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यही सोच है कैसे जाऊ
गहरे सागरके उस पार,
नाथ दयाकर तुम बन जाओ
मेरी
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नैयाके पतवार /
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प्राचीने स्वर्णिलता पाई,
मुझमें भी नव लाली आई, उपवनमें कलिका मुसकाई,
जीवनके
कोने-कोने में
या मधुर संचार |
सुन्दर नव जीवनका मधुरस, 'प्रभा' पूर्ण मलयानिलका यश, आज हुआ सबका सामंजस,
बन्धन विगत हुए छिन्नित हो खुला मुक्तिका द्वार ।
मौन मन्द रवमें मुसकाया, मुझपर नव विकास वन छाया, बहुत खोजकर मैंने पाया,
रहे सदा अक्षुण्ण हमारा सोनेका संसार |
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