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सत्ताका अहंकार तेरा आकार वना कैसे, सागर, वतला इतना विशाल ?
है विन्दु-विन्दुमें अन्तहित तेरा गाम्भीर्य अपार अतल , इनकी समष्टि यदि विखरेतो
दीखे न कहीं वसुवामें जल। तेरा स्वरूप तब हो विलुप्त जो आज बना इतना कराल ।
तेरी सत्ताका क्या स्वल्प इस 'विन्दु-विन्दुसे है विभिन्न ? तू है अज्ञात अपरिचित-सा ,
इस दिव्य तथ्यने अहंमन्य । है श्रेय वता किनको उनका जो कुछ भी है तेरे कमाल ?
एकक विन्दुने आ-आकर तेरा आकार बनाया है, अपने तनको तुझको देकर ।
तेरा गाम्भीर्य बढ़ाया है। त्यों जीवनतत्त्व वने तेरे ज्यों जीवन-पट है तन्तुजाल ।
जिनसे इतना वैभव पाया उनको मत फेंक, अरे, प्रमत्त , तू इनसे बना, न ये तुझसे
इनको क्या हैं तेरा प्रदत्त । -सव हँसते हैं ये देख-देख, उपहास जनक तेरी उछाल !
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