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पिताको परलोकयात्रापर
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इस प्रकार जब तक में रोया तब तक मिल करके सव लोग अथ सजाकर चले सुविधिवत्, देना पड़ा मुझे भी योग ; पहुँचे वहाँ जहां अगणित जन जले खाकमें सोते हैं, पुद्गल - पिण्डोके रूपान्तर जहाँ निरन्तर होते हैं । १
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चिता वना उस प्रेत-भूमिमें 'प्रेत' पिताका पवराया किया चरम संस्कार पलकमें प्रजलित हुई अनल माया ; घाँय धायकर जीभ काढ़ तव धूम-ध्वजने धधक धधक, मिला दिया फिर जड़में जड़को कर अंगोंको पृथक्-पृथक् ॥२
दी प्रदक्षिणा मैंने तव उस जलती हुई चिताको घेर, हृदय थाम, कर अश्रु संवरण, किया निवेदन प्रभुसे, टेर ; "शान्ति- प्रदायक, शान्तिनाथ जिन, शोक शान्त सवका करके, जनक-जीवको शान्त रूप निज देना गरण कृपा करके" |३
इस चरित्रको देख, चित्त सबके ही हुए विरक्त विशेष, सदय हुए पाषाण हृदय भी, दुष्कर्मसि डरे शेष ; रहें निरन्तर यदि ग्रन्तरमें ऐसे ही परिणाम कहीं, तो समझो संसार पार होनेमें कुछ भी वार नहीं ॥४
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जीवन - लीलाकी समाप्ति यह पढ़के पाठक समझेंगे जल बुद्बुद सम जीवन जगमें इसके लिए न उलझेंगे ; स्व-स्वरूपका सदा चिन्तवन करके परको परके पोषक मोहक निजके भोगोंसे मुंह
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छोड़ेंगे, मोड़ेंगे 1५