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'कुहू कुहू फिर कोयल बोली मन्द समीरणके पंखोंपर, बैंठ, उड़े उसके आतुर स्वर, विकल हया तरु-तरुपर मर्मर, मंजरियोके स्वप्न मधुरतर,
___ भंग हुए, जव शाखा डोली । 'कुहू कुहू.' उरमे अमिट पिपासा लेकर, घूम रहा अति प्राकुल-पातुर, कली-कलोके द्वार-द्वारपर, रोते अधरों रोता मधुकर,
गान समझती दुनिया भोली ! 'कुहू कुहू.' थाई कूक अवनि अम्बरपर, उठी हूक-सी, गरजा सागर, द्रवित हुए गिरि-पाहनके तर, निःश्वासोंसे निकले निर्भर,
विकल व्यथाने पलकें खोली। 'कुहू कुहू.' उरमें किसकी याद छिपाकर, रोती है तू कर ऊँचा स्वर, मचल उठा क्यों मेरा अन्तर, इन आँखोंमें पा नव निर्भर,
तूने उरकी पीड़ा घोली। 'कुहू कुहू' फिर कोयल बोली।
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