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धर्मका मर्म (इस कविताकी वहर उर्दूक वजनपर है) भगवन ! मुझे रास्ता बता दे,
ज्योति टुक ज्ञानकी दिखा दे, चिरकालसे बुद्धिपर है परदा
जल्दी गुरुदेव वह हटा दे। कर्मोने किया खराव-खस्ता,
चरणोंमें पड़ा हूँ दस्तवस्ता , वेखुद मैं खुदीमें हो रहा हूँ,
परमात्मा हूँ पै सो रहा हूँ। इस नींदकी आदि तो नहीं है,
पर अन्त है इसका यह सही है , पत्थरमें छिपी है आत्म-ज्योति,
पाषाणसे अग्नि पैदा होती। फूलोंमें खिली है आत्म ज्योति,
वृक्षोंमें फली है अात्म ज्योति , अज्ञानका वस पड़ा है ताला,
ज्ञानीने है उसे तोड़ डाला। चारित्रसे रास्ता सुगम है,
चलना न बहुत है, वल्कि कम है , आगमने जो मुझको सिखाया, -
है मैंने यहाँ वह कह सुनाया। गुरुदेवसे जो मिला है परसाद,
देता है वही 'अजित परसाद' ।