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आत्म-प्रश्न
मैं हूँ कौन, कहाँसे ग्राया ?
महाशोक हैं, मानव कलाकर भी इतना जान न पाया । स्वर्ण छोड़ पीतलपर रीझा,
सुधा त्याग पी लिया हलाहल ;
चला वासनाओं के पथपर
,
इतना रे, भरमा श्रन्तस्तल ।
सच्चे सुखका स्वप्न न देखा, दुखपर रहा सदा ललचाया । अपने भले-बुरेकी मैंने समालोचना भी कवकी है ?
श्रात्मिक निर्बलता भी मुझको, नहीं कभी मनमें खरी है ।
'जीवन' भूला रहा, मृत्युको अविवेकी होकर अपनाया ! काश, टूट जाता भीतरसे,
मोह श्रीर मायाका नाता ;
"
तो अपने सुख-दुखका में था उत्तर - दाता भाग्य-विधाता ।
किन्तु गुलामीने हैं मुझको ऐसा गहरा नगा पिलाया ।
एक-एक कर चले जा रहे, दिन जीवनको हँसा रुलाकर ; विघ्न वादलोंमें लिपटा है, इधर मृतक - सा ज्ञान- दिवाकर ।
सूझ न पड़ता ग्रन्वकारमें, क्या अपना है कौन पराया !
मैं हूँ कौन कहाँसे प्राया ?
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