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जीवन- दीपक
जीवन- दीपक जलता प्रतिपल ।
प्राण तेल है, दीप देह है, दोनोंका अनुपम सनेह है, अज्ञानान्व स्वरूप गेह है,
उसमें ज्योति जलाता निर्मल ।
सव विधि भाव प्रभाका उद्भव, हो विलीन, क्षण-क्षणमें अभिनव, कैसा जीवनका यह उत्सव,
नवल दीप जब जलता झिलमिल !
श्राशात्रोंकी ज्योति निकलती, घोर निशाका धुआँ उगलती, मानवकी यह भीपण गलती,
प्रणयी वन क्यों होता पागल ।
आता जभी कालका झोंका, प्राण-तेल तव देता धोखा,
रुकता नहीं किसीका रोका,
जलते - जलते बुझता तत्पल ।
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