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कितना सुन्दर, कितना चंचल, काननका वह मृग रे,
पर उसमें क्या तत्त्व देखता, दुष्ट व्याधका दृग रे, वही रूप लेकर रहता है उस अवोधका दम रे । रे मन
वैभवका वैभव दिखता है सुन्दर, सुन्दरतर, रे, .
अद्भुत महल, अनूपम उपवन, गज, रथ, जर, जेवर रे, चोर लुटेरोंसे पिटवाता वह प्रिय अप्रिय सम रे । रे मन
अपनापन अपनी स्वतन्त्रता अपने में ही लख रे,
इस दम्भी मायाकी जगकी तुझको नहीं परख रे , सहनशीलता नहीं यहाँ त चलना सहम सहम रे । रे मन
उद्बोधन
उठ, उठ मेरे मनके किशोर ! उठ रहा अनल, उठ रही अनिल, उठ रहा गगन, उठ रहा सलिल, पार्थिव कणकणने व्याप्त किया उठ-उठकर यह ब्रह्माण्ड अखिल, उठ पंच तत्त्वके साथ-साथ क्या इनसे तू है भिन्न और, .
उठ, उठ मेरे मनके किशोर ! उठ रही वेदनाएँ प्रति पल, उठ रहीं यातनाएँ प्रति पल, आहे वन-वन चढ़ रहीं गगनमें, आशाएँ जगकी जलजल, वेदना यातना आशाओंका तू भी उठकर पकड़ छोर,
उठ, उठ मेरे मनके किशोर ! मानवता उठती जाती है, दानवता बढ़ती जाती है, इस पुण्य-भूमिकी नवतासे अभिनवता उठती जाती है, इनको सँभालनेको ही उठ, कुछ लगा जोर, कुछ लगा जोर,
उठ, उठ मेरे मनके किशोर ! -
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