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महावीर - सन्देश
धर्म वही जो सब जीवोंको भवसे पार लगाता हो ; कलह द्वेष मात्सर्य भावको कोसों दूर भगाता हो । जो नवको स्वतन्त्र होनेका सच्चा मार्ग बताता हो ; जिनका आश्रय लेकर प्राणी सुख समृद्धिको पाता हो । जहाँ वर्णसे सदाचारपर अधिक दिया जाता हो जोर ; तर जाते हों जिसके कारण यमपालादिक अंजन चोर ।
जहाँ जातिका गर्व न होवे और न हो थोया अभिमान ; वही धर्म हैं मनुज मात्रका हों जिसमें अधिकार समान । नर नारी पशु पक्षीका हित जिसमें सोचा जाता हो ; दीन हीन पतितोंको भी जो हर्प सहित अपनाता हो । ऐसे व्यापक जैन धर्मसे परिचित हो सारा संसार ; धर्म शुद्ध नहीं होता है, खुला रहे यदि इसका द्वार । धर्म पतित पावन है अपना निश दिन ऐसा गाते हो ; किन्तु बड़ा ग्राश्चर्य आप फिर क्यों इतना सकुचाते हो । प्रेम भाव जगमें फैला दो, करो सत्यका नित व्यवहार ; दुरभिमानको त्याग हिंसक वनो यही जीवनका सार ।
वन उदार ग्रव त्याग वर्म फैला दो अपना देश विदेश - "दास" इसे तुम भूल न जाना, है यह महावीर-सन्देश |
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