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अज सम्बोधन
(वध्यभूमिकी ओर ले जायजानेवाले बकरेसे)
हे अज, क्यों विषण्ण-मुख हो तुम, किस चिन्ताने घेरा है ? पैर न उठता देख तुम्हारा, खिन्न चित्त यह मेरा है;
देखो, पिछली टाँग पकड़कर तुमको वधिक उठाता है; और ज़ोरसे चलनेको फिर धक्का देता जाता है ।।
कर देता है उलटा तुमको, दो पैरोंसे खड़ा कभी , दांत पीसकर ऐंठ रहा है, कान तुम्हारे कभी-कभी ;
कभी तुम्हारे क्षीण-कुक्षिमें मुक्के खूब जमाता है, अण्ड' कोषको खींच नीच यह फिर-फिर तुम्हें चलाता है ।२।
सहकर भी यह घोर यातना तुम नहिं कदम बढ़ाते हो, कभी दुवकते, पीछे हटते, और ठहरते जाते हो;
मानो सम्मुख खड़ा हुआ है सिंह तुम्हारे बलधारी ,
आर्तनादसे पूर्ण तुम्हारी 'मैं...मैं..' है इस दम सारी ।।