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पर विटप तो नित्य हँसता खेलता
और 'हर-हर' गीत गाता सर्वदा ; चन्द्रिकाके साथ करता मोद है,
श्री' न होता मग्न दुखमें एकदा । और तो फिर सोचते हो क्या भला ,
पूर्व वैभव ? आज भी वह कम नहीं। इस तुम्हारी धूलिका कण एक ही
विश्वकी सम्पत्तिसे मौलिक कही। सत्य है वह पुण्यकाल न अव रहा ,
वृक्ष भी तुमपर न उतने हैं भले , और फिर वे फल फलाते है नही ,
अऋतुमें क्यों फूलने फलने चले ? वात ऋपियोंकी किनारे ही रही,
आज उतने विहग क्या वसते यहाँ ? इन्द्रका पाना तुम्हें अव स्वप्न है,
पतित पापी भी अरे आते कहाँ ! रो दिया खगकी चहकके व्याजसे
शान्त हो हे सिद्धवर, ढाढ़स धरो; नर्मदा भी है तुम्हारे दुःखसे
दुःखिनी, कुछ ध्यान उसका भी करो; नर्मदा तो आज भी रोती हुई
सिद्धवरके पूर्व वैभवकी कथा ; कह रही है, वह रही वन मन्थरा,
सान्त्वना देती हुई–'यह दुख वृथा!'।