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श्री लक्ष्मणप्रसाद प्रशान्त'
अपने २५ वर्षके साधन-हीन जीवनके द्वन्द्वोंको पारकर, आज जब लक्ष्मणप्रसादजी 'प्रशान्त' पीछे मुड़कर देखते हैं तो उन्हें सन्तोष होता है इस वातपर, कि अब परिस्थितियां बदल गई हैं और जीवनको वेदनाने उन्हें उस कविके दर्शन करा दिये जो उनके हृदयमें इसी दिनके लिए छिपा बैठा था। आपने कविता लिखनेके लिए काफ़ी परिश्रम किया है, और साधना की है। फिर भी, लगता तो यही है कि उनकी कविताका स्वर सहज और नैसर्गिक है।
इनको कवितामें संसारको अस्थिरता और जीवनकी विषमताकी हलको छाप है । पर, कविके कर्तव्यको ओर भी इनकी दृष्टि है
"हर दिलमें उमड़ पड़े सागर, हर सागरमें अमृत जागे, अमृतकी प्यालीमें मानवका एक अमर जीवन जागे।" .
दो दिनकी अस्थिर सुपमापर मत इतराना फूल ; प्रात समय हँसते, मतवाले, साँझ न जाना भूल । मत करना अभिमान रूपका केवल जग अभिलापी; नहीं सत्य अनुराग, स्वार्थपरता, फिर वही उदासी । माना वन-वनमें ढूंढ़ा करता तुझको वनमाली ; पर क्या ? स्वार्थ वासनासे मानवका अन्तर खाली ? सम्हल-सम्हल रहना शिखरोंपर, फिमल न जाना भूल ; पातपात डालीडालीमें निहित नुकीले शूल । जिसके साथ रहे जीवन-भर खेली आँखमिचौनी ; वही विहग सूनी संध्यामें बने विरागी मौनी ।
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