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ग्राज जो हर्षा रही पाकर तुझे सुकुमार डाली ; कल वही हो जायगी सौभाग्यसे वस हाय खाली ।
देखकर लाली जगत्की काल 'निश-दिन भूलता है ।
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आज जो तेरे लिये सर्वस्व करते हैं निछावर ; कल वही पद धूलमें तेरे लिये फेंके निरन्तर ।
स्वार्थ-मय लीला जगत्की, मूर्ख, क्योंकर हूलता है ।
विश्वका नाटक क्षणिक है, पलटते हे पट निरन्तर ; आज जो है कल उसीमें ही रहा सुविशाल अन्तर ।
है अभी अज्ञात इसमें 'चन्द्र' क्या निर्मूलता है ; चार दिनकी चांदनीमें फूल क्योंकर फूलता है ?
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