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आज विवश है मेरा मन भी
पग-पगपर मेरे प्रतिवन्धन है अन्तरमें भीपण क्रन्दन
अरे बँधी सीमाएँ उसकी अल्प जिसे विस्तीर्ण गगन भी । आज विवश है
०
ग्रह पतन यह कितना अपना,
इससे भी कुछ ज़्यादा सहना,
किन्तु दुखी अन्तःका कोई नहीं आज सुनता रोदन भी । आज विवश है ०
वे विजयी
कहलानेवाले,
हम हैं अश्रु वहानेवाले
आज परस्पर ऊँच-नीचका है क्यों जगमें सन्विक्षण भी ? आज विवश है ०
हम भी अव युगको अपनावें, मिटनेके
अरमान जगावें,
खोये अधिकारोंको
पावें,
अपना पथदर्शक कहता है, "भ्रमर रहा कव
आज विवश है मेरा मन भी ।
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मानव-तन भी" ?