें, मत बीन, सखी !
फूल सुगन्धित तू चुन ले, शूलोंसे भर मेरी झोली ; पर आशा - लतिकाकी मादकतर स्मृतियाँ मत छीन सखी !
सम्बोधन
जागृतिके उज्ज्वल मन्त्रोंसे
जीवन-सूत्र पिरो लो ;
तोलो ।
देश-भक्तिकी त्याग-तुलापर
अपना जीवन
कर्मक्षेत्रमें लेकर आओ
वह स्वप्नोंका जीवन :
आदर्शो में परिणत हो फिर
शून्य
▸
भावना
तन मन धन न्योछावर करके
माँके
अर्पण हँस-हँसकर हो जाओ
भारतकी
१७८
वन्धन
--
पावन ।
खोलो ;
जय बोलो ।
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________________
श्री कमलादेवी जैन, 'राष्ट्रभाषा को विद'
थाप प्रगतिशील विचारोंकी शिक्षित महिला हैं। पंडित परमेष्ठीदासजी 'न्यावतीर्य की आप धर्मपत्नी हैं । श्रापने धर्म, न्याय और साहित्यका खूद मनन किया है और कविताक्षेत्रमें विशेष सफलता प्राप्त की है । श्रापकी कितनी ही साहित्यिक रचनाएँ उच्चकोटिकी हैं । कवि सम्मेलनोंमें श्रापको अनेक स्वर्ण और रजत पदक भी मिल चुके हैं ।
श्राप न केवल अच्छा लिखती ही हैं, बल्कि कविताएँ भी बहुत जल्द बनाती हैं । इनकी रचनाएँ 'सुधा', 'कमला' आदि साहित्यिक पत्रिकानोंमें निकलती रहती है । अभी राष्ट्रीय आन्दोलनमें आप जेल-यात्रा कर चुकी हैं। आपकी कविताएँ अलंकारयुक्त किन्तु सुबोध होती हैं ।
हम हैं हरी भरी फुलवारी
दुनियाके विशाल उपवनमें हृदयोंकी कोमल डालीपर खिले हुए हैं सुमन सुमतिके, जग मोहित है जग लालीपर
शोभित विश्ववाटिका न्यारी, हम हैं हरी-भरी फुलवारी ११ मुरभि सर्वं जगके उपवनमें महक रही सुगुणोंकी मधुमय यह सन्देश सुनाती जगको, विचर रही होकरके निर्भय
हमसे ही जग शोभा सारी, हम है हरी-भरी फुलवारी २ शायद समझ रही इससे ही, पुरुष जाति हमको अवलाएँ हरी-भरी फुलवारी होकर, कैसे हो सकती सबलाएँ
यह सवलोंकी भूल अपारी, हम हैं हरी-भरी फुलवारी ॥३ पत्ते कोमल होनेपर भी जग-भरको छाया देते हैं करते हैं उपकार जगतका, पर न कभी वदला लेते है
तब फिर कैसे अवला नारी, हम है हरी-भरी फुलवारी ॥४
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१७९
G
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महक उठा फूलोंसे उपवन . विघट गया तम तोम निशाका , उपा नटी उठ करके घाई; अलसाय अरुणाके दृग ले,
कलिकाओंके सम्मुख आई। उन्हें जगाने हो हर्पित मन, महक उठा फूलोंसे उपवन ।
ऊपाके मृदु आलिंगनसे , कलियोंने भी आँखें खोली ; आलसका नय करनेके हित ,
आँखें ओसविन्दुसे धो ली। मुस्काये फिर दोनों आनन, महक उठा फूलोसे उपवन ।
दृश्य देख दोनों सखियोंका , नव प्रभातके रम्य पटलपर; सुरभित कलिकाओंसे मिलने,
वायु, वेगसे आई चलकर। करने कलियोंका आलिंगन, महक उठा फूलोंसे उपवन ।
अपना तन सुरभित करनेको , लिपट गई खिलती कलियोंते; फिर गुंजित भ्रमरोंको देखा,
हँसकर यह पूछा अलियोस'करते क्यों फूलोंका चुम्वन', महक उठा फूलोसे उपवन ।
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१८०
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विरहिणी
पिय न आये, पियूँ कब तक , यह निरन्तर धैर्य - प्याली ; व्यथित मनको सान्त्वना दूं, किस तरह अव कहो ाली ।१
हृदय-दीपक हाथसे ढक , चिर-समयसे. जी रही हूँ; मिलनकी आशा रखे ,
ममता-सुधा-रस पी रही हूँ।२ किन्तु समता-सहचरी भी, ऊवकर मुझसे किनारा ; कर गई, अव है न मुझको, एक भी जीवन-सहारा ।३
तप्त तनकी उष्म आहे , हृदय - दीपकको वुझाने ; कर रही हैं यत्न भरसक ,
आज इसपर विजय पाने ।४ टिमटिमाता दीप यह, बतला, सखी, कैसे बचाऊँ ; पागका अब डाल अंचल , ओटमें कैसे छिपाऊँ ? ५
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श्री प्रेमलता, 'कौमुदी ___ 'कौमुदीजीका जन्म सन् १९२४ में दमोहमें हुआ। आप प्रसिद्ध जैन-कवि श्री पं० मूलचन्द्रजी 'वत्सल'को सुपुत्री हैं। आपके पति श्री रविचन्द्र 'शशि' भी एक सफल कवि हैं। इसीलिए कविताको ओर आपकी सहज नीर सुलभ प्रवृत्ति है । आपने संस्कृतका 'सामायिक पाठ' पद्यानुवाद किया है, जो प्रकाशित हो गया है। आपकी कवितामें स्वाभाविकता है और सरसता भी। ये कविताका क्षेत्र व्यापक रखनेका प्रयास करती हैं।
गीत मेरे नयनोंकी कुटियामें किसने दीप जलाये री, नीरस सुप्त प्राण मेरे सहसा किसने उकसाये री !
