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अब एक निराला जीव बना, जीवन में कहीं न उलझन है ; में है, मदिरा है, साक़ी है, साक्रोवालाकी रुनभुन है । में सबसे खुश हूँ दुनियाको, मेरी सत्ता क्यों खलती है। कुछ भी न समझ पाता है मैं, जगकी या मेरी ग़लती है ? टो टिन हीका ती मेला है, फिर जाता पथिक अकेला है; यहनन्नर वनदौलत पाकर,रे! कौन न हेरा-चुग खेला है । यदि में भी इस लूं तो जगकी, दृष्टी क्यों रंग बदलती है; कुट भी न समझ पाता हूँ मैं, जगकी या मेरी ग़लती है । में प्रेम नगरमें रहता हूँ, मुखके सागरमें बहता हूँ; गवी ही गुनता जाता हूँ, अपनी न किसीसे कहता हूँ। तो भी ये दुनियाको बातें, क्यों रह-रह मुझपर ढलती हैं ; 'कुछ भी न समझ पाता हूँ मैं, जगकी या मेरी ग़लती है। कोई वाहता तू मार्ग-भ्रष्ट, होकर पाता क्यों अमित कप्ट ; पापाने रंगा हुआ पगले, तेरे जीवनका पृष्ट-पृष्ट । मैने न कभी पथ पूछा फिर, इनकी क्यों जिह्वा चलती है; कुछ भी न समझ पाता है में, जगकी या मेरी ग़लती है । में विद्रोही है, बागी हूँ, अनुराग लिये वैरागी हूँ; जिसका न कभी स्वर विकृत हो, मैं ऐसा अद्भुत रागी हूँ। फिर मेरे निकले रागाँस, क्यों दुनिया मुझको छलती है ; कुछ भी न समझ पाता हूं मैं, जगकी या मेरी ग़लती है ?