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श्री रत्नेन्दु', फरिहा
रत्नेन्दु'जी, फरिहा, जिला मैनपुरीके रहनेवाले हैं। यह कवितामें स्वाभाविक रुचि रखनेवाले नवयुवक कवि हैं। आप लगभग ४०-५० कविताएं लिख चुके हैं, जिनमें कई तो बहुत लम्बी-लम्बी हैं। दोहे, कवित्तसे लेकर छायावादी और हालावादी आदि सभी शैलियोंका प्रयोग करके आपने अपनी रचनाओंकी शैली निर्धारित करनेके लिए परीक्षण किया है।
आपकी कविताओं में अनेक भावोंका सम्मिश्रण होता है इसलिए प्राशय कहीं-कहीं दुरूह हो जाता है। किन्तु इनकी शब्दयोजना बहुत सुन्दर होती है । कल्पनाकी उड़ान भी खूब लेते हैं।
प्रकृति-गीत मेरे अंगोंमें पहनाती माँ क्यों तू इतने गहने , उषा तुल्य फूटी पड़ती छवि स्वतः बाल चन्द्राननमें ।
कर्ण-विवर-भेदक ' वाद्योंकी अच्छी लगती गूंज नहीं , मधु निशीथका मर्मर भाता
जैसा निर्जन काननमें । माँ, तेरा तो घटी यन्त्र यह घंटों रुक-रुक जाता है, रवि-शशि पल भर कभी न भूले निश-दिनके संचालनमें।
मां, तेरे इस नृप प्रवन्धमें । श्रमिक कृषक भी भूखे हैं , कण-कण तक मुसकाता रहता शुक्लाके 'शशि-शासनमें । - १२० -