आता सरिता जल-सा निर्मल,
मधुर मन्द सुरभित मलयानिल, सजनि, आज किसके विन मेरे वीन-तार अकुलाये री।
__ श्यामल रजनीके तारों-सी,
• धन-विद्युत्के मनुहारों-सी; उर नभमें किस तरल प्रतीक्षाके वादल घिर आये री। मेरे नयनोंकी कुटियामें किसने दीप जलाये री॥
-
१८२ -
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मूक याचना
देव, में बन जाऊँ अज्ञात ।
शलभ पंत्रोंको छू छू,
उन्हें कर-कर अमरत्व प्रदान
दीप-लीके
प्रेमी मुखपर,
सदा करवाऊँ जीवनदान |
उसीके सुखकी मंजुल छवि, वनी इठलाऊ निगा प्रभात । देव, में बन जाऊँ ग्रज्ञात ।
1
1
किसीके आगापथकी धूल बनूं, पथपर छितरा जाऊँ, मिलन वेलापर प्रेयसिकी, दूर जगमें विखरा ग्राऊँ ।
विरहकी उत्सुकतामें डूब,
हँसूं, झूमूं पुलकित मधुगात । देव, में वन जाऊँ अज्ञात ।
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श्री कमलादेवी जैन
आप जैन समाजके गण्यमान्य विद्वान् पं० शोभाचन्द्रजी भारिल्लकी सुयोग्य पुत्री हैं। काव्य रचनाके लिए आपमें जन्मजात प्रतिभा है, जो समय और अनुभवके खरादपर चढ़कर हिन्दी साहित्य-सुवर्णकी अंगूठीका सुन्दर नगीना होगी। सत्रह वर्षको वयमें, उन्नत कल्पना और सरस शन्दोंके साथ सुन्दर भावोंको गूंयना आपके उज्ज्वल भविष्यका परिचायक है। आप संस्कृत और न्यायशास्त्रका विशेष अध्ययन करती हैं। पाप . साधारण विषयको भी भावोंकी पवित्रता द्वारा उज्ज्वल कर देती हैं।
रोटी
रोटी, फूली देव तुझे मैं,
___ फूली नहीं समाती हूँ; अपने मनकी वात सोचकर
मन ही मन हर्षाती हूँ।१ तू मेरे प्रिय भ्रात उदरमें,
जाकर ऐसा रक्त वना; मातृभूमिके लिए समयपर
तन अर्पण कर दे अपना।२ पूर्ण लालसा होवे मेरी,
यह वरदान मांगती हूँ; मेरे तप्त हृदयको शीतल
- कर दे यही चाहती हूँ।३
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पहले चारों ओर जहाँ
साम्राज्य शान्तिका था फैला; वृद्धि नित्यं पाती थी 'कमला'
ज्यों पाती है 'चन्द्रकला'।४ वहाँ दीन दुखियों भूखोंका
आज विलखना सुनती हूँ; भारतीय माँका सम्बोधन
'अवला' सुन सिर धुनती हूँ।५
नायक बनकर मेरा भाई
सवका शुभ्र सुधार करे; देश-जातिकी करे समुन्नति,
अपना भी उद्धार करे ।६
पथसे विचलित मेरा भाई
कभी नहीं होने पावे; सज्जनता- रूपी साँचे में
ढले, सदा ढलता जावे १७ इतनी कृपा करो, हे रोटी,
यह उपकार न भूल सकूँ; जीवन वने वन्धुका उज्ज्वल,
. कीर्ति श्रवणकर फूल सकूँ।
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निराशाके खरमें
साथी, मिट गये अरमान। . कण्ठ शुष्क हुआ, करूं क्या भग्न स्वर सन्वान' ;
साथी, मिट गये अरमान । अोज अब तनमें नहीं है, स्फूर्ति इस मनमें नहीं है, उचित अनुचितका नहीं है अव हृदयको भान;
साथी, मिट गये अरमान ।। सूझता पथ ही नहीं है, सोच लूं पर मन नहीं है , हो चुका है लुप्त मेरा हित-अहितका ज्ञान ;
साथी, मिट गये अरमान । लुट गया मैं आज, साथी, रखो मेरी लाज साथी , हुआ अब मेरे हृदयसे सौख्यका अवसान ;
साथी, मिट गये अरमान। . प्यार धोखेसे जगत्ने लिया, कुचला निर्दयीने , मिला जीवन में मुझे बस, दुःखका वरदान ;
साथी, मिट गये अरमान । मिला है यह दर्द जगमें, सह सकूँगा अव न कुछ मैं , आज पागल हो रहा हूँ, जगत्से अनजान ;
साथी, मिट गये अरमान । खोजताहूँ उस निठुरको,चल दिया जो छोड़ मुझको, विलखता हूँ आज पथ-पथ ओ मेरे भगवान् ;
साथी, मिट गये अरमान । नाशके दुःखसे कभी दवता नहीं निर्माणका सुख , मानते तो, प्रभो, मेरा कीजिये उत्थान ;
साथी, मिट गये अरमान ।
:- १८६ -
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श्री सुन्दरदेवी, कटनी
यद्यपि श्री सुन्दरदेवीने कविताके प्रांगणमें अभी हाल हीमें पदार्पण किया है, फिर भी अच्छी प्रगति कर ली है। यह कवितामें हृदयके उद्गार सोचे और सरल रूपमें इस प्रकार व्यक्त करती हैं कि इनके अनुभवकी गहराईका अनुमान लग सकता है। आपको शैली माधुनिक और वेदना-प्रधान है।
आप फटनी निवासी स० सिं० धन्यकुमारजीकी वहन हैं। आपका विवाह जवलपुरके ऐसे घरानमें हुआ है, जो देशभक्ति और त्यागके लिए प्रसिद्ध है।
यह दुःखी संसार
आजका संहार कल जीवन वनेगा। इम दुखी संसारमें जितना वने हम सुख लुटा दें; वन सके तो निष्कपट मृदु प्यारके दो कण जुटा दें। हर्पको सो ज्वाल छातीमें जलाकर गीत गायें ; चाहते हैं गीत गाते ही रहें हम रीत जायें। नहि रहे यदि झोपड़ा सन्मार्ग तो फिर भी रहेगा ;
