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किसी भी देश और जातिकी वास्तविक स्थितिका दिग्दर्शन उसके साहित्यसे हो सकता है। जैनोंका प्राचीन साहित्य प्रकाशमें नहीं आया,
और नवीन समयोपयोगी निर्माण नही हो रहा है। जिस तीव्र गतिते वर्तमान भारतमें प्राचीन पोर अर्वाचीन-साहित्यका निर्माण हो रहा है, उसमें जैनोंका सहयोग बहुत कम है । जैन पूर्वजोंने अपनी अमूल्य रचनाओंसे भारतीय ज्ञानका भण्डार भरा है, उनके ऋणसे उऋण होनेका केवल एक ही उपाय है कि हम उनकी कृतियोंको प्रकाशमें लायें, और लोकोपयोगी नवीन साहित्यका निर्माण करें। ताकि साहित्यिक-संसारकी उन्नतिमें हम भरपूर हाय वटा सकें।
प्राचीन संस्कृत, प्राकृत, पाली जैन और बौद्धग्रंथ एक दर्जन की संख्यामें प्रेसमें है--जो शीघ्र ही प्रकाशित हो रहे हैं। और अन्य भारतीय उत्तमोत्तम-ग्रन्थोंका सम्पादन हो रहा है । प्रस्तुत पुस्तक ज्ञानपीठकी जैन-ग्रन्थ-मालाका प्रथम पुष्प है। और ज्ञानपीठको अध्यक्षा श्रीमती रमारानीजीने बड़े परिश्रमसे इसका सम्पादन किया है।
यद्यपि हिन्दी कविता आज जितनी विकसित और उन्नत है उसके आगे प्रस्तुत पुस्तककी कविताएँ कुछ विशेष महत्त्व नहीं पायेंगी, फिर भी यह एक प्रयत्न है। इससे जैनसमाजकी वर्तमान गति-विधिका परिचय मिलेगा, और भविष्यमें उत्तमोत्तम साहित्य-
निर्माण करनेका लेखकों और प्रकाशकोंको उत्साह भी। प्रस्तुत पुस्तकके कवियोंमें पुरातत्त्वविचक्षण पं० जुगलकिशोरजी मुख्तार, पं० नाथूरामजी प्रेमी और सत्यभक्त पं० दरवारीलालजी आदि कुछ ऐसे गौरव योग्य कवि हैं, जो कभीके इस क्षेत्रसे हटकर पुरातन इतिहासकी शोध-खोजमें लगे हुए हैं; अथवा लोकोपयोगी साहित्य-निर्माण कर रहे हैं। काश वे इस क्षेत्रमें ही सीमित रहे होते तो आज अवश्य जैनों द्वारा प्रस्तुत किया हुआ कविता-साहित्य भी गौरवशाली होता। मुख्तार साहवकी लिखी 'मेरी भावना' ही एक ऐसी अमर रचना है, जिसे आज लाखों नर-नारी पढ़कर आत्म-सन्तोष