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पलकोंपर सोया हो समतामय विराग -भाव, अधरोंपर स्मित-हास्य, सारे बन्धनोंके प्रति भूला-सा भटका-सा राग औं' विराग-हीन चेतन, अचेतन-सा दिव्य-रूप, दिव्य ज्ञान, दिव्य दृष्टि, दिव्य प्राण ! लक्षित, अलक्षित, अवहेलित-सी अलकोपर जिनका चूंघर-सा रूप, रह-रहकर डोलता-सा, किरणोंसे बोलता-सा, वायुके झकोरों जैसा कलिका-पट खोलता-सा, सोया था शान्ति रस । मीठे-से हलके-से खोये और सोये-से मन्द-मन्द वह रहे, 'कलियोंका पराग लिये, सौरभ, सम्मोहन और मूर्च्छनामय राग लिये
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