आजका संहार कल जीवन बनेगा।
हम कि मिट्टीके खिलीनं, बूंद लगते गल मरेंगे; हम कि तिनके, पारमें वहते गिखा छू जल मरेंगे। कोनसा वह बुलवुला-जल है न जो अंगार होगा; नागकी कटु किरणका युग-सूर्यसे शृंगार होगा। धारमें वहना कहाँ तक सोचना यह भी पड़ेगा;
आजका संहार कल जीवन बनेगा।
- १८७ -
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जव समुन्दर बढ़ रहा होगा बड़ी भगदड़ मचेगी;
और बड़वानल निगोड़ी सामने आकर नचेगी। क्या बुझायेंगे कि 'फायर वर्क्स' मन मारे जलेंगे ; मौत-रानीके यहाँ उस दिन बड़े दीपक जलेंगे। आह ! क्या दुर्दिन अभी वह और भारतमें बढ़ेगा;
आजका संहार कल जीवन बनेगा। वह प्रलयका एक दिन प्रतिदिन सरकता आ रहा है ; काल गायक गीतियोंमें ही सही पर गा रहा है। उस महासंगीतका हर प्राणसे कम्पन लहरता; नृत्यकी-सी शान्ति पाता एक क्षण जो भी ठहरता। क्या कभी सम्भावना है दुष्ट दुर्दिन वह टलेगा ;
आजका संहार कल जीवन बनेगा।
जीवनका ज्वार
'अव मैं ढूंदें किधर प्रेमका वह चिरनिधि साथी तारा; अविरल बहती इन आँखोंकी रोके कौन प्रवल धारा ? दुग्ध भरा था जिस प्यालेमें फूट गयां वह मधु-प्याला; मेरे अन्तस्तलमें वहती चारों धाम विकट ज्वाला। यौवनका कर्पूर रहा जल आज प्रणयकी ज्वालामें; अरे पपीहा प्राण जगा जा इन्हीं पियासे प्राणोंमें । विफल प्रणयिनीका अभाग्य है, हैं टूटे नभके तारे ; कैसे वार सहूँ जीवनका अन्तिम घड़ियोंके सारे ।
-
१८८
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श्री मणिप्रभा देवी, रामपुर
श्री मणिप्रभा देवीको ही इस बात का मुख्य श्रेय है कि उन्होंने वर्तमान जनसमाजकी महिलाओंको कविता रचनेके लिए प्रेरणा दी और उनकी कविताओंको 'जैन महिलादर्श' नामक मासिक पत्रमें 'कविता मन्दिर के अन्तर्गत छाप छापकर लेखिकानोंको प्रोत्साहित किया। आप प्रारम्भसे ही कविता-मन्दिरको संचालिका है, जिसे योग्यतासे सम्पादित कर रही हैं।
आपने स्वयं भी बहुत सुन्दर कविताएं की हैं जिनमें पोज और माधुर्य दोनों ही गुण पाये जाते हैं।
आप सुकवि श्री कल्याणकुमार 'शशि'की धर्मपत्नी है।
सोनेका संसार जीवनकी नन्ही नैया
डोल रही है जग-जलमें , परिवर्तन हो रहे नये
नित जल-थल नौ अंचलमें। निरख-निरखकर नया रूप
देखा मैने पल-पलमें, नूतन सागर वना एक
इस मेरे अन्तस्तलमें। कम्पन-सा हो रहा प्रकट
. है मेरे मन निश्चलमे, लक्ष्य निकट है, लक्ष्य दूर
है मेरे कौतूहलमें।
..
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१८९
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यही सोच है कैसे जाऊ
गहरे सागरके उस पार,
नाथ दयाकर तुम बन जाओ
मेरी
X
नैयाके पतवार /
X
X
प्राचीने स्वर्णिलता पाई,
मुझमें भी नव लाली आई, उपवनमें कलिका मुसकाई,
जीवनके
कोने-कोने में
या मधुर संचार |
सुन्दर नव जीवनका मधुरस, 'प्रभा' पूर्ण मलयानिलका यश, आज हुआ सबका सामंजस,
बन्धन विगत हुए छिन्नित हो खुला मुक्तिका द्वार ।
मौन मन्द रवमें मुसकाया, मुझपर नव विकास वन छाया, बहुत खोजकर मैंने पाया,
रहे सदा अक्षुण्ण हमारा सोनेका संसार |
१९०
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श्री कुन्थकुमारी, बी० ए० (ऑनर्स), बी० टी०
श्राप एक प्रतिभाशालिनी और विदुपी महिला हैं । श्रापने अंग्रेजी साहित्यके विशाल अध्ययनके साथ मातृभाषाके साहित्यका भी मनन किया है । देहली और पंजाब विश्वविद्यालयकी वी० ए० और वी० टी० परीक्षाओं में श्रापने प्रान्तको महिलाओं में सर्वप्रथम पद और स्वर्णपदक प्राप्त किया था । इन्होंने अंग्रेजी-हिन्दी के अनेक अखिल भारतीय वाद-विवादों में भी प्रथम पारितोषिक प्राप्त किया है । आप दो वर्ष तक लाहोरके हंसराज महिला ट्रेनिंग कालेजमें वी० टी० श्रेणीकी प्रोफ़ेसर रह चुकी हैं।
श्री कुन्यकुमारी हिन्दीमें लेस, कहानी और कविताएँ लिखती हैं । त्रापकी कविताओं और लेखोंमें रचनाका सौन्दर्य और कल्पनाकी कोमलताका दर्शन होता है । आप प्रसिद्ध शिक्षा-प्रेमी, देहलीके जैन कन्या - शिक्षालय प्रमुख संस्थापक पंडित फतेहचन्द जैन खजांचीकी पुत्री और श्री लक्ष्मीचन्द्र जैन, एम० ए०की धर्मपत्नी हैं ।
मानस में कौन छिपा जाता ?
