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राही झूला प्रेम दिखाकर व्यर्य तुझे अपनाते ; चूस चूस पी अमृत, मसलकर फेंक, अरे इठलाते हार सृजन कर, वेव हृदय, अपने जी-भर तरनाकर ; दुनियाने पाई शोभा, तेरा संसार मिटाकर ।
कविसे
पत्थर में कोनलना जाने,
अंगारोंने
वरने पानी; निस्तव्य गगन हो उ मुखर, मूकोंकी सुन भैरव वानी ।
हो उठे वाली दिवा, निघा
का चीर गहन तममें चमके;
हिमकरकी शीतल किरणोंन
नानवके इंगितपर गत शत
उद्दीप्त तेज रह-रह दमके ।
न्यौछावर हो जायें प्राणी;
सुन मानवताका सिंहनाद
हर दिलमें उमड़ पड़े नागर,
नतमस्तक हो जायें मानी।
हर सागरनें अमृत जागे ।
अमृत की प्याली में मानवका,
एक अनर जीवन जागे || कवि, गान मधुर ऐसा ना है।
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