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समस्त-विश्व-प्राणियोंने मस्तकको नवाया था झुकाये थे चरणोंमें अपने प्रपीड़ित प्राण, नीरव वेसुध से हो सुखके रस-सागरमें डूबते, • उतराते, रोमाकुल, रोमातुर, की थी तव वन्दना वन्दना-ज्ञानमयी, अर्चना-ध्यानमयी, प्रतिष्ठा-प्राणमयी, प्रार्थना-गानमयी। उसकी पुण्य-स्मृतिमें शत-शत मानवोंके विह्वल मन-प्राणोंकी कोमल, सजल, पङ्खरियाँ जो छूनेसे विखर जायें, प्रोसकी बुन्दकियोंसे सौगुनी निखर जायें। अर्पित है, देव, आज पद-रज-परागपर श्रद्धाकी अञ्जलियाँ।
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