मानसमें कौन छिपा जाता ?
जीवनमें ज्वार उठा करके, मानसमें कौन छिपा जाता ; मेरे उन्माद-भरे मनको अनजानेमे वहला जाता ! मानसमें कौन छिपा जाता ?
दे क्षण सुख-दुखकी झाँकी, इस पल विराग, उस पल रागी ; उठती मिटती-सी पीड़ाको उलझा जाता, सुलझा जाता । मानसमे कौन छिपा जाता ?
१९१
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शशि रजत-सुधा बन रजनीमें मादकता लहराकर जीमें; किसका माधुर्य तेज वनकर रवि-पथपर विखर सिमट जाता।
मानसमें कौन छिपा जाता ?
भ्रमरसे
भ्रमर, तू स्वाधीन उड़ जा। 'विश्वके चंचल हृदयमें रमे तेरे प्राण भोले , ' इस मधुर संसारके मृदु तालपर तव गान डोले, वायुकी उन्मुक्त लहरीने सुनहले पंख खोले ,
आज तू निर्वन्ध होकर विश्वमें सव ओर उड़ जा। तव हृदयके स्पन्दसे ही हो चली प्रमुदित कली , सरस जीवन कर समर्पित धूलमें मिलने चली ,
नित नई-सी कलीके उरमें मधुर पासव ढली ,
ले मधुप, पी आज जी भर, और कल स्वाधीन उड़ जा। नियतिके उरमें लिखा है नित्य परिवर्तन हमारा, नियम वन्धनसे रुकेगी क्या प्रणयकी वेगधारा, कठिन नीरस परिधियोंमें सत्य सुन्दर प्रेम हारा , तू मनोरथके मनोरम पंख पा, निश्चिन्त उड़ जा।
भ्रमर, तू स्वाधीन उड़ जा।
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१९२ -
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श्री रूपवती देवी, 'किरण'
आप सी० पी०के सुप्रसिद्ध राष्ट्रीय कार्यकर्ता वावू लक्ष्मीचन्द्रजी फागुलकी विदुषी पुत्री हैं और जवलपुरके एक प्रतिष्ठित घरानमें व्याही हैं। प्रतीत होता है कि आपका हृदय प्रकृतिक सौन्दर्य से प्रभावित होकर कविताको ओर प्रवृत्त होता है। आप सामाजिक विषयोंपर भी अच्छा लिख लेती हैं।
यह संसार बदल जायेगा प्रलय-राहुने असा चन्द्रमा, हुई अमाकी निशा पूर्णिमा चन्द समयके वाद चन्द्र फिर, निखिल ज्योत्स्ना छिटकायेगा;
यह संसार बदल जायेगा।
महानाशका निठुर प्रहर यदि, भारतको गारत कर देगा;
जव निर्माता गान्वी जी हैं, __तो फिर क्यों न उदय आयेगा?
यह संसार वदल जायेगा।
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भंकृत होगी वह स्वर-लहरी,
आत्मशक्ति जागृत हो जिससे ; करे भेंट नव जीवन ज्योती,
जय संगीत विश्व
यह संसार
-
उस पार
निर्जन और शून्य-सा थल हो, दूर बहुत ही कोलाहल हो, पर निर्भरके अविरल रवसे, रहित नहीं वह प्यारा वन हो,
गायेगा;
बदल जायेगा ।
ऐसा सुन्दर शुभ प्रदेश हो, हो अपना छलिया जग
घर
द्वार ;
पार ।
मलय समीर जहाँ करती हो, हर्षित श्री विषाद हरती हो, इस मायावी जगकी दूषित पवन जहाँ नहि आ सकती हो,
1
?
ऐसी मन्द सुगन्धित प्यारी, मिलती
रहे
बयार ;
छलिया जगके
पार ।
१९४
·
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पर्वत - मालाएं हों फैली, हों जिनकी मृदु वेल सहेली , चन्द्र-सूर्यकी चंचल किरणे, करती हों क्रीड़ा लुक-छिपकर ,
सुदृढ़ प्राकृतिक वही हमारा , हो अखंड संसार;
छलिया जगके पार। रवि शशि तारे नील गगनमें , जलप्रपात तरु पृथ्वीतलमें, पक्षिगणोंका सुललित गुंजन , तरु टहनीका अभिनव वन्दन ,
मन-रंजन कर पावेंगी नित', विमल प्रेम भंडार;
छलिया जगके पार । सखी, चल, छलिया जगके पार ।
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१९५ -
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श्री चन्द्रप्रभा देवी, इन्दौर
आप विख्यात व्यवसायी रावराजा तर सेठ हुकुमचन्दजीकी पुत्री हैं । आपको कविता प्रेम है और इस ओर उनका व तकका प्रयास सफल भी हुआ है । आशा है आपकी प्रतिभा भविष्यमें अधिकाधिक विकसित होगी।
रणभेरी
तुम नवजवान हो, ध्यान रहे, नस-नस में साहन नान रहे, निज देश-वर्मकी शान रहे, उन्नतिका श्रेष्ठ वितान रहे,
संगठन शंख वज जाने दो, रणभेरी मुझे वजाने दो ।
वीरो, भारतका मान रहे, भारत वीरोंकी खान रहे, माता-बहनोंकी लाज रहे, सद्गुण पूरित सव साज रहे,
पहलेकी स्मृति हो जाने दो, रण-मेरी मुझे बजाने दो ।
रज्ज्वल भारतकी ज्ञान तुम्हीं, अरमान तुम्हीं, अभिमान तुम्हीं, दुखिया नाताके प्राण तुम्हीं, सर्वस्व तुम्हीं, उत्थान तुम्हीं,
यह नाव पुनः विसराने दो, रण-भेरी मुझे बजाने दो !
