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आज उसके मृदुल पदमें वेड़ियाँ हैं झनझनाती ; किस विरह किस वेदनाका ग्राह, अब वे गीत गाती । वक्षमें है घाव भारी, हथकड़ी करमें पड़ी है ; हा, गुलामी विपम-हाला ग्राज जिसका जी जलाती ।
विश्वका आदर्शवादी, ग्राज जग पद चूमता है ; जीर्ण शीर्णऽवप टुकड़ेपर मदी हो भूमता है । दूसरोंके तालपर हा, गान गाता हृत-वदन वह, ग्राज पीड़ा सदनमे हा
नाचता है ;
घूमता है ।
तेरा ;
नजा ग्राकाश
तेरा ।
ग्राज जगके मुस्कुरानेमें छिपा है हास वंदना रक्तदीपांस के धराको, तमपुजको, यम-चन्द्रिका तूने दिखाई ; एक अनुचर व्यंग अब कर रहा
परिहास तेरा ।
रो
श्राज तेरी शक्तियाँ पदमं पड़ी है, रही है ; क्यों वृथा अनुतापका यह भार रो-रो ढो रही है । जननि, तेरी मातृप्रेमी हुई जो सन्तति दिवानी ; वह विहँसकर जान क्या सर्वस्वको भी खो रही है ।
पद-दलित वमुवा विताड़ित कहाँ वह, ग्रभिमान तेरा ; खर्व कैसे हो गया, स्वातन्त्र्य - सौख्य-निशान तेरा । क्या न तू है सिंहनी हरि-सुत यहाँ क्या फिर न होंगे ; क्या न होगा विश्वमं फिरसे, जननि, जयगान तेरा ?
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