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पंडित नाथूराम, 'प्रेमी'
सम्भव है कुछ लोग पं० नाथूरामजीको न जानते हों, पर प्रेमीजीको सारा हिन्दी-संसार जानता है । 'प्रेमी' उपनाम इस बातका द्योतक है कि प्रारम्भमें आप कविके रूपमें ही साहित्यकी रंगभूमिमें उतरे थे। आज कवि 'प्रेमी के जीवन-दीपकी स्निग्ध आभाको उन पंडित नाथूरामजीकी प्रखर प्रतिभाके सूर्यने मन्द कर दिया है जो देशके प्रसिद्ध लेखक हैं, सम्पादक हैं, इतिहासज्ञ हैं, समालोचक हैं, विचारक हैं, और हैं हिन्दीको सबसे सुष्ठु प्रकाशन-संस्था 'हिन्दी-ग्रन्थ-रत्नाकर कार्यालय' के सम्पन्न संचालक तथा जैन-साहित्यको प्रमुख प्रकाशन संस्था 'जैन-ग्रन्थ-रत्नाकर कार्यालय के संस्थापक । स्वयं 'प्रेमी' जी ही उस कविको 'अतीतका गीत' मानने लगे हैं। वह अपने एक पत्रमें लिखते हैं :___"मैं कवि तो नहीं हूँ। लगभग ४०-४२ वर्ष पहले कवि बननेकी चेष्टा की थी, और तब बहुत वर्षों तक कवि कहलाया भी, परन्तु कवि बनते नहीं हैं, वे स्वाभाविक होते हैं। प्रयत्न करके कवि नहीं बना जाता, पद्य लेखक वना जाता है । सो मैं पद्य-निर्माता बनकर ही रह गया और पीछे धीरे धीरे पद्य लिखना भी छोड़ बैठा।
"अपनी रचनाओंको मैंने संग्रह करके नहीं रखा । संग्रह-योग्य वे थीं भी नहीं। ८-१० वर्ष पहले सुहृद्वर पं० जुगलकिशोरजी मुख्तारने 'मेरी भावना' साइजमें 'स्तुति-प्रार्थना' नामकी पुस्तिका छपाई थी। उसमें मेरी ४-६ रचनाएं हैं। पर मेरे पास उसकी भी कोई कापी नहीं है।" ___ 'प्रेमीजीकी महत्ताने उन्हें नम्र बनाया है। वह अपनी कविताके विषयमें कुछ भी कहें, इसमें सन्देह नहीं कि ४० वर्ष पूर्व उनकी कविताओंने समाजमें नये युगका आह्वान किया, कवियोंको नई दिशा दिखाई, कविताको