--
१९६
-·
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श्री छन्नोदेवी, लहरपुर
जागरण
( १ ) उठो क्रान्तिका गान हो रहा, निद्राका यह राग नहीं , मची रक्तकी होली, देखो, यह वसन्तका फाग नहीं ; भीष्म ज्वालकी ये चिनगारी समझो पद्म-पराग नहीं , यह मरणस्थल युद्धस्थल है, कुसुमित सुरभित वाग नहीं ; देखो उवर, व्योममें, कैसे विपदाओंके वादल हैं, शान्तिपूर्ण अब रात नहीं, दुर्दिनके वजते पायल हैं ?
(२) देखो यह अडोल परणीवर कैसा थरथर काँप रहा , देखो, रक्तिम देह लिये रवि अस्ताचलको भाग रहा ; हो उद्दण्ड प्रचण्ड आलसी मारुत भी फुकार रही, उन रूप घर घरा अग्निके, आज उगल अंगार रही ; सुनो, विश्व-विद्रोही बनकर विप्लवके हैं गाते गान , • महाप्रलयका आवाहन है 'उठो उठो, हे श्रेष्ठ महान् !'
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श्री कुसुमकुमारी, सरसावा
नाविकसे
देखो नाविक मेरी नैया,
धीरे - धीरे खेना; मृदु आशाओंका वोझा है,
कहीं भिड़ा मत देना; थरथर यह मन काँप रहा है ,
कहीं गिरा मत देना; नया धीरे-धीरे खेना।
(२) भव-समुद्रकी अगणित वाधा ,
लहरों का तूफ़ान; यश-अपयशके झंझा झोके ,
वीच - वीच. चट्टान चट्टानोंसे वचकर चलना, .
कहीं न टकरा देना; नया धीरे-वीरे खेना।
( ३ ) हाथ तुम्हारे काँप रहे हैं,
इनको जरा थमाओ; छूट पड़े पतवार न देखो,
पानी परे हटायो ; मुझे जरा उस पार लगा दो, ___ तव विराम तुम लेना ; नया धीरे-धीरे लेना।
-
१९८ -
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श्री मैनावती जैन
"बीत गये दिन उजड़ चुकी है बस्ती मेरी" -- यह श्री मैनावतीके हृदयके स्वर हैं -- प्रकृत्रिम और यथार्थ । अपने विषयमें वह लिखती हैं।
1
"मुझे कवियित्री बनने या कहलानेका अभिमान नहीं, दावा नहीं; और इच्छा भी नहीं; परन्तु अपने इन असहाय पीड़ा-भरे शब्दोंको श्रीसूकी लड़ियोंमें गूंथनेका कुछ रोग-सा हो गया है । यह मेरा रोग भी है और मेरे रोगकी सर्वोत्तम श्रौषधि भी ।"
उनके जीवनमें दुःख वज्रकी तरह अचानक श्रा टूटा । १८ फ़रवरी सन् १९४२ को इलाहावादके पास खागा स्टेशनपर जो रेल दुर्घटना हुई थी, उसमें इनके पति श्री विमलप्रसाद जैन, बी० कॉम०, देहली, स्वर्गवासी हो गये थे। उस समय इनके विवाहको ठीक एक वर्ष हुआ था । उसी दिनसे यह मनके गहरे विवादको प्रसुत्रोंकी धारा बहानेका प्रयास कर रही हैं । इनकी कवितामें शब्दोंकी सुकुमारता और शैलीका सुन्दर समावेशं भले ही न हो, किन्तु हृदयको व्यथा अवश्य है ।
श्री मैनावतीका जन्म सन् १९२५ में इलाहाबादमें स्वर्गीय ला० शम्भूदयाल जैनके घरमें हुआ । 'विमल पुष्पाञ्जलि' नामसे श्रापको धार्मिक कविताओंका एक संग्रह भी प्रकाशित हो चुका है ।
चरणों में !
