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(५) दाने-दानेको तरस जहाँ , बच्चे बूढ़े दे रहे प्राण । पथपर शवका लग रहा ढेर, गृह स्वर्ग तुल्य हो गये श्मशान ।
द्रोपदि, सीता, सावित्री-सी , कुल-वधुएँ क्या कर रहीं आज । तन बेच रहीं दो टुकड़ोंपर , हो गया पतित मानव समाज ।
दो-दो पानेमें पुत्रोंको, मां बेच रही हो जहाँ हन्त । मैं समझ नहीं पाया अब तक , किस तरह मनाएँ हम वसन्त ।
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