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आँखोंमें लज्जाजन भर दे यौवन - वेग निहार सकूँ, बालामृत गद हीन पिला तू माँ, मेरे शिशु-पालनमें ,
मां, किस नारीने आजीवन निज कर्तव्य निभाया है, उपा पुजारिन कभी न चूकी
निज रविके आह्वाननमें । माँ, वह पचरंगा दृकुल अव बनवा नही नवीन मुझे , दोप छिपा न सकू फेनोज्ज्वल वमन कींगा धारण में।
किस मानवका कितना कोई जीव न मरनेका साथी , मुदित दिवम-भर नलिनी रहती
चन्द्रोदयके साधनमें। नर यात्री-पोतोंसे जलकी क्या अथाह छवि देख सकें , नक्र चक्र जैसा पाते सुख सागरके अवगाहन म ।
गिशु तो मात गोदको देते मल-पुरीप क्षेपणसे भर ,. तिक्त स्वादसे सवको रुचती। माँ, आंवी बालापनमें ।। - १२१ -