• अव छोड़ जाऊँ कहाँ चरणारविन्द
तेरे ;
कुछ पास है न मेरे ।
१९९
आई हूँ द्वारपर मैं,
1
Got
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सब भक्त तो चढ़ाते,
जल-गन्य-पुष्प-अक्षत; नैवेद्य दीप पावन,
फल धूप कर्म-दाहन । में शीग हूँ नवाती,
उर भक्ति-भाव मेरे; अव छोड़के जाऊँ कहाँ, ,
चरणारविन्द तेरे। जन लौटते नहीं है,
निष्फल निरांग होकर; 'मैना' पड़ी चरणमें,
आँसूकी माल लेकर। साथी सगा न कोई,
प्रियतम 'विमल' सिवारे ; अव छोड़के जाऊँ कहाँ,
चरणारविन्द तेरे।
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२००
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श्री सौ. सरोजिनीदेवी जैन
सौ. सरोजिनीदेवीजी 'वीर' के प्रसिद्ध सम्पादक श्री कामताप्रसादजी की सुपुत्री हैं। श्रापका जन्म ता० १ जून १९२६ को अलीगंज (एटा)में हुआ था। सन् १९४३ में आपने 'लोअर मिडिल'को परीक्षा प्रथम श्रेणीमें पास की थी, जिसमें द्वितीय भाषा-उर्दूमें आपको 'डिस्टिक्शन' मिला था। इस प्रोरको जैन समाजमें आप पहली सुलेखिका
और कवियित्री हैं। सन् १९४३में आपका विवाह दि० जैन परिषद् कायमगंजके उत्साही अग्रणी-युवक श्री सुमतिचन्द्रजीके साथ हुआ था। श्री सरोजिनीदेवीने भा० दि० जैन परिषद् परीक्षा बोर्डकी कई धार्मिक परीक्षामों में प्रथम श्रेणीमें उत्तीर्णता पाई है और पुरस्कार भी पाया है। ___ "जैन महिलादर्श"में आप वरावर सुन्दर लेख और मोहक कविताएँ लिखती रहती हैं। आपकी कवितामें स्वाभाविक गति है और आपकी दृष्टिमें मौलिफता है। प्रसिद्ध कवियित्री श्री मणिप्रभादेवीने लिखा है कि "सरोजिनीने कविता सुन्दर शब्दावलिमें गूंथी है-भावकी दृष्टिसे भी (उनकी फविता) फाफ़ी अच्छी है। (इन्होंने) डाली तथा कुसुमका वड़ा सुन्दर और शुद्ध साहित्यिक संवाद लिखा है। इनकी अब तककी रचनाओं में यह सबसे श्रेष्ठ रचना है । सरोजिनी इसी तरह उत्तरोत्तर उन्नति करती रहें। (वह) धीरे-धीरे खूब विकसित होती जाती हैं।"
-जैनमहिलादर्श
___ - २०१ -
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गीत
में दुखसागरकी एक लहर !
जो प्रति क्षण तट चुम्बन करने, आती है आलिंगन भरने, पर तट ठुकराता पग-पगपर, पड़ते हैं अगणित दुख सहने, अनुभव उसका मुझको कटुतर !
7.
निज तन देकर जो जग सिंचन, करती है वनकर यानन्द धन, इसपर भी तो स्नेह नहीं मिलता, लगता नीरस जीवन ; उससे परिचित मेरा अन्तर ।
तुम क्या जानो दुखकी रेखा, तुमने सुख रत्नाकर देखा ! आहत अन्तर ही समझ सकेगा, ठुकराये अन्तरका लेखा ! तुम तक तो सीमित सुखसागर ।
मैं अपनेको करती अर्पण, तव सुख-चिन्तन करती प्रति क्षण, तुम इतराते, कुछ प्यार नहीं; होता सुवर्णमय-तन रज-कण ; पीड़ा लहरी हो रही अमर ।
यह लहर-लहरकी दुख कम्पन, कव मन्द पड़ेगी दिल धड़कन, होगा समाप्त तट निष्ठुरपन, कव लहर-लहरका मंजुमिलन । लहरोंका सुख तटपर निर्भर ।
२०२
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श्री सौ० पुष्पलता देवी कौशल, सिवनी, सी० पी०
श्राप समाजके प्रसिद्ध कार्यकर्ता, जैनधर्म विशारद वावू सुमेरचन्द्रजी 'कोशल' वी० ए०, एल-एल० वी० प्लीडर सिवनीकी धर्मपत्नी हैं । श्रापका विवाह हुए १० वर्ष बीते हैं । आपको वाल्यावस्थामें ही आपके पिता सवाई सिगई श्री खूवचन्दजी जबलपुरका स्वर्गवास हो चुका था । श्रापकी माता श्रीमती सुन्दरवाईने अपने अन्य दो पुत्रों सहित श्रापका सुलालन पालन वैधव्य श्रवस्थाका श्रादर्श पालन करते हुए किया है। माता-पिताके धार्मिक संस्कारोंका आपपर पूर्ण प्रभाव पड़ा है। इसलिए अापकी धार्मिक शिक्षण और सदाचरणकी श्रोर विशेष रुचि है । श्राप बंगाल संस्कृत एसोसिएशनकी 'न्यायतीयकी' तैयारी कर रही हैं। तथा बम्बई परीक्षालयकी 'विशारद' पात कर चुकी हैं ।
आपको साहित्यसे विशेष अभिरुचि है । और कभी-कभी कविता श्रीर लेख लिखा करती हैं । श्रापकी कविता तथा लेख "जैन महिलादर्श" में ससन्मान प्रकाशित होते हैं । " दर्श" के कविता मन्दिरमें आपको अपने लेखों और कविताओं पर प्रथम पुरस्कार प्राप्त हो चुके हैं ।
-
२०३
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भारत नारी
जाग जाग हे भारत नारी !
प्राचीमें अरुणोदय छाया , अन्धकारका हुया सफाया ,
तेरा समय आज है आया , जाग जाग हे भारत नारी !
सदियोंसे तू पिछड़ रही है , तव जीवनका मूल्य नहीं है ,
अन्धकारमें पड़ी हुई है, जाग जाग हे भारत नारी!
तू जीवनको सुखी बनाये , चाहे जीवन दुखी बनाये ,
तुझपर है सव जिम्मेदारी, जाग जाग हे भारत नारी!
तू है शक्ति, तू ही जगदम्बा , तू है विजया, तू है रम्भा ,
उठ आगे आ, छोड़ दासता , जाग जाग है भारत नारी !
