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श्री ईश्वरचन्द वो० ए०, एल-एल० वी०
अञ्जलि
आजसे युगों पूर्व तारों-भरा आँचल उठा अस्त-व्यस्त सोई-सी रजनी अलसाई थी। प्राची रस-सागर-तट कुंकुम बिखेरती-सी लज्जासे ओत-प्रोत ऊपा मुसकाई थी। और एक बंकिम्-भंगिमासे चूंघटको खोल, विस्फारित नेत्रोंसे झाँका वह रस-स्वरूप
आँका वह मोहक रूप ज्योतिर्मय, प्रभायुक्त ! सीमित हो उठा था जिसमे विश्वका अखिल ज्ञान, मनियोंका अटल ध्यान, रूपसिका अचल मान, लहरोंका चंचल गान ! सीम्य मूर्ति, जिसपर स्वयं मुक्ति हो मनुहारमयी बन्द नयन ! वन्द जिनमें हो उपेक्षित विश्व
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