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यह बहार
[ तेहरेका एक अंश ]
फ़स्ल-ए-बहार याती है हर साल नित नई ! दिखलाती है वहार वह हर साल नित नई ॥ पर वकी सालकी तो अनोखी ही ज्ञान है । देखी कभी न पहले वह अव ग्रान बान है ॥ जाड़ेनं खूब लुत्फ़ दिखाया था ठंडका | अकड़ा था ऐसा नया ठिकाना घमण्डका ॥ संग्रेज़ा किटकिटा रहा वत थर थरा रहा । पारा मुकड़के तीनमे नीचे था या रहा || अंगारा राखमें था मुँह अपना छिपा रहा । चेहरे पे आफ़तावके परदा सा छा रहा || आते ही वस वसन्तके नक्शा वदल गया । वस अन्त जाड़ेका हुआ उनका श्रमल गया || खोंमें सबकी रंग समाया वसन्तका । साफ़ा वसन्ती और दुपट्टा वसन्तका
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दूल्हा दुल्हनकी जोड़ी विधाताने जोड़ी है । दोनों हैं वे-मिसाल क्या यह वात थोड़ी है ॥ जत्र तक जमीं फ़लक रहे जोड़ी बनी रहे । वने वनीमें खूब मोहव्वत वनी रहे ॥
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( एक विवाहोत्सवयर पठित)