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गीति - हिलोर
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श्री गेंदालाल सिंघई, 'पुष्प' साहित्यभूषण
श्री गेंदालाल सिंघई, चन्देरी (ग्वालियर)के रहनेवाले हैं और श्री चम्पालाल 'पुरन्दर के अनज हैं। प्रापने १३ वर्षको अवस्थासे ही कविता लिखना प्रारम्भ कर दिया था। आपकी भावपूर्ण रचनाएँ पहले जैन-पत्रोंमें प्रकाशित होती रहीं, फिर आपने 'नवयुग'के लिए विशेष रूपसे कविताएँ लिखीं। अब प्रकाशित नहीं कराते । इनका एक कविता-संग्रह और एक कान्य प्रकाशनकी प्रतीक्षा कर रहा है।
आपकी कविताके भाव सुवोध होते हैं, क्योंकि भाषा आडम्बरहीन होती है। और प्रेम-मूलक कविताएँ प्रायः सभी सुन्दर हैं।
कभी कभी मैं गा लेता हूं कप्ट कहीसे आ जाता है, दिल दुखसे घबरा जाता है, अन्तस्तलकी पीडाको मैं
___ गाकर ही सहला लेता हूँ। इस विस्तृत जगतीके पटपर चित्र खिंच रहे नित नूतनतर , नया न कुछ कहकर दृश्योंको
गब्दोंमें दुहरा देता हूँ। कभी-कभी आशा जा-जाकर लौटी साथ निराशा लेकर , वुरा नही इसको कहता हूँ,
__ दोनोंको अपना लेता हूँ। कभी-कभी मै गा लेता हूँ।
~ २०७ -
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बलिदान
1
जीवनका बलिदान मुझे दो सुखमय जीवन-दान न दो ।
करें ।
प्राजन मन बहलानेको हम मृदु वीणा भंकार करें ; इस जीवनका मूल्य मिलेगा, आज मृत्युसे प्यार करें । भून रहा मानवको मानव, पशुताका संहार करें ; शोषण, उत्पीड़नके बदले प्रलयंकर हुंकार 'जीवनका उत्सर्ग करें यह प्रण दो मुझको प्राण न दो । भक्तोंमें हो शक्ति, स्वयं भगवान दौड़कर आते हैं 'भक्त सगुणको निर्गुण श्री' निर्गुणको सगुण बनाते हैं । · यदि भगवान नृशंस क्रूरता घातकता अपनाते हैं ; तो विद्रोही भक्त ग्राज उनका अस्तित्व मिटाते हैं । भक्तोंने भगवान वनाये,
भक्त मिले, भगवान न दो ।
भरा विश्वका भाग्य हमारे मस्तककी इस रोलीमें ; दीवाने - वनकर मिल जायें दीवानोंकी टोलीमें । भीषण नर-संहार मचेगा करुण-कंठकी बोलीमें ; - क्षण-भर में यह जगत जलेगा महानाशकी होलीमें । दो,
सुखसे मुझको मर जाने
जीनेका अरमान न
दो ।
२०८
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________________
जीवन संगीत
जगतका जीवन ही संगीत। उन्नति इसकी आरोही है,
अवनति इसकी अवरोही है , कष्ट यातना क्लेश क्लान्ति ही है करुणाके गीत ।
जगतका जीवन ही संगीत ।
रहता दुखका स्वर वादी है,
आशाका स्वर संवादी है, कष्ट कसक ही मीड़ मसक है दो हृदयोंकी प्रीत।
___ जगतका जीवन ही संगीत ।
खाली कभी भरी हो जाती ,
भरी कभी खाली बन जाती, कोमल तीव्र, तीव्र कोमल हो, यही प्रेमकी रीत।
जगतका जीवन ही संगीत ।
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श्री फूलचन्द्र 'मधुर', सागर
श्री फूलचन्द्र 'मधुर' दि० जैन महिलाश्रम सागरके मन्त्री श्री चौधरी रामचरणलालजीके सुपुत्र हैं। आपको अल्पावस्थाले ही कवितासे रुचि है। यद्यपि आपकी शिक्षा मिडिल तक ही हुई है और अवस्था भी वाईस वर्षके लगभग है फिर भी आप बड़ी सरस कविता करते हैं। इनके गीतिकाव्योंमें हृदयकी स्वाभाविक संवेदना होती है और प्रायः कविताका धरातल अपार्थिव और उन्नत होता है।
आप राष्ट्र-कर्मी होनेके कारण जेल-यात्रा भी कर आये हैं। इसलिए इनके गीतोंमें युगको आवाज गूंजती है। आपने 'मानवगीत' नामक एक कविता-पुस्तक लिखी है, जो प्रकाशनकी प्रतीक्षामें है ।
टूटे हुए तारेकी कहानी : तारेकी जुबानी
था क्या आधार? गगनने मुझको गिराया
भूमिने मुझको उठाया मध्यमें मुझको बसाने कौन था तैयार ?
था चमकता गात मेरा
था निशापर राज मेरा जीर अगणित मानवोंका था मुझे ही प्यार।
-
२१० '
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1
देख मुझको व्यथित मनसे हँस रहे तारे गगनसे ;
वन्धु मुझपर हँस रहे हैं देखकर लाचार ।
देखकर मेरा पतन यह
हृदयका मेरे रुदन यह ( कह दिया आलोचकोंने)
जो कहाते विश्व-विजयी, आज उनकी हार ।
था क्या आधार ?
