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रणचण्डी
जागो,
जगकर आज गान
हे कवि-वाणी, कुछ गाओ !
अग्नि-युद्ध में, हा, वू-धूकर मानव जलता छाई रोम-रोममें दुनियाके व्याकुलता, बढ़ा ग्रा रहा बुद्धिवाद मानवको दलता
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बहुत हुआ, ग्रव यह भीषण-पट परिवर्तन कर जानो ।
नाच रही है उच्छृङ्खल रक्तिम रणचंडी, लाल रक्तने लथपय वन, उपवन, पग-डंडी, बीहड़ में जयकेतु उड़ा खुग युद्ध घमंडी
दानवताका गर्व चुरकर इसमें मानव लाम्रो ।
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केवल मेरी सत्ताकी माया मरीचिका,
उगा रही है पग-पगपर भीषण विभीषिका,
प्यासा यह नर-यल, भयंकर रक्त-नीतिका
इसे रक्तकी जगह प्रेमका पुण्य - पियूष पिलाओ।
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