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विस्तार,"
जहाँपर थल-अंचल वहाँपर लहराते हो और फिर सार्थक करने नाम,
सिन्धु ।
स्वयं तुम कहलाते हो
सिन्धु ॥
तुम्हें नहि व्रीड़ाका भय छद्मभेपोंस रचते
"
धूल सिकता -युत कर मरु मुखा देते हो जलवि
रंच,
जाल |
1
थान विशाल ॥
विवर्तित प्रातर् कभी संध्यामय करके तमित्राका दे हो
ग्रहो ! परिवर्तन हो या
अरे, तुम स्रजनहार, पर सर्व व्यापक हो अहो
1
ऊपा - काल ,
आप
रूप
1
गाप ?
१६९
! हे जग-दूर
जगत्-अवलम्वन
!
न कुछ हो, तुम सब कुछ हो, धन्य - !
हन्त
1
अनन्य !
-