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श्री मैनावती जैन
"बीत गये दिन उजड़ चुकी है बस्ती मेरी" -- यह श्री मैनावतीके हृदयके स्वर हैं -- प्रकृत्रिम और यथार्थ । अपने विषयमें वह लिखती हैं।
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"मुझे कवियित्री बनने या कहलानेका अभिमान नहीं, दावा नहीं; और इच्छा भी नहीं; परन्तु अपने इन असहाय पीड़ा-भरे शब्दोंको श्रीसूकी लड़ियोंमें गूंथनेका कुछ रोग-सा हो गया है । यह मेरा रोग भी है और मेरे रोगकी सर्वोत्तम श्रौषधि भी ।"
उनके जीवनमें दुःख वज्रकी तरह अचानक श्रा टूटा । १८ फ़रवरी सन् १९४२ को इलाहावादके पास खागा स्टेशनपर जो रेल दुर्घटना हुई थी, उसमें इनके पति श्री विमलप्रसाद जैन, बी० कॉम०, देहली, स्वर्गवासी हो गये थे। उस समय इनके विवाहको ठीक एक वर्ष हुआ था । उसी दिनसे यह मनके गहरे विवादको प्रसुत्रोंकी धारा बहानेका प्रयास कर रही हैं । इनकी कवितामें शब्दोंकी सुकुमारता और शैलीका सुन्दर समावेशं भले ही न हो, किन्तु हृदयको व्यथा अवश्य है ।
श्री मैनावतीका जन्म सन् १९२५ में इलाहाबादमें स्वर्गीय ला० शम्भूदयाल जैनके घरमें हुआ । 'विमल पुष्पाञ्जलि' नामसे श्रापको धार्मिक कविताओंका एक संग्रह भी प्रकाशित हो चुका है ।
चरणों में !
• अव छोड़ जाऊँ कहाँ चरणारविन्द
तेरे ;
कुछ पास है न मेरे ।
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आई हूँ द्वारपर मैं,
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