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होकर सुखमें मग्न न फूलें, दुखमें कभी न घत्ररावें, पर्वत नदी श्मशान भयानक अटवीसे नहि भय खावें ;
रहे डोल अकम्प निरन्तर यह मन दृढ़तर वन जावे, इप्ट - वियोग अनिष्ट - योगमें सहनशीलता दिखलावे ||
सुखी रहें सव जीव जगत्के, कोई कभी न घवरावे, वैर भाव अभिमान छोड़, जग नित्य नये मंगल गावे ;
घर-घर चर्चा रहे धर्मकी दुष्कृत दुष्कर हो जावे, ज्ञान - चरित उन्नत कर अपना मनुज - जन्मफल सव पावें ||
इति-भीति व्यापे नहिं जगमें वृष्टि समयपर हुआ करे, धर्मनिष्ठ होकर राजा भी न्याय प्रजाका किया करे ;
रोग मरी दुर्भिक्ष न फैले प्रजा शान्तिसे जिया करे, परम अहिंसा - धर्म जगतमें फैल सर्व हित किया करे |१०|
फैले प्रेम परस्पर जगमें, मोह दूरपर रहा करे, अप्रिय कटुक-कठोर शब्द नहिं कोई मुखसे कहा करे
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वनकर सव 'युग-वीर' हृदयसे
देशोन्नतिर रहा वस्तु-स्वरूप विचार खुशीसे सव दुख-संकट सहा करें | ११ |
करें,