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भिखारीका स्वप्न
एक था भिक्षुक जगतका भार था , मांगके खाना सदा व्यापार था , वांधके रहता नगर-तट झोंपड़ी , हा, विताता कष्टसे अपनी घड़ी ।१
थी न उसको विश्वकी चिन्ता बड़ी, था सहा करता सभी वाघा कड़ी, द्रव्यवानों-सा न उसका ठाठ था ,
खाटपर कर्कश पुराना टाट था ।२' पासमें था एक पानीका घड़ा ,
ओढ़नेको था फटा कम्बल कड़ा , मक्षिकाएँ भिनभिनाती थीं वहाँ , मच्छरोंकी भी कमी उसमें कहाँ ।३
मांग लाता रोटियां जो ग्रामसे , वैठके खाता बड़े आरामसे , भोज्य जो खाते हुए वचता कहीं ,
टांग देता एक कोनेमें वहीं।४ , और सो जाता निकटके तरु तले , नींदमें जाने पहर उसके चले , एक दिन मिष्टान्न भिक्षामें मिला , प्राप्त कर उसका हृदय पंकज खिला।५
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