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ऋषी-मुनी भी देश कालकी स्थितिका है रखते अवधारण, . क्योंकि सानुकूलता उनकी होतो स्व-पर-श्रेयका कारण , लता-सफलतापर उसकी ही, रक्षामें नव-कुसुम खिलेगा, सराबोर प्यालीका तो रस, नहीं कभी प्रिय छलक सकेगा।
मैं तो नहीं मानता जगको, इस श्रोयी-मायाका जाया , द्रव्य-क्षेत्र-भव-भाव-कालकी, चलती-फिरती रहती छाया , सत्य, शील, तप, दया विना कुछ केवल त्याग' न काम करेगा ,
हराबोर प्यालीका तो रस, नहीं कभी प्रिय छलक सकेगा। शान्ति द्वन्द एकत्र न देखें, आगे पीछे आते जाते , हिमासे उत्पत्ति अहिंसाकी, ही वैयाकरण बताते , केवल अवलोकन न सार्थ है, जव तक वह कर्तृत्व न लेगा , सरावोर प्यालीका तो रस, नहीं कभी प्रिय छलक सकेगा।
परिभाषा-भरकी अभिगतिसे, दूर न होती हृदय कलुपता, पूरव, पूरव-सा कैसे है ? क्यों पच्छिमकी दहती रिपुता , क्षितिज-ककुभ-अम्बरतलमें भी, राग-द्वेष क्या घर कर लेगा ,,
सरावोर प्यालीका तो रस, नहीं कभी प्रिय छलक सकेगा। संकट संस्कृत कर देता है, आत्मग्रन्थिका विकृत-गुंठन , खारी-तृप्त अश्रुकी बूंदें, मधुरिम शीतल कर देतीं मन , देर भले अन्धेर नहीं है, कृतका फल भरपूर मिलेगा, सरावोर प्यालीका तो रस, नहीं कभी प्रिय छलक सकेगा।
मुख-दुख, पाप-पुण्यका अनुचर, दुखमें भी प्राणी सुख कहता , विन साम्यसे देखा करते, मूरख उनमें रोता-हंसता , नियति-नियम तो एक रहा है, कैसे कोई दो कह देगा, सरावोर प्यालीका तो रस, नहीं कभी प्रिय छलक सकेगा।