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नर्मदे, तू कौन है, कह तो तनिक,
काम तेरे हैं अलोकिकता भरे ; परिक्रमा देती उवर 'ऊँकार' की,
इबर इनके चरणमें मस्तक घरे । क्या यही दृष्टान्त है दिखला रही
एक-सी हो उभय धारा तू यहां ; जैन, वैष्णव आदि सव ही एक हैं,
एक उद्गम, एक मुख सवका वहाँ । सिद्धवर, भाओ यही व भावना,
वीर प्रभु-सा शीघ्र ही अवतार हो ; दानवः दुर्भाव मारे नष्ट हों,
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मुक्त हों हम, देशका उद्धार हो ।
नीच और अछूत
नालीके मैले पानीसे में बोला हहराय,
"होले वह रे नीच, कहीं तू मुझपर उचट न जाय" । "भला महाशय" कह पानीने भरी एक मुस्कान,
वहता चला गया गाता-सा एक मनोहर गान । एक दिवस मैं गया नहाने किसी नदी तीर,
ज्यों ही जल प्रज्जलिमें लेकर मलने लगा शरीर । त्यों ही जल बोला, "मैं ही हूँ उस नालीका नीर",
लज्जित हुआ, काठ मारा-सा मेरा सकल शरीर । तुन तोड़ी 'मुँह में डाली' वह वोली मुसुकाय"ओह महाशय, बड़ी हुई में नालीका जल पाय ।
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