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कहाँ झूम रहा मदमत्त पतंग , अरे, यह पाग तमाशा नहीं! वन जायेगा खाक अभी, कवि 'चंचल', मोल ले व्यर्थ निराशा नहीं।
यह चाहकी प्यास है नित्य, सखे , मिटती कभी यह अभिलापा नही ; यह जिन्दगी हीवुझ जाती है, किन्तु कभी बुझती है पिपासा नहीं !
मत चाहकी राहमें आहें भरो, इस चाहमें लुत्फ जरा-सा नहीं ; इस चाहका जो भी शिकार बना , वह वना निज प्राणका प्यासा वही ।
यह चाह यहाँ दुखदाई, सखे, मिटती इसकी अभिलापा नही; यह जिन्दगी ही वुझ जाती है, किन्तु, कभी बुझती है पिपासा नहीं !
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