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आत्म-वेदना
मेरे कौन यहाँ पोंछेगा आँसू, हा, अञ्चलसे,
पारस्परिक सहानुभूति जब भरी हुई हैं छलसे ? समता सीखें यहाँ भला क्या, ईर्षा वश हो करके,
सुखका अनुभव यहाँ करें क्या कटु आहें भर-भरके । धर्म हमारा कहां रहेगा जब प्रवर्मने आकर,
मानवताका नाश किया है पशुताको फैलाकर । जिवर देखिये उधर आपको दिखलाते सव दीन,
धन-शोभा श्रव कहाँ रहेगी जब जग हुआ मलीन ? पास पास करके हमने क्या कर पाया है पास
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तिरस्कार अपमान उपेक्षा या कलुपित उच्छ्वास ? पतझड़के पश्चात् नियमतः श्राती मधुर वसन्त,
पर पतझड़के बाद यहांपर आया गिगिर अनन्त ।
दोहावली
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जीवनभर रटते रहे, हे चातक प्रिय नाम ; मैं तो कभी न ले सका, हा, प्रिय नाम ललाम । १ करकी रेखा देखकर, मनकी रेखा देख ; करकी रेखासे सतत, मनकी रेख विशेष ॥२ निर्मोही बनना चहे, तू मोहीको पूज ; मैल तेलसे धो रहा, हा, तेरी यह सूझ | ३ बैठ महलमें मूढ़ तू, करत पथिक उपहास ; कवसे पतन बता रही, तेरी उठती साँस ॥४
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[ 'चन्द्रशतक' से