गीत
छुप रहा जीवन तिमिरमे । सजनि, ये क्षण-क्षण सिमटकर मिल रहे धूमिल प्रहरमें । छुप रहा०
छुप रही लाली क्षितिजमें, छुप रहा दिनकर गगनसे, और छुपने जा रहे उन्मुक्त खगगण भग्न मनसे, जो रहा अब तक यहाँ, सव वह गया इक ही लहरमें । छुप रहा०
जव हृदयको गीत भाया, भाव सब जिसपर लुटाया, और अव तक ज़िन्दगीमें जो, सखे, था प्यार पाया, शोक वह कुछ भी नहीं, सव रह गया पिछले प्रहरमें । छुप रहा ०
२११
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वेदनाके गीत गाता, विगतकी स्मृतिको सुनाता ,
बढ़ रहा हूँ शून्यमें मैं, शून्यमें खुदको मिलाता, प्रिय अप्रिय क्या-क्या रहा, यह सोचता पथमें ठहर मैं। छुप रहा०
वेदनाके साथ मिलकर, यातनाके साथ घुलकर ,
प्राप्त जो कुछ कर सका मैं, दो क्षणोंका प्यार बनकर , सब लुटाता जा रहा हूँ, आज इस सूनी डगरमें।
छुप रहा जीवन तिमिरमें।
मैंने वैभव त्याग दिया है
जिसको है जगने ठुकराया, उसको ही मैने दुलराया ; जिसको जगकी घृणा, उसीको अब तक मैंने प्यार किया है। तव जीवन पहचान न पाया, किंचित् सुखमें पथ विसराया ; वैभवहीन अाज हो मैने जगका कुछ उपकार किया है। मानव अपना पय विसराये, कुछ भूले से कुछ भरमाये ; मैंने जबसे जगमें पाये दुखका ही सम्मान किया है। हुए स्वप्न वे दिवस हमारे, त्याग सभी सुख साज पियारे ; आज विश्वके निकट रोगीले प्रस्तुत यह आदर्श किया है।
मैंने वैभव त्याग दिया है।
-
२१२ -
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आज विवश है मेरा मन भी
पग-पगपर मेरे प्रतिवन्धन है अन्तरमें भीपण क्रन्दन
अरे बँधी सीमाएँ उसकी अल्प जिसे विस्तीर्ण गगन भी । आज विवश है
०
ग्रह पतन यह कितना अपना,
इससे भी कुछ ज़्यादा सहना,
किन्तु दुखी अन्तःका कोई नहीं आज सुनता रोदन भी । आज विवश है ०
वे विजयी
कहलानेवाले,
हम हैं अश्रु वहानेवाले
आज परस्पर ऊँच-नीचका है क्यों जगमें सन्विक्षण भी ? आज विवश है ०
हम भी अव युगको अपनावें, मिटनेके
अरमान जगावें,
खोये अधिकारोंको
पावें,
अपना पथदर्शक कहता है, "भ्रमर रहा कव
आज विवश है मेरा मन भी ।
२१३
-
मानव-तन भी" ?
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________________
श्री 'रतन' जैन
कविताके क्षेत्रमें उन्नतिकी और शीघ्रतासे क़दम बढ़ानेवाले नवयुवकों में श्री रतनकुमार जैनका नाम विशेष रूपसे उल्लेखनीय है । यद्यपि श्रापका उपनाम 'रतन' या 'रत्न' नहीं है, फिर भी आप अपनी कविताओंके साथ यही नाम छपवाते हैं ।
श्री 'रतन' जैन, जयसिंहनगर (सागर) के रहनेवाले हैं; श्रीर इस समय स्याद्वाद महाविद्यालय काशीमें अध्ययन कर रहे हैं ।
यद्यपि आपके गीतोंमें वेदना और निराशाको स्पष्ट छाप है किन्तु जीवनके निरीक्षणका दृष्टिकोण एकान्तवादी नहीं है । हमें आशा करनी चाहिए कि वह अपनी 'परिचय' शीर्षक कविताके अनुसार ही अपने afa - जीवनका ध्येय बनायेंगे :--
'मैं कवि हूँ कविता करता हूँ, मुरदोंमें जीवन भरता हूँ ।'
मुझसे कहती मेरी छाया
सोच सम्हल पग धरना मगमें, काँटे फूल विछे डग डगमें,
जीवनके उत्थान-पतनमें उलझ न जाय कहीं यह काया
,
मुझसे कहती मेरी छाया ।
प्रिय वसन्तके नवल रागमें, यौवन सरसिजके परागमें,
भूल न जाना पथिक कहीं तू अंगारोंकी जलती छाया,
मुझसे कहती मेरी छाया ।
-
२१४
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________________ प्रणय-कम्पकी भीनी सिहरन , मृगनयनीकी तीखी चितवन , प्यार-भरी इन रातोंमें है सदा किलकती छलनी माया , मुझसे कहती मेरी छाया। मेरे अन्तरतसके पटपर इन्द्रधनुपकी नवल तूलिका सुख-दुखकी ले मृदुल भूमिका विस्मृत जीवनके चित्रोंको करनी रेखांकित है सत्वर , मेरे अन्तरतमके पटपर। शैशवकी वालारुण आभा / यौवनकी मदमाती छाया रतनारे इन नयनोंसे है अश्रुविन्दु छलकाती मृदुतर, मेरे अन्तरतमके पटपर। पुण्य-पापकी गा गाथाएँ प्यार-भरी नूतन आशाएँ नीरव निर्जन वन्य प्रान्तमें इठलाती हैं सरिता-तटपर , मेरे अन्तरतमके पटपर। पूछ रहे क्या मेरा परिचय ? मैं कवि हूँ कविता करता हूँ, मुरदोंमें जीवन भरता हूँ, जीवन-दीप जलाकर अपना प्राणोंका करता हूँ विनिमय / पूछ रहे क्या मेरा परिचय ? - 215 -