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श्री गुणभद्र, अगास
पं० गुणभद्रजीको समाजमें कविके रूपमें आदर मिला है और इस आदरको उन्होंने परिश्रम और साधनाके द्वारा प्राप्त किया है। कविताके 'अनेक रूप हैं, अनेक शैलियाँ हैं। कवि जव साहित्यके किसी विशेष अंगको । अपना कार्य-क्षेत्र बना लेता है तो उसकी शैली उसी दिशामें स्थिर-सी होती चली जाती है। श्री गुणभद्रजीने परम्परागत कया-कहानियोंको पद्य-बद्ध करनेका जो कार्य प्रारम्भमें हाथमें लिया था, उसे वह सफलतासे सम्पन्न करते चले जा रहे हैं। निःसन्देह उनकी शैली मुख्यतः वर्णनात्मक है, भावात्मक नहीं। किन्तु लम्बी कथाओंको भादात्मक शैलीमें रचनेके लिए कविको बहुत समय चाहिए, सुरुचिपूर्ण क्षेत्र चाहिए और निरापद साधन चाहिए । दूसरे, प्रत्येक कवि 'साकेत' नहीं लिख सकता, शायद 'जयद्रय-व' लिख सकता है। फिर भी, प्राज जो 'जयद्रथ-वर्ष लिख रहा है उससे फल हम 'साकेत' की प्राशा कर ही सकते हैं। कविको साधनकी भी आवश्यकता होती है और साधनाकी भी। __गुणभद्रजीने साहित्यके एक उपेक्षित अंगको लिया है और उसे वे अपनी रचनासे प्रकानमें ला रहे हैं। इस दिशामें उनका प्रयास अपने ढंगका अनूठा है। कितने ही उठते हुए कवियोंको उनसे स्फूति और प्रेरणा मिली है । साहित्यको बहुमुखी आवश्यकतानोके आधारपर गुणभद्रजीको युग-प्रवर्तकोंमें स्थान मिलना ही चाहिए।
आपने अब तक निम्नलिखित छ ग्रन्थोंकी रचना की है-'जन-भारती', 'रामवनवास', 'प्रद्युम्नचरित', 'साध्वी', 'कुमारी अनन्तमती और 'जिन-चतुर्विशति-स्तुति'।