________________
सिद्धवरकूट सिद्धवरकी ही असोन पुनीनता
पातकीको खींच ले आई इधर; ने नहीं आया, न मेरा दोष है,
हे अचल, हे गैल, हे सारङ्गबर ! फिर भलाक्यों मौन है वारण किया ,
जानते हो क्या कि हूँ मैं पातकी; हाय, तुम ही सोचनं जब यों लगे .
नो कमी कनिमें रही किस बातकी ? नानका कुछ दूसरा ही हेतु है .
गिरि, न तुम यो सोचने होगे, अरे ; याद तो क्या पूर्व दिन है आ रहे,
गर्व-मिश्रित, नोख्य यो पागा भरेजव कि मुनिगण ठौर और विराजके
या खड़े हो, योग थे करते रहे; और फिर उपदेश दे चिर मुख-भरे,
विश्वके विकराल दुख हरते रहे। तो उन्हीके विरहमें या ध्यानमें
इस तरह एकान्तमें एकात्र हो ; ध्यान क्या तुम कर रहे भानन्दसे?
वन्य गिरिवर, सिद्धवर, तुम धन्य हो ! या कि उनकी स्वार्थपरतापर तुम्हें ,
हे निराश्रित-त्यक्त गिरि,कुछ खेदहं ? • तो विचारो, नित्य होता वृनका
विहग-दलसे उपामें विच्छेद है।
-
१६
-