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हिंसक पशु-संकुल वीहड़ बन, दुर्गम गंभीर गिरि-पाटीमें ; तुम निर्भय विचरे हिंसा, भय, साक्षात् मृत्युकी घाटीमे । निर्वसन, दिगम्बर, प्रकृत, नग्न, तुम विकृति विजेता क्षात्र - जात ; पृथ्वी ससागरा लिपटी थी तव चरणोंपर होने सनाथ । झाड़ी-भंखाड़, वनस्पतियाँ, वल्लरियाँ भरती परिरम्भण ; विषधर विभोर हो लिपट रहे नंगी जाँघोंपर दे चुम्बन ।
नाना विधि जीव-जन्तु कीड़े, चींटी, दीमक सब निर्भयतम ; पृथ्वी, जल, अम्बर, तेज, वायु, सब त्रस थावर जड़ श्री' जंगम । तेरी समाधिकी समताके उस वीतराग आलिङ्गनमें ; सव मिलकर एकाकार हुए, निर्वन्धन, तेरे बन्धनमें । कैवल्य ज्योति, आदित्य-पुरुष, ओ तपो- हिमाचल शुभ्र धवल तेरे चरणोंसे बह निकली समताकी गंगा ऋजु निश्छल ।
इस निखिल सृष्टिके अणु-अणुके संघर्ष, । विषमता मी' विरोव ; कल्याण- सरितमें डूब चले, हो गया, वैर आमूल शोध । तेरे पद-नखके निर्भर-तट, सब सिंह, मेमने, मृगशावक ; पीते थे पानी एक साथ, तेरी छायामें प्रो रक्षक । जिन - चक्रवति, सातों -तत्त्वोंपर हुआ तुम्हारा नव-शासन ; तीनों कालों, तीनों लोकोंपर विद्या तुम्हारा सिंहासन ।
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