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व्यर्थ, कवि, मधु विन्दुनोंसे गीत तू अपने सँजोता, बाल-विधवाकी
तरह
नव-जात छायावाद रोता !
जो वग़ावत फूंक दे - कविता उसे मैं मानता हूँ । या लिखना जानता हूँ !
रीझ प्रेयसिपर रहा जो भूलकर भीषण प्रलयको, देख भूखोंको, न रोया,
३.
क्या कहूँ उस कवि हृदयको ?
और वह दावा करे --- 'युग - धर्मको पहचानता हूँ ।' ग्राम लिखना जानता हूँ !
व्यर्थ है सङ्गीत-लेखन
हो न जगती का भला जव,
यदि न दो रोटी मिलें तो
भूल जायें कवि कला सव !
-गीत रोटीके लिखूंगा-याज प्रण यह ठानता हूँ । याग लिखना जानता